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नीति नियम: अमेरिका में क्या चुनाव नीतियों पर लड़े जा रहे हैं? भारत जैसी स्थितियों की भी दिख रही झलक

ट्रंप के लिए यह हर तरह से गड़बड़ है। एक ऐसा व्यक्ति जो आमतौर पर नीतिगत ब्योरों में नहीं पड़ता है या बड़ी किताबें नहीं पढ़ता है, उसे 920 पन्नों के नीतिगत दस्तावेज से बचना पड़ रहा है।

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मिहिर एस शर्मा   
Last Updated- August 29, 2024 | 10:22 PM IST

वर्ष 2024 को परिभाषित करने वाले राष्ट्रीय चुनावों का अंतिम चरण तेजी से निकट आ रहा है। चुनावों में रुचि रखने वालों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण वर्ष है। अमेरिकी नागरिकों को भी जल्द ही अपनी नई सरकार चुननी है। अब्राहम लिंकन भले ही रिपब्लिकन थे, लेकिन इस समय ‘लोगों के लिए’ नारे के साथ डेमोक्रेट उनके चोले में नजर आ रहे हैं। ऐसे में सवाल बनता है कि क्या चुनाव नीतियों पर लड़े जा रहे हैं?

डेमोक्रेटिक पार्टी को हालिया ओपिनियन पोल्स में बढ़त मिली है भले ही वह जीतने के लिए पर्याप्त नहीं हो। निवर्तमान बुजुर्ग राष्ट्रपति की जगह युवा उप राष्ट्रपति को उम्मीदवार बनाना पार्टी की संभावनाओं में पर्याप्त इजाफा करने वाला माना गया। आंकड़े बताते हैं कि कमला हैरिस के अभियान में दानदाताओं की माध्य आयु 56 वर्ष है जबकि जो बाइडन के लिए यह आंकड़ा 66 वर्ष था।

यह तब हुआ जबकि नीतियों में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया गया। आखिरकार उपराष्ट्रपति स्वयं को राष्ट्रपति की नीतियों से अलग तो बता नहीं सकतीं। कुछ हद तक हैरिस की बातें बाइडन से अलग जरूर हैं। उदाहरण के लिए पश्चिम एशिया में शांति की बात। उन्होंने इजरायल के बचाव पर भी ध्यान दिया और फिलिस्तीनियों के अधिकारों की भी बात की। उनके अभियान को व्यापक नीतिगत पहल के मोर्चे पर शिथिल बताकर जो आलोचना की जा रही है वह भी उचित प्रतीत होती है। परंतु माहौल बन चुका है तो नीतिगत प्रस्ताव की कोई अहमियत बचती भी है? शायद कुछ खास हालात में ऐसा हो।

उदाहरण के लिए वे आपको नकारात्मक दर्शा सकते हैं। पिछले हफ्ते डेमोक्रेटिक नैशनल कन्वेंशन में एक के बाद एक वक्ताओं ने उन योजनाओं और पहलों का जिक्र किया, जिन्हें वॉशिंगटन डीसी के दक्षिणपंथी थिंक टैंक द हेरिटेज फाउंडेशन ने रेखांकित किया था। उन्होंने इसे ‘प्रोजेक्ट 2025’ नाम के प्रकाशन में सामने रखा था। इसके तहत ऐसी नीतियां पेश की गईं, जिन्हें डॉनल्ड ट्रंप के संभावित दूसरे प्रशासन में तत्काल लागू किया जा सकता है। ट्रंप ने खुद को इससे अलग कर लिया है मगर रिपोर्ट लिखने वालों का ट्रंप का प्रचार करने वालों के साथ करीबी रिश्ता देखते हुए यह इनकार बहुत मायने नहीं रखता।

ट्रंप के लिए यह हर तरह से गड़बड़ है। एक ऐसा व्यक्ति जो आमतौर पर नीतिगत ब्योरों में नहीं पड़ता है या बड़ी किताबें नहीं पढ़ता है, उसे 920 पन्नों के नीतिगत दस्तावेज से बचना पड़ रहा है। उन्हें 2016 में बिना किसी नीतिगत ब्योरे के जीत मिली थी। वह अब भी ऐसे ब्योरों में जाने से बचना चाहेंगे। इसके बजाय उनके अभियान को गर्भपात और शिक्षा जैसे मुद्दों पर ध्यान देना होगा, जिन्हें वह अनसुलझा छोड़ना चाहेंगे। डेमोक्रेट राजनेता पीट बटीगीग ने कहा कि वर्ष का सबसे बड़ा स्कैंडल दरअसल एक नीतिगत स्कैंडल है और वह यह तथ्य है कि उन्होंने अपनी नीतियां खुद लिख लीं।

