अमेरिका में बराक ओबामा राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित हो गए हैं, लेकिन उनके चुनाव का भारत में बसों से क्या वास्ता? बहुत कुछ, अगर आप इसके बारे में गहराई से सोचें।
दरअसल ओबामा एक चीज पर अडिग रहे और उसे लेकर आगे बढ़ते रहे। उसे वह ‘बदलाव’ कहते हैं। ओबामा कहते रहे हैं कि हम जो सोचते हैं और जो करते हैं, उसमें बदलाव आना चाहिए। लेकिन अगर हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में व्यावहारिक परिवर्तन लाने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं तो यह महज एक लफ्फाजी होगी।
और ऐसा करने के लिए हमें निश्चित रूप से यह समझना चाहिए कि यह परिवर्तन हमारे बिजनेस मॉडल में बदलाव मांगता है और इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि हम यह प्राथमिकता तय करें कि हमारी जरूरत के मुताबिक पहले क्या किया जाना है। साथ ही क्या निवेश करने की जरूरत है और कितना निवेश करना चाहिए।
कोई भी, जो भारतीय शहरों में रहता है और भारी यातायात और प्रदूषण से पस्त हो जाता है- वह निश्चित रूप से इस बात को स्वीकार करेगा कि सार्वजनिक परिवहन में आमूल चूल परिवर्तन की जरूरत है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है, जिससे हम सभी वाकिफ हैं कि हमारे शहरों में सार्वजनिक परिवहन में बसों की संख्या घटी ही है, जबकि इसे साल दर साल बढ़ना चाहिए था।
1951 में भारत में अगर 10 वाहन बिकते थे, तो उनमें से एक बस होती थी। लेकिन आज हालत में बहुत बदलाव आया है। अगर 100 वाहन बेचे जाते हैं तो उसमें से केवल 1 बस ही हमारी सड़कों पर आती है।
लेकिन यह तो हमारी समस्याओं की शुरुआत भर है। हकीकत में अगर हमको सड़कों पर और बसों की जरूरत महसूस होती है, और हम ऐसा करना चाहते भी हैं तो हम ऐसा नहीं कर सकते। क्यों? इसके पीछे साधारण कारण है।
हमारे देश की बड़ी ऑटोमोबाइल कंपनियां इसके पीछे मूल वजह हैं, जो हमारे भीड़ भाड़ वाले शहरों के लिए कार बनाने में जुटी हैं। उनके पास बसें बनाने की क्षमता ही नहीं है। इस समय भारत में इस क्षेत्र में केवल दो बड़े कारोबारी हैं टाटा मोटर्स और अशोक लीलैंड। ये कंपनियां भी बसें नहीं बनाती हैं।
ये ट्रकों की शैसि का विनिर्माण करती हैं, जिस पर बॉडी बनाने वाले उस वाहन को जरूरत के मुताबिक आकार देते हैं। उसके बाद जो स्वरूप उभरकर सामने आता है, वह आप सड़कों पर देखते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जब दिल्ली और अहमदाबाद जैसे शहरों में सार्वजनिक परिवहन के लिए बेहतरीन पुर्जों व सामान वाली आरामदायक बसों के लिए टेंडर निकाला जाता है, तो इसमें बहुत ज्यादा कंपनियां हिस्सा नहीं लेती हैं।
हालत यह होती है कि जब वह शहर अंतिम रूप से बसों को खरीदने का ऑर्डर देता है, विनिर्माता समय पर और जरूरत के हिसाब से उसकी मांग नहीं पूरी कर पाते। दिल्ली में पहले चरण में एक साल में केवल 500 शहरी लो फ्लोर बसें ही आ पाईं। अभी भी इंतजार किया जा रहा है कि टाटा मोटर्स जल्द से जल्द मांग के मुताबिक बसों की आपूर्ति कर दे।
