स्कॉटलैंड के रोसलिन इंस्टीट्यूट में पहली क्लोन स्तनधारी ‘डॉली’ के जुलाई 1996 में हुए जन्म के बाद से तमाम जानवरों की अनगिनत हूबहू प्रतिकृतियां दुनिया भर में तैयार की जाती रही हैं। लेकिन बहुत कम देशों ने ही अपनी उत्पादकता एवं बाजार मूल्य बढ़ाने के लिए वाणिज्यिक रूप से महत्त्वपूर्ण पशु प्रजातियों की उन्नत नस्लों के विकास के एक तरीके के तौर पर क्लोनिंग प्रक्रिया को अपनाया है। भारत में छोटे एवं सीमांत कृषकों और भूमिहीन ग्रामीण आबादी की आजीविका का मुख्य आधार फसलों की खेती के बजाय पशुधन ही अधिक रहा है। ऐसी स्थिति में भारत ने मवेशियों खासकर सांडों की क्लोनिंग को काफी हद तक सफलतापूर्वक अंजाम दिया है। इस मकसद के लिए कारगर स्वदेशी क्लोनिंग तकनीक 2000 के दशक के अंतिम वर्षों में विकसित की गई थी। फिलहाल पांच क्लोन सांडों का इस्तेमाल वीर्य के लिए किया जा रहा है जिनकी मदद से कृत्रिम गर्भाधान किए जाते हैं। इस साल के अंत तक 13 अन्य सांड भी कृत्रिम गर्भाधान के लिए वीर्य जुटाने का काम करने लगेंगे।
क्लोन भैंसे का पहला बछड़ा करनाल स्थित राष्ट्रीय दुग्ध अनुसंधान संस्थान (एनडीआरआई) में 6 फरवरी को पैदा हुआ था। लेकिन समरूप नाम का यह बछड़ा फेफड़े में संक्रमण की वजह से जन्म के एक हफ्ते बाद ही मर गया था। उसकी मौत ने क्लोनिंग की समूची तकनीक को ही कठघरे में खड़ा कर दिया था लेकिन चार महीने बाद ही पैदा हुई दूसरी बछिया ‘गरिमा’ के जिंदा रह जाने से वह चिंता भी दूर हुई। उसने वयस्क होने के बाद स्वस्थ संतानों को भी जन्म दिया। आज स्थिति यह है कि सांड की क्लोनिंग में भारत को महारत हासिल हो चुकी है। दुनिया में पहली बार एम-29 के तौर पर चिह्नित सांड के सात क्लोन प्रतिरूप और हिसार-गौरव नाम वाले एक अन्य क्लोन सांड के दोबारा क्लोन से एक बछड़ा हरियाणा के हिसार स्थित केंद्रीय भैंस शोध संस्थान (सीआईआरबी) में पिछले साल विकसित किए गए। यह सांड खुद भी उच्च नस्ल वाले एम-4539 सांड का एक क्लोन था। ये आठों क्लोन जीव अक्टूबर 2019 से लेकर जनवरी 2020 के दौरान अलग-अलग माताओं से पैदा हुए थे। इस शोध संस्थान ने इन क्लोन सांडों की मदद से संतानोत्पत्ति के लिए वीर्य की हजारों खुराक इक_ा की हैं।
क्लोनिंग तकनीक को शुरुआत में काफी संदेह की नजर से देखा जाता था। इसके आलोचकों का कहना था कि यह तकनीक अनैतिक होने के साथ ही खतरनाक भी है। इंसानों या दूसरे सजीव जीवों का क्लोन तैयार करने में भी इस तकनीक का दुरुपयोग किया जा सकता है। लेकिन इसके समर्थकों को लगता था कि चिकित्सा क्षेत्र में यह तकनीक काफी मददगार साबित हो सकती है। आनुवांशिक रूप से संवर्धित पशुओं के क्लोन से इंसानों के लिए महत्त्वपूर्ण अंग विकसित किए जा सकते हैं। इन भ्रूणों से लगातार बिगड़ती स्नायु बीमारियों मसलन पार्किन्संस एवं अल्जाइमर के इलाज के लिए स्टेम कोशिकाएं भी निकाली जा सकती हैं। कुछ विशेषज्ञों की नजर में तो क्लोनिंग तकनीक जानवरों की संकटग्रस्त प्रजातियों को संरक्षित करने का साधन भी बन सकती है।