यहां भारतीय जनता पार्टी के सामने आई उस समस्या की झलक दिखती है, जब उसे चुनावों में संवैधानिक गारंटी वाले आरक्षण से जूझना पड़ा था। नीतिगत प्रस्ताव महत्वपूर्ण होते हैं और यदि जरूरी हो तो आपको या आपकी पार्टी को परिभाषित भी कर सकते हैं। यूनाइटेड किंगडम में लेबर पार्टी ने इस वर्ष के आरंभ में संसदीय चुनाव में अपने घोषणापत्र को जिस प्रकार से पेश किया गया था, वह इसका उदाहरण हो सकता है। उनके दावों का सबसे अहम पहलू यह था कि सबकी कीमत बताई गई थी।

दूसरे शब्दों में उनके घोषणापत्र में हर चीज के बारे में साफ और पारदर्शी तरीके से बताया गया था कि उससे राजकोष पर कितना बोझ पड़ेगा। इससे पार्टी का वाम धड़ा नाराज हो गया। परंतु यह कियर स्टार्मर की लेबर पार्टी को उनके पूर्ववर्ती जेरेमी कॉर्बीन की लेबर पार्टी से अलग दिखाने का एक उपयोगी तरीका था, जिनके 2019 के अभियान में सभी प्रकार के खर्च के वादे शामिल थे। इनमें से कुछ वादे तो अंतिम दिनों में बिना किसी खास सोच विचार के जोड़े गए थे।

इस बात ने लेबर पार्टी को कंजरवेटिव पार्टी से भी अलग किया जिसने लिज ट्रस्ट के अल्पकालिक प्रशासन में अप्राप्त कर कटौती प्रस्तावों के बाद गैर जवाबदेही से ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया था। किसी चुनाव में नीतिगत दलीलें तब दिक्कत कर सकती हैं, जब आने वाले समय में आपको शासन करना हो।

लेबर पार्टी ने प्रवासियों के साथ कठोरता बरतने की नीतियों का वादा किया था, लेकिन उसने इस सवाल को हल नहीं किया कि एकीकरण और आत्मसात करने के सवालों से घरेलू स्तर पर कैसे निपटा जाए। परंतु अब इनमें से बाद वाला बिंदु अहम प्राथमिकता है क्योंकि इस महीने देश के अलग-अलग हिस्सों में दंगे देखने को मिले। सरकार पहले किए गए वादे के बजाय बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में व्यय बढ़ाने के बहाने तलाश रही है।

अगर हैरिस चुनाव जीतती हैं तो उन्हें खुद को उस कदर नहीं रोकना होगा। आखिर में अमेरिकी चुनाव में जो मुद्दे अहम होंगे वे हैं- गर्भपात, मुद्रास्फीति और अमेरिकी लोकतंत्र की स्थिति। ये सभी ऐसे मुद्दे नहीं हैं, जिन पर राष्ट्रपति पहले दिन या पहले साल नीतिगत घोषणा करके नियंत्रण हासिल कर लें। यहां उनका तर्क अनिवार्य रूप से नकारात्मक है कि नीति और प्रशासन को लेकर दूसरे प्रत्याशी का रुख गलत है और उनका सही। अनुभूतियों और नीतियों के बीच की सीमा संकीर्ण है। भारत में यह आम रुख है।

कुछ चुनावों के नतीजे घोषणा पत्रों से तय हुए हैं लेकिन अक्सर घोषणा पत्रों को ऐसे निर्देश के रूप में देखा गया है कि प्रतिद्वंद्वी दल किस प्रकार शासन करेंगे। कम से कम एक प्रमुख दल यानी बहुजन समाज पार्टी ने दशकों पहले घोषणापत्र की परंपरा को ही बंद कर दिया। उसके नेताओं ने उचित ही दावा किया कि अतीत से चली आ रही प्रतिकूलताओं और विभाजनों से परिभाषित देश में जहां नीति की दिशा पर उचित आम सहमति है, यह अहम है कि प्रशासन कितना प्रभावी और समावेशी हो सकता है।

यह ध्यान देना होगा कि अतीत में बहुजन समाज पार्टी को इसमें उल्लेखनीय सफलता भी मिली है। यह राह दिखा सकता है कि विपक्ष को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से किस प्रकार निपटना चाहिए। मोदी का लंबे समय से चला आ रहा सत्ता प्रतिष्ठान लक्ष्य तय करना पसंद करता है, लेकिन वह हमेशा उन सुधारों पर आगे नहीं बढ़ता जो उन लक्ष्यों की प्राप्ति को संभव बना सकते हैं।

यहां कहा जा सकता है कि मतदान करने वाले मोदी और उनकी पार्टी पर भरोसा करते हैं कि वे किसी अन्य विकल्प की तुलना में बेहतर ढंग से लक्ष्य प्राप्त करेंगे। विपक्ष किसी भी नीति या सुधार के अंतिम तौर पर घोषित होने पर उसकी आलोचना कर रहा है चाहे मामला कृषि का हो, जमीन का या लैटरल एंट्री अर्थात सीधी भर्ती का। उन्हें जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि जो भी नीतियां चुनी जाती हैं उन्हें लागू करने के लिए मौजूदा लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यह ज्यादा कठिन है।

First Published : August 29, 2024 | 10:22 PM IST