एक साल से भी कम समय पहले ऐसा लग रहा था कि विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के लिए जमीन का आवंटन किसी भी आम चुनाव में एक बड़ा मुद्दा होगा जो वोटों को प्रभावित कर सकता है।
विपक्ष में बैठी राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार पर इस बात को लेकर निशाना साध रही थीं कि उसने किसानों से आसान शर्तों और बाजार कीमत के मुकाबले सस्ते दामों पर जमीन लेकर उद्योग को मुहैया कराई है।
विपक्षी पार्टियों की ओर से संप्रग सरकार पर हो रहे इन हमलों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने उन किसानों के पुनर्वास के लिए एक नई योजना प्रस्तावित की जिन्होंने सेज के लिए उद्योग को अपनी जमीन बेची।
यह भी सच है कि जिन राजनीतिक पार्टियों ने उद्योग के हाथों अपनी जमीन खो चुके किसानों की लड़ाई में उनका समर्थन किया, उन्हें चुनावी लिहाज से फायदा हुआ। उन्हें उस दौरान हुए स्थानीय चुनावों में से अधिकांश में लाभ मिला। सेज बनाने के लिए उद्योग द्वारा कब्जे में ली गई जमीन पर राजनीतिक चिल्लाहट और आक्रोश वक्त के साथ-साथ धीमे पड़ते गए।
राजनीतिक दल अप्रैल-मई में होने वाले आम चुनाव के बड़े शो की तैयारियों में लगे हुए हैं, जबकि इनकी तैयारियों और इनके एजेंडों में सेज विवाद की कहीं झलक नहीं मिल रही। और अगर वे इस बारे में कुछ कर भी रहे हैं तो, किसानों को उनकी जमीन के बदले मिले कम मुआवजे को लेकर उनका पुराना जोश ठंडा पड़ चुका है।
आठ महीने पहले जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु करार पर दस्तखत करने का फैसला लिया था, उस वक्त संप्रग सरकार से वाम दल ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। वाम दल के नेताओं ने तब तूफान खड़ा कर दिया था कि वे इस देश की आम जनता के बीच सरकार के खिलाफ उनकी राय लेने के लिए पहुंचेंगे, क्योंकि वे मानते थे कि सरकार परमाणु करार के साथ भारत की सत्ता अमेरिका के पास गिरवी रख रही है।
यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी संप्रग सरकार की दुविधापूर्ण स्थिति का राजनीतिक फायदा उठाने का फैसला किया था। सच में, अलग-अलग राज्यों में कई विरोध रैलियां निकाली गई, जिनमें वाम दल के भी कुछ प्रमुख चेहरे शामिल हुए। तब इस बारे में कोई संदेह नहीं था कि जल्द होने वाले आम चुनावों में भारत-अमेरिकी परमाणु करार एक बड़ा मुद्दा बनेगा।
संप्रग सरकार को गिराने के कगार तक लाने का जिम्मेदार यही करार था। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि परमाणु करार के लिए कांग्रेस को बड़े समझौते करने थे ताकि सरकार लोक सभा में विश्वास प्रस्ताव जीत सके। लेकिन आज हालत यह है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के घोषणा पत्र में इसके कुछ जिक्र को छोड़ भारत-अमेरिकी असैनिक परमाणु करार मतदाताओं के बीच कोई मुद्दा नहीं है।
इसी दौरान वैश्विक आर्थिक संकट के प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था और बाजार भी सकते में आ गया। अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार जहां अचानक कछुए की चाल से चलने लगी, वहीं कीमतें आसमान छूने लगीं। अब बेशक महंगाई दर नियंत्रण में है, लेकिन बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और अधिक विकास दर हासिल कर पाना बहुत बड़ी चुनौती मालूम होती है।
आज, ये ही सब मुद्दे हैं, जिन्हें लेकर हर भारतीय मतदाता सबसे अधिक चिंतित है। लेकिन क्या मतदाता सरकार को इस संकट के लिए जिम्मेदार ठहराएगा। इसकी उम्मीद नहीं है। हालांकि भारतीय मतदाता को ऐसी नई सरकार की उम्मीद हो सकती है, जो उसे और अर्थव्यवस्था को इस संकट से उबारने के लिए एक नए पैकेज के साथ सामने आए। इसलिए, इस संकट का ढिंढोरा पीट कर और सरकार को इसके लिए दोषी ठहराकर आप वोट नहीं मांग सकते।
बावजूद इसके, मतदाता ऐसे दल के पक्ष में सामने आ सकते हैं, जो मौजूदा आर्थिक संकट से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिहाज से अधिक प्रभावशाली नीति का बिगुल बजाएं और वह भी आम आदमी पर कम से कम बोझ डालकर।
इसी तरह, आतंकी हमले या इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के क्रिकेट मैचों का भारत में न हो कर दक्षिण अफ्रीका में होने या वरुण गांधी का भड़काने वाला भाषण देने का मुद्दा दो-चार दिन या फिर हफ्तों के लिए सुर्खियों में अपनी जगह बना सकता है लेकिन इस पर विश्वास करना काफी मुश्किल है कि ये मुद्दे ऐसे प्रमुख कारक बनेंगे जिन पर विचार करने के बाद मतदाता यह फैसला करेंगे कि लोक सभा में किस राजनीतिक पार्टी को वोट देकर बहुमत के साथ विजयी बनाया जाए।
भारत में मतदाता काफी ज्यादा चौकस और चौकन्ने हो चुके हैं। उनकी मांगे अब बढ़ने लगी हैं। ये सिर्फ मूलभूत जरूरतों जैसे रोटी, कपड़ा और मकान तक ही सीमित नहीं रह गईं। इतनी ही अहमियत बिजली, पानी और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं को भी दी जा रही है। सरकार में आने के लिए कोई भी राजनीतिक पार्टी इन बुनियादी सुविधाओं को मुहैया कराने का वायदा करती है।
धर्म, क्रिकेट, कीमतें और अमेरिका के साथ गठजोड़ चुनावी भाषणों में बातचीत का विषय तो हो सकते हैं लेकिन चुनाव जीतने के लिए इनका होना जरूरी नहीं है। यही वजह है कि ऐसे मुद्दों के बावजूद ये कुछ ही समय के लिए मतदाताओं के दिमाग में जिंदा रह पाते हैं। जैसे ही कोई नहीं घटना होती है या कोई नया मुद्दा चर्चा और भाषणों का विषय बनता है तो लोग इन्हें भूल जाते हैं।
इसलिए 15वें लोक सभा चुनाव इससे पहले हुए आम चुनाव को देखते हुए पूरी तरह से अलग होंगे। इसकी उम्मीद नहीं है कि मतदाता राजनीतिक दलों की अपने प्रतिद्वंद्वी दलों की नीतियों या कामकाज पर की जाने वाली प्रतिक्रिया से प्रभावित होंगे। इसकी भी संभावना नहीं है कि धर्म और जाति के नाम पर दशकों से चले आ रहे पुराने जुमले मतदाताओं के बीच अपना जादू पहले की तरह बिखेर पाएंगे।
बल्कि इसके बजाए वे ऐसे दल की तरफ रुख कर सकते हैं जो आर्थिक तौर पर उनकी स्थिति को बेहतर बनाने में मदद कर सके। और यह भी एक कारण है कि भाजपा नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) गरीबों तक पैसा पहुंचाने की बात कर रहा है और कांग्रेस की योजना अपने आम आदमी के एजेंडे का विस्तार करते हुए उसमें शहरों में बसे गरीबों को भी शामिल करने की है।