क्या भारतीयों के औपचारिक पहनावे में कुर्ता-पायजामा और धोती-साड़ी का बढ़ता प्रयोग औपनिवेशिक मानसिकता से दूरी और एक किस्म के सांस्कृतिक स्वराज की बानगी है? बता रहे हैं अजित बालकृष्णन
जब मैंने उन सज्जन का अभिवादन किया तो उन्होंने मुझे सवालिया नजरों से देखा। हम दोनों एक दूसरे को अपने कामकाज के शुरुआती दिनों से जानते थे लेकिन बीते तकरीबन 12 वर्षों से हम संपर्क में नहीं थे। मैं उनकी सवालिया नजरों के पीछे की वजह का अनुमान लगा सकता था: मैंने जींस और टीशर्ट की अपनी सामान्य पोशाक की जगह जब से यदाकदा खादी का कुर्ता-पायजामा पहनना शुरू किया है तब से मेरे कई जानने वाले मुझे ऐसी ही नजरों से देखते हैं। जाहिर है ऐसा इसलिए कि तकनीक की दुनिया में जींस और टीशर्ट एक तरह का ड्रेस कोड है। मैं उनके करीब गया और उनका चेहरा मुझे पहचान कर खिल उठा।
उन्होंने कहा, ‘मुझे आश्चर्य हो रहा था कि भला कौन सा नेता मुझे देखकर हाथ हिला रहा है लेकिन जब मैंने आपको करीब से देखा और पहचान लिया तो मुझे और अधिक आश्चर्य हुआ: क्या मेरा दोस्त जो जुनूनी अंदाज में तकनीकी कामों और नवाचारों को प्रोत्साहन देता था, वह नेता बन गया है और उसने सांप्रदायिक तथा जाति आधारित कामों को ऐसा ही समर्थन देना आरंभ कर दिया है?’
मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसा कुछ नहीं है। हमने एक दूसरे को गले लगाया और बातचीत आरंभ की। मैंने उन्हें बताया कि मेरे कुर्ता-पायजामा पहनने की वजह दोस्तों के साथ कच्छ के रन और पोरबंदर की यात्रा है। वहां हमने मोहनदास गांधी का पैतिक घर देखा जहां वह पैदा हुए थे और अपने जीवन के शुरुआती वर्ष बिताए थे। जब मैं उस घर में बैठा तो मेरे दिमाग में तमाम विचार आए। आखिर इस सुदूर छोटे कस्बे में जन्मा बच्चा राष्ट्रपिता कैसे बन सकता है और साथ ही कैसे वह अत्यधिक ताकतवर दमनकारी शक्ति के खिलाफ अहिंसक राजनैतिक आंदोलन का दुनिया को बदल देने वाला दर्शन कैसे दे सकता है।
खैर, जब मेरा चकित होने का सिलसिला थमा और मैं गांधी के घर से बाहर निकला तो वहीं मुझे खादी भंडार नजर आया। तब मैंने अनचाहे ही कई रंगों के कुर्ता-पायजामा खरीद लिए। इस प्रकार मेरे पहनावे में कुर्ता-पायजामा शामिल हुआ।
जब भी मैं इस पोशाक में बाहर निकलता तो मेरे मित्रों के चेहरों पर सवालिया निशान नजर आते। इस बात ने मुझे ‘ड्रेस कोड’ के बारे में चकित किया। ड्रेस कोड से तात्पर्य ऐसे नियम से है जो मानव समाज ने लोगों के पहनावे के बारे में तय किए हैं।
उदाहरण के लिए आखिर क्यों चीन और जापान के प्रधानमंत्री (हम केवल दो देशों के नाम ले रहे हैं) हमेशा पश्चिमी शैली के कोट, टाई, पैंट और जूतों में नजर आते हैं जबकि जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक भारतीय प्रधानमंत्री हमेशा कुर्ता-पायजामा पहनते हैं? चीन और जापान की अपनी संस्कृति, इतिहास और पहनावा है और वह उतना ही पुराना है जितना कि भारत का लेकिन आखिर क्यों उन्होंने पश्चिमी पहनावे के चलते अपनी पोशाक का त्याग कर दिया? जब मैंने एक चीनी मित्र से यह प्रश्न किया तो उसने उत्तर दिया: माओ के जिस पहनावे को ‘माओ सूट’ के नाम से जाना गया उसकी मूल परिकल्पना सुन यात सेन ने की थी और उन्होंने नए डिजाइन को पश्चिमी साम्राज्यवाद के नकार के रूप में देखा था लेकिन कई वर्ष बाद जियांग जेमिन ने केवल पश्चिमी सूट पहनने शुरू कर दिए क्योंकि उन्हें लगा कि यह पुरानी कम्युनिस्ट आर्थिक व्यवस्था के नकार के साथ-साथ प्रगति का प्रतीक था। तब से चीन के नेताओं ने केवल पश्चिमी सूट ही पहने हैं।
