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नेपाली आम चुनाव से पहले प्रचंड का प्रलाप

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 10, 2022 | 4:20 PM IST

कुछ साल पहले जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का आगमन नहीं हुआ था और वोटों की गिनती हाथ से की जाती थी, उस वक्त जिस प्रत्याशी को लगता था कि वह चुनाव हार रहा है, वह सबसे पहले चिल्लाने लगता था कि चुनाव में रिगिंग हुई है।


विजयी प्रत्याशी कभी यह आरोप नहीं लगाता था कि चुनाव को ‘मैनेज’ किया गया है।पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड के पिछले हफ्ते के बयानों से उसी युग की बू आ रही है।


नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के अध्यक्ष प्रचंड ने 10 अप्रैल को होने वाले नेपाल के संसदीय चुनावों से पूर्व धमकी दी है कि चूंकि नेकपा (मा) उस देश में सबसे लोकप्रिय है, बावजूद इसके यदि यह पार्टी सरकार नहीं बना पाई, तो इसके लिए दो ही वजहें जिम्मेदार हो सकती हैं – या तो नेपाल के सम्राट ज्ञानेंद्र ने कोई साजिश रची हो या फिर भारत और अन्य विरोधी राष्ट्रों ने चुनाव को गड्डमड्ड करने की कोशिश की हो।


प्रचंड ने काठमांडू से 300 किलोमीटर दूर मोरांग में एक जनसभा में कहा – हम नहीं जीते, तो हम यह चुनाव मानेंगे ही नहीं।बयान का अर्थ साफ था। यदि माओवादी चुनाव हार जाते हैं, तो इसका जिम्मेदार भारत होगा।यह थोड़ी ज्यादती लगती है। आज की तारीख में माओवादी 303 सीटों वाली नेपाल की संसद में 83 सीटों पर विराजमान है। यानी की एक चौथाई सीटों पर उनका कब्जा है। सरकार बनाने के लिए उन्हें इस संख्या को दोगुना करना होगा।


लोगों का अनुमान है कि उनकी सीट घटकर आधी हो सकती है।तभी यह गर्जन, यह चिंघाड़ कि हमें वोट नहीं देते हो तो देखना… वैसे, आम लोगों को डराने-धमकाने से पहले माओवादियों को यह समझ लेना चाहिए कि यदि वे हारेंगे तो क्यों? वे सोचते थे कि उनके अलावा किसी और के पास हथियार रखने का अधिकार नहीं है। उनकी इस खुशफहमी को मधेसियों ने चुनौती दी है। मधेस में अब हथियारों से लैस कई दल हैं, जो माओवादियों के साथ जंग करने के लिए तैयार हैं।


इस बात की सबसे ज्यादा चिंता माओवादियों को होनी चाहिए।मधेस – जो मध्य देश का स्खलित रूप है – सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। नेपाल के 22 जिले मधेसी इलाके में पड़ते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार से सटा यह इलाका एक जमाने में जंगल हुआ करता था। भारतीय मूल के परिवार नेपाल में जाकर बस गए और जंगल को काटकर, मलेरिया जैसी बीमारियों से जूझकर उर्वर भूमि पर कब्जा किया।


खेती करके पैसा बचाया और पूंजी को छोटे-छोटे कारखानों में लगा दिया। संस्कृति और भाषा से भारतीय, धर्म से अधिकतर हिंदू और भारत से निकट पारिवारिक संबंध रखने वाले मधेसी नेपाल में बसे भले ही हों, पर अपने आप को हमेशा भारतीय मानते रहे। नेपाल की 2001 की जनगणना के अनुसार मधेसी वहां की जनसंख्या के 57 प्रतिशत हैं। मैथिली, भोजपुरी और अवधी बोलने वाले मधेसी मध्य और पश्चिमी नेपाल में थारू जनजातियों के साथ बसे हैं।