कंपनी का कहना है कि लखनऊ में स्थापित नए संयंत्र में वह एक महीने में सामान्य रूप से 100 बसें बना सकती है। अब दिल्ली ने 25,00 और बसों का ऑर्डर दे दिया है। इस बार इसे टाटा और अशोक लीलैंड दो कंपनियों को ऑर्डर दिया है। लीलैंड का कहना है कि वह अगले साल के शुरू में डिलिवरी देना शुरू कर देगी, इसके साथ हर महीने 100 बसें तैयार करने में कंपनी सक्षम हो जाएगी।
दिल्ली ऐसा शहर है जहां हर रोज 1,000 नए वाहन जुड़ते हैं। अभी भी शहर में 6,000 बसों की जरूरत है। लेकिन उन्हें तैयार कौन करेगा? बाजार अर्थव्यवस्था के जानकारों का मानना है कि यह सवाल किसी के जेहन में नहीं है।
वे कहते हैं कि अगर बसों की मांग हो तो विनिर्माता शहर को बसों से पाट देंगे। लेकिन समय की मांग यह है कि कहने के बजाय इस बदलाव के लिए काम किया जाए। इस मामले में हमें यह स्थापित करना चाहिए कि बाजार में इस उत्पाद की जरूरत है, जो इसके उपभोक्ताओं की पहुंच से बाहर है।
अब विनिर्माताओं के सामने चुनौती यह है कि वे ज्यादा आरामदायक बसें सस्ती दरों पर उपलब्ध कराएं। सीधा सा मतलब है कि कुछ ऐसा करें जैसा कि नैनो के मामले में किया गया। असल समस्या यह है कि बस का बाजार कार के बाजार की तुलना में अलग है। कार के बाजार को विनिर्माताओं और क्रेडिट एजेंसियों ने बहुत सावधानीपूर्वक विकसित किया है।
इसलिए ऐसे में जबकि ऑटोमोबाइल विनिर्माता कारें बनाने में लगे हैं और इस ओर अपने कदम तेजी से बढ़ा चुके हैं, वे बसों के निर्माण में बहुत ज्यादा तत्परता नहीं दिखा रहे हैं जो देश भर में लाखों की संख्या में सवारियों को लाती ले जाती हैं।
बस गरीब लोगों की सवारी है और कोई भी इस व्यवसाय में हाथ नहीं डालना चाहता। यह हकीकत है कि बसें विभिन्न एजेंसियों द्वारा चलाई जा रही हैं, जो शहरों में आम लोगों को लाने और ले जाने में ही व्यवसाय करते हैं। वर्तमान में हमारे यहां सभी बस कंपनियां घाटे में चल रही हैं।
यह कहकर समस्या को खारिज करना आसान है कि सार्वजनिक क्षेत्र की अक्षम कंपनियों की वजह से ऐसी स्थिति है। लेकिन इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य छूट जाते हैं। मंत्रालय ने खुद यह गणना की है कि जमीन पर चलने वाले परिवहन से संयुक्त नुकसान 2004-05 में 2000 करोड़ रुपये का रहा।
अगर राज्य द्वारा संचालित सार्वजनिक वाहनों पर से विभिन्न केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बस कंपनियों से लिया जाने वाला कर निकाल दिया जाए, तो यह घाटा 900 करोड़ रुपये आता है। वर्तमान नीति के तहत हम करों को कम करके हवाई यातायात और कार यातायात को सस्ता बना रहे हैं। लेकिन हम यह फायदा बसों को नहीं दे रहे हैं।
अब यहां सवाल यह उठता है कि जब देश की बहुसंख्यक आबादी अब भी बसों से यात्रा करती है, तो उन्हें छूट क्यों नहीं दी जाती? हमारे लोकतंत्र में बहुसंख्यकों की आवाज क्यों दबा दी जाती है? शायद यही कारण है कि हममें से ज्यादा को जरूरत है कि बराक ओबामा की जीत से सीख लें, जहां जनता परिवर्तन के लिए आवाज उठाती है। हो सकता है कि इसके बाद वास्तविक बदलाव नजर आए।