पहली क्लोन भेड़ डॉली का जीवन कम होने से क्लोनिंग के खिलाफ धारणा मजबूत हुई थी लेकिन बाद में वह भी दूर हो गई। भले ही डॉली गर्भधारण करने एवं चार मेमनों को जन्म देने में सफल रही लेकिन पैरों में आर्थराइटिस हो जाने से ऐसी आशंकाओं को बल मिलने लगा था कि क्लोनिंग प्रक्रिया में आनुवांशिक विसंगतियां पैदा हो जाती हैं। इस भेड़ को छह साल की उम्र में ही फरवरी 2003 में मौत की नींद सुलाना पड़ा क्योंकि उसकी बीमारी लाइलाज हो चुकी थी।
हालांकि उसके बाद से अब तक क्लोनिंग एवं क्लोन किए गए जानवरों के बारे में समझ पूरी तरह बदल चुकी है। अब यह अहसास हो चुका है कि क्लोनिंग से जन्मे जानवरों में कुछ खास होता है।
स्वाभाविक प्रक्रिया से जन्मे जानवरों की तुलना में क्लोन पशुओं में विसंगतियां होने का जोखिम ज्यादा होता है लेकिन इसकी वजह प्रक्रियागत समस्याएं ज्यादा होती हैं। मसलन, टेस्ट ट्यूब में भ्रूण का ठीक से विकास न होना या फिर विकसित भ्रूण को सरोगेट मां के गर्भ में स्थानांतरित करते समय कुछ मुश्किलें पैदा हो सकती हैं। जन्म के समय सामान्य रहे अधिकांश क्लोन पशु बाद में भी अमूमन सामान्य रूप से ही बढ़ते हैं। उनका व्यवहार भी काफी हद तक परंपरागत पशुओं जैसा ही होता है। सीआईआरबी के निदेशक पी एस यादव के मुताबिक भैंसों के मालिकों को यह समझाने की कोशिशें जारी हैं कि क्लोनिंग तकनीक चुनिंदा सांडों के प्रतिरूप तैयार करने में बेहद मददगार है जिससे बढिय़ा नस्ल के मवेशी पैदा होते हैं। ऐसे सांडों के प्रतिरूपों की समुचित संख्या होने से भैंसों को आनुवांशिक रूप से उन्नत करने का कार्यक्रम बड़े पैमाने पर चलाया जा सकता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक त्रिलोचन महापात्र कहते हैं कि क्लोनिंग किसी एक जानवर का आनुवांशिक रूप से हूबहू प्रतिरूप पैदा करने की एक वैज्ञानिक विधि है जो कि फसली पौधों की अलैंगिक उपज जैसा ही है। महापात्र कहते हैं, ‘क्लोनिंग तकनीक आला दर्जे के सांडों की नकल जल्द तैयार करने का एक कारगर विकल्प है ताकि उन्नत किस्म के वीर्य की मांग पूरी की जा सके।’
इस तकनीक का विकास एवं लोकप्रिय बनाने की पहल भारत के पशुधन क्षेत्र के लिए वरदान हो सकती है। भारत में दूध उत्पादन का बड़ा जरिया भैंस ही है। भैंस से दूध के अलावा मांस भी मिलने की उम्मीद उसे गायों की तुलना में वरीयता दिलाती है। भैंस न सिर्फ गाय से ज्यादा मात्रा में दूध देती है बल्कि उसके दूध में वसा का अनुपात भी अधिक होता है। दूध देने के लायक नहीं रही भैंसों को ठिकाने लगाने से जुड़ी कोई कानूनी अड़चन या मान्यता भी नहीं है। पशुधन क्षेत्र का भविष्य बढिय़ा देसी गायों के साथ अच्छी नस्ल वाली भैंसों पर ही निर्भर करता है।