भारतीय कॉर्पोरेट जगत में चेयरमेन, मुख्य कार्यकारी अधिकारी और तमाम उद्योग जगत के अन्य वरिष्ठ पुरुष कर्मचारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे पश्चिमी सूट पहनें जबकि वरिष्ठ पदों पर मौजूद महिला कर्मचारियों से आशा की जाती है कि वे साड़ी पहनें।
व्यावहारिक तौर पर भारतीय मध्य वर्ग के सभी पेशेवर चिकित्सक, लेखाकार, इंजीनियर, वास्तुकार, बैंकर और अधिवक्ता आदि बनना चाहते हैं और उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वे पश्चिमी वस्त्र धारण करें। इसके माध्यम से यह संकेत दिया जाता है कि पश्चिमी कपड़े पहनने वाले भारतीय जानकार और सक्षम होते हैं जबकि बाकियों के साथ ऐसा नहीं होता।
जब हम भारतीय पेशेवरों की बात करते हैं तो अधिवक्ता और न्यायाधीशों को अदालत में कभी भी क्लासिक ब्रिटिश चोगे और टोपी के बिना नहीं देखा जा सकता है। मैंने ऐसी घटनाओं के बारे में देखा और सुना है जहां अधिवक्ताओं को केवल इसलिए अदालत में जाकर पैरवी करने से रोक दिया गया क्योंकि उन्होंने औपचारिक पश्चिमी पोशाक नहीं पहनी थी। भारत में किसी अधिवक्ता की पोशाक भारतीय बार काउंसिल के नियमों से संचालित होती है जो अधिवक्ता अधिनियम 1961 के तहत आती है। इसके तहत हर अधिवक्ता को काला चोगा या कोट पहनना जरूरी है।
काली पोशाक को प्रभुता के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। उसके बाद हमारे यहां ऐसी व्यवस्था है जहां केंद्र सरकार के मंत्री हमेशा भारतीय कुर्ता-पायजामा और महिला मंत्री साड़ी में नजर आती हैं जबकि वरिष्ठ आईएएस और आईएफएस अधिकारी जो उनके साथ काम करते हैं उन्हें हमेशा कोट और टाई में देखा जाता है। ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो भारत के स्कूली बच्चों से खास तरह का गणवेश धारण करने की अपेक्षा की जाती है।
लड़कों के गणवेश में अक्सर कॉलर वाली सफेद या रंगीन कमीज और काले या नीले फुल या हाफ पैंट होते हैं। लड़कियों की पोशाक में आमतौर सफेद या रंगीन कुर्ती और किसी खास रंग की स्कर्ट या पैंट होती हैं। हम सभी इसे ही सही मानते हुए बड़े हुए हैं। भारत के ड्रेस कोड के बारे में मेरी उलझन तब बढ़ गई जब हाल ही में मैंने सुना कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों ने यह जरूरी कर दिया है कि उनके वार्षिक दीक्षांत समारोह में सभी स्नातकों को कुर्ता, पायजामा, धोती और साड़ी आदि पहनने होंगे।
मेरे प्रिय पाठकों आखिर चल क्या रहा है? आधिकारिक और औपचारिक अवसरों के लिए कुर्ता, पायजामा, धोती और साड़ी जैसी पोशाक को लेकर हमारा झुकाव इस बात की ओर इशारा करता है कि हम भारतीय औपनिवेशिक शासन की मानसिकता से बाहर निकल रहे हैं। यह एक तरह का सांस्कृतिक स्वराज है या फिर यह आधुनिकता से बाहर निकलने का संकेत है!