भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने निर्णय लिया है कि बाजार पूंजीकरण के लिहाज से शीर्ष 500 सूचीबद्ध कंपनियों में चेयरमैन और प्रबंध निदेशक/मुख्य कार्याधिकारियों की भूमिकाओं को अलग-अलग करने के अधिदेश को बदलकर स्वैच्छिक किया जाएगा। यह निर्णय तर्क से परे है। यह अधिदेश उदय कोटक के नेतृत्व वाली उस समिति की अहम अनुशंसाओं में से एक है जो 2017 में कारोबारी संचालन को लेकर गठित की गई थी। मूल विचार यह था कि चेयरमैन और एमडी/सीईओ के बीच अधिकारों को अलग-अलग बांटने से संचालन ढांचा बेहतर होगा और प्रबंधन की बेहतर निगरानी संभव हो सकेगी। ऐसा करने से सभी अंशधारकों के हितों का बचाव संभव होगा। इसके पश्चात सेबी ने 2018 में सूचीबद्धता के नियमन बदल दिए और कहा कि चेयरमैन का पद गैर कार्यकारी होगा तथा चेयरमैन और प्रबंध निदेशक आपस में संबंधित नहीं होंगे। इन बदलावों के लिए मूल समयसीमा 1 अप्रैल, 2020 थी। परंतु दिसंबर 2020 तक पाया गया कि केवल 53 प्रतिशत कंपनियों में यह बदलाव हुआ। ऐसे में इसे 1 अप्रैल, 2022 तक के लिए टाल दिया गया। प्रावधानों की ताजा शिथिलता के बाद कहा जा सकता है कि सेबी ने शायद इस तथ्य की अनदेखी कर दी है कि कंपनियों के पास अपने कारोबारी संचालन ढांचे में बदलाव लाकर उन्हें वैश्विक स्तर का बनाने के लिए पर्याप्त समय था। इसमें संदेह नहीं कि अनुपालन स्तर इसलिए कम रहा क्योंकि कारोबारी जगत के पारिवारिक स्वामित्व एवं प्रबंधन वाले समूह ऐसे संचालन ढांचे में बदलाव करने के अनिच्छुक हैं जो उनके स्वामित्व नियंत्रण को कमजोर कर सकता है।
बाजार नियामक द्वारा इस अस्वाभाविक शिथिलता की वजह का किसी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता है। पहली बात तो यह कि इससे वे कंपनियां बेवकूफ नजर आ रही हैं जिन्होंने अनुपालन करने का निर्णय लिया। करीब 150 कंपनियां जिनमें अभी भी सीएमडी का पद है उन्हें अनुचित रूप से राहत मिल रही है। इन कंपनियों में रिलायंस इंडस्ट्रीज भी शामिल है जो बाजार पूंजीकरण की दृष्टि से देश की सबसे बड़ी कंपनी है, इसके अलावा देश की सबसे बड़ी निजी बंदरगाह संचालक अदाणी पोट्र्स, तथा देश की दूसरी सबसे बड़ी निजी स्टील उत्पादक कंपनी जेएसडब्ल्यू स्टील शामिल हैं। दूसरी बात, इस बदलाव ने एक असहज करने वाली नजीर तैयार कर दी है कि ऐसे हर नियमन को बदला जाना संभव है जिसे कंपनियां पसंद नहीं करतीं या जिसका पालन करने से वे इनकार करती हैं। उदाहरण के लिए महिलाओं को कॉर्पोरेट बोर्ड में नियुक्त करने की जरूरत की वर्षों तक अनदेखी की गई क्योंकि कंपनियां अनुपालन की अनिच्छुक थीं। यह प्रावधान भी स्वैच्छिक बन सकता है।
इस प्रावधान के प्रवर्तन की नाकामी की एक अच्छी वजह यह है कि सेबी ने पहले इस मुद्दे के सभी पक्षों का आकलन नहीं किया। देश में पारिवारिक स्वामित्व वाली कंपनियों की प्रचुरता है और देश में कॉर्पोरेट संचालन सुधार की दृष्टि से इस कदम की महत्ता को देखते हुए नियामक को मालिकों की इस गहरी अनिच्छा का अनुमान पहले ही लगा लेना चाहिए था कि वे एक अहम पद छोडऩा और कंपनी में दूसरा शक्ति केंद्र कायम होने देना नहीं चाहेंगे। अनुपालन नहीं करने वालों के लिए कुछ दंडात्मक प्रावधान होने चाहिए थे। यदि सेबी ने जोर नहीं दिया होता कि चेयरमैन और प्रबंध निदेशक को आपस में संबंधित नहीं होना चाहिए (कोटक समिति की अनुशंसाओं में यह अनिवार्यता नहीं थी) तो शायद कुछ प्रगति हुई भी होती। सैद्धांतिक रूप से सेबी की व्यवस्था अनापत्तिजनक है लेकिन इसमें यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि मालिक प्रबंध निदेशक के पद का लाभ लेकर पारिवारिक उत्तराधिकारियों को आगे बढ़ाने के लिए करता है। ज्यादा बेहतर यह होता कि एक बार पदों का अलगाव पूरा हो जाने के पश्चात बाद की तिथि में एक संबद्ध प्रावधान लागू कर दिया जाता। निहित स्वार्थों से परिपूर्ण माहौल में चरणबद्ध सुधार बेहतर काम करते हैं।