मुस्लिम धर्म के मधेसी की संख्या भी नेपाल में बढ़ रही है।लेकिन मूल नेपालियों, जिन्हें पहाड़े कहा जाता है, की नजरों में मधेसी पिछड़ी हुई कौम है। नेपाल को इस बात का बहुत गर्व है कि विश्व की कोई भी साम्राज्यवादी शक्ति उनके देश में कदम नहीं रख सकी। बस एक बार 1816 में सगौली की संधि की वजह से नेपाल को सिक्किम, गढ़वाल और कुमांऊ अंग्रेजों को देना पड़ा।


आज तक उनका मानना है कि यह समर्पण उन्हें मधेसियों की वजह से करना पड़ा, जिन्होंने उस युद्ध में अंग्रेजों की मदद की थी। यही धारणा नेपाली कांग्रेस की है और माओवादी भी ऐसा ही मानते हैं।मधेसी रहते नेपाल में हैं, लेकिन खुद को वहां तिरस्कृत महसूस करते हैं। वहां के स्कूलों में राजा महेंद्र ने हिंदी में पढ़ाई पर रोक लगा दी है। ऐसे परिवारों की संख्या बहुत है, जिनके पास न राष्ट्रीयता के प्रमाण पत्र हैं और न जमीन खरीदने-बेचने का अधिकार।


भारत ने इनसे पल्ला झाड़ लिया है, क्योंकि इनको तवाो देना नेपाल के आंतरिक मामलों में दखल देना होगा। हालांकि अधिकांश मधेसी खुद को भारतीय मानते हैं।नेपाल के सकल घरेलू उत्पाद का आधे से ज्यादा हिस्सा मध्य देश में चल रहे कारखानों और खेतों से आता है। देश का सबसे प्रमुख राजमार्ग ईस्ट-वेस्ट हाईवे मधेस से ही होकर गुजरता है। अत: यह इलाका पूरे नेपाल की अर्थव्यवस्था को ठप करने में सक्षम है।


नेपाल के जन आंदोलनों का कुछ असर मधेस पर भी पड़ा है। जब नेपाल में लोकतंत्र की लहर दौड़ी तो मधेस कैसे अनछुआ रह सकता था! लेकिन हर राजनीतिक पार्टी इनके साथ विश्वासघात करती आ रही हैं। अत: निराशा और हीन भावना से प्रेरित कुछ नवयुवकों ने हथियार थाम लिए हैं। उपेंद्र यादव की अध्यक्षता में मधेसी जनाधिकार फोरम (मजफो) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध है और मूलत: शांतिप्रिय है। लेकिन यह दल राजा का एजेंट माना जाता है।


यही वजह है कि ये माओवादियों को फूटी आंख नहीं सुहाते। उधर, ज्वाला सिंह का गुट हथियार उठा चुका है और माओवादियों के साथ मुठभेड़ भी कर चुका है।नेपाल के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोग माओवादियों से नहीं डरते हैं। समय आने पर वे उन्हें आड़े हाथों भी ले सकते हैं। उन्हें घबराहट होती है – मुसलमानों की बढ़ती संख्या और मधेसियों की चुनौती से। दुख की बात यह है कि ध्येय सबका एक है।


मधेसी भी उन्हीं लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, जिनको पाने के लिए नेपाली कांग्रेस और माओवादियों ने खून बहाया है। लेकिन जब मधेसी अधिकारों की बात आती है, तो इस पर बहस छिड़ जाती है। नेपाली या गैर-नेपाली होने के मुद्दे पर।10 अप्रैल का चुनाव संसद को भी चुनेगा और नया संविधान बनाने वाली समिति को भी।


यदि इसमें मधेसियों को शामिल नहीं किया गया और माओवादियों ने चुनाव में हस्तक्षेप करने की कोशिश की तो भारत के लिए पड़ोस में बड़ा संकट उत्पन्न हो सकता है। माओवादियों के लिए यह चुनाव है, अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने का प्रयास है, लेकिन मधेसियों का अस्तित्व ही दांव पर लगा है।

First Published : April 4, 2008 | 11:51 PM IST