भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने गत सप्ताह नीतिगत रीपो दर को 50 आधार अंक बढ़ाकर 5.4 फीसदी करके अच्छा कदम उठाया। स्थायी जमा सुविधा और सीमांत स्थायी सुविधा दरों को समायोजित करके क्रमश: 5.15 तथा 5.65 फीसदी कर दिया गया। बाजार का एक हिस्सा यह आशा कर रहा था कि दरें तय करने वाली समिति धीमी गति से आगे बढ़ेगी। नीतिगत बैठक से पहले उच्च बॉन्ड कीमतों में यह परिलक्षित भी हुआ था।
बहरहाल एमपीसी ने जो कुछ किया वह करने की उसके पास मजबूत वजह थी। हालांकि खुदरा महंगाई दर में हाल के महीनों में कमी आई है लेकिन यह अभी भी काफी ऊंचे स्तर पर तथा भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा तय दायरे से ऊंचे स्तर पर है। जून में खुदरा मुद्रास्फीति दर 7 फीसदी थी। यह लगातार छठा महीना था जब यह दर आरबीआई के तय दायरे के ऊपरी स्तर से भी ऊंची थी। चूंकि एमपीसी का अनुमान है कि मुद्रास्फीति चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही तक तय दायरे से ऊपर रहेगी इसलिए नीतिगत दर बढ़ाने में धीमापन अनुमानों को प्रभावित कर सकता था। वास्तविक नीतिगत दर अभी भी काफी हद तक ऋणात्मक है और ऐसे में समझदारी इसी में है कि जल्द से जल्द जरूरी कदम उठाए जाएं।
गत सप्ताह के नीतिगत कदम के बाद रीपो दर महामारी के पहले के 5.15 फीसदी के स्तर से ऊपर निकल गई और यहां से एमपीसी को दरों से संबंधित कदम उठाने में कुछ समझदारी का परिचय देना होगा। हालांकि समिति ने इस वर्ष मुद्रास्फीति को लेकर अपने पूर्वानुमान नहीं बदले हैं लेकिन उसे उम्मीद है कि चालू वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में दरें कम होकर 5.8 फीसदी हो जाएंगी और 2023-24 की पहली तिमाही में यह 5 फीसदी हो जाएगी। साफ कहा जाए तो मुद्रास्फीतिक परिदृश्य अनिश्चित बना हुआ है और निष्कर्ष कई कारकों पर निर्भर करेंगे। हालांकि वैश्विक जिंस कीमतें हाल के सप्ताहों में कम हुई हैं लेकिन यूक्रेन युद्ध के कारण ईंधन कीमतों पर दबाव बना रहेगा। उदाहरण के लिए गैस आपूर्ति में अचानक गिरावट एक बार फिर वैश्विक ईंधन कीमतों में तेजी की वजह बन सकती है। अगर वैश्विक मुद्रास्फीति लगातार ऊंची बनी रहती है तो यह भी एक जोखिम है। वहीं अगर विकसित देशों में अनुमान से अधिक नीतिगत सख्ती बरती जाती है तो इससे मुद्रा बाजार लंबे समय तक अस्थिर होगा और इसका असर भारत में मुद्रास्फीति पर भी दिखेगा।
अंतरराष्ट्रीय और घरेलू जोखिमों मसलन मॉनसून की प्रगति आदि के अलावा आने वाले महीनों में नीतिगत निर्णय ब्याज की अनुमानित स्वाभाविक दर, मुद्रास्फीति के लिए समायोजित नीतिगत दर और वास्तविक दर आदि पर भी निर्भर करेंगे। रिजर्व बैंक के अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रकाशित एक हालिया शोध आलेख में कहा गया कि महामारी के बाद स्वाभाविक दर में कमी आई है और अनुमान है कि 2021-22 की तीसरी तिमाही में यह दर 0.8 फीसदी से एक फीसदी के दरमियान रहेगी। चूंकि इस दर का निर्धारण करना मुश्किल है, खासतौर पर उच्च अनिश्चितता के दौर में इसलिए यह मानते हुए कि आरबीआई के अनुमान सही साबित होंगे, नीतिगत दरों को अगले वित्त वर्ष की पहली तिमाही तक 6 फीसदी के स्तर तक जाना होगा। ऐसे में मौद्रिक नीति समिति को यह तय करना होगा कि कितनी जल्दी वह उस स्तर पर पहुंचना चाहती है। यह निर्णय साफतौर पर इस बात पर निर्भर करेगा कि समिति की अगली बैठक में मुद्रास्फीतिक हालात कैसे उभरते हैं। ऊपरी स्तर पर कोई चकित करने वाली स्थिति संभवत: तभी बनेगी जब सितंबर में 50 आधार अंकों का इजाफा किया जाए। वहीं दूसरी ओर मुद्रास्फीतिक दबाव में कमी आने से एमपीसी के पास अवसर होगा कि वह दरों में कम इजाफा करे। तब वह यह तय कर सकेगी कि आने वाली तिमाहियों में वह क्या हासिल करना चाहती है।