आजादी के बाद से भारत की जल नीति प्राथमिक रूप से बड़े बांध बनाने और भूजल उत्खनन पर केंद्रित रही है। नई राष्ट्रीय जल नीति (एनडब्ल्यूपी) जिसका मसौदा पहली बार स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक समिति ने तैयार किया है, उसका कहना है कि भविष्य में देश के विभिन्न हिस्सों में इस नीति को अपनाने की सीमाएं हैं और वे स्पष्ट जाहिर हो रही हैं। देश में अब बड़े बांध बनाने के लिए जगह नहीं है जबकि देश के कई हिस्सों में जल स्तर और भूजल की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आ रही है। ऐसे में बिना और अधिक बांधों की संभावनाओं को खारिज किए और बिना भूजल का सतत इस्तेमाल तय किए, नई एनडब्ल्यूपी पानी के वितरण और प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करने को कहती है।
नई नीति, नीति आयोग के उस अनुमान की ओर ध्यान आकृष्ट करती है जिसमें उसने तैयार सिंचाई संभावना (आईपीसी) और प्रयुक्त सिंचाई संभावना (आईपीयू) के बीच बढ़ते अंतर की बात की है। इसका अर्थ यह हुआ कि लाखों करोड़ लीटर पानी, जो राजकोष और पर्यावरण की भारी कीमत पर भंडारित किया गया है, वह उन किसानों तक नहीं पहुंच रहा है जहां उसे पहुंचना चाहिए। आईपीसी-आईपीयू के अंतर को पाटने से दसियों लाख हेक्टेयर भूमि बहुत कम लागत पर सिंचित हो सकती है और यह सब बिना कोई नया बांध बनाए संभव है। इसे संभव बनाने के लिए संबंधित क्षेत्रों का प्रबंधन किसानों को सौंपना होगा। कई राज्यों में ऐसी परियोजनाओं की सफलता यह दर्शाती है कि एक बार अगर किसानों के मन में स्वामित्व का भाव आ जाए तो सिंचाई व्यवस्था के परिचालन और प्रबंधन की प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव आता है। किसान स्वेच्छा से अपने जल उपयोगकर्ता संघों (डब्ल्यूयूए) को सिंचाई सेवा शुल्क (एक पारदर्शी और भागीदारी वाली प्रक्रिया द्वारा निर्धारित) चुकाते हैं। इससे डब्ल्यूयूए वितरण तंत्र के रखरखाव में सक्षम होते हैं और वे यह सुनिश्चित कर पाते हैं कि पानी हर खेत तक पहुंचे। इस तरह का भागीदारी वाला सिंचाई प्रबंधन करने के लिए यह आवश्यक है कि राज्यों के सिंचाई विभाग तकनीकी और वित्तीय रूप से जटिल ढांचों पर अधिक ध्यान दें, उदाहरण के लिए प्रमुख व्यवस्था और द्वितीयक नहरें। तीसरे स्तर की नहरें, छोटे ढांचे और खेतों में जाने वाली नहरों को डब्ल्यूयूए को सौंपा जाता है ताकि पानी का दूरदराज स्थित किसानों तक पहुंचना सुनिश्चित हो सके।
कई राज्यों ने उच्च दाब वाली पाइपलाइन तथा सुपरवाइजरी कंट्रोल ऐंड डेटा एक्विजिशन (एससीएडीए) सिस्टम तथा दाब वाली सूक्ष्म सिंचाई की व्यवस्था की है। इससे कई तरह के लाभ उत्पन्न होते हैं: भूमि अधिग्रहण की कम लागत, तेज क्रियान्वयन, जल उपयोग में उच्च किफायत और ज्यादा जवाबदेही तथा पारदर्शिता। इसके साथ ही समय पर समुचित सूचनाएं मिलती हैं और किसानों को पानी के वितरण की आश्वस्ति रहती है। दुनिया भर में ऐसे तमाम प्रमाण हैं जो जल भंडारण और जलापूर्ति के लिए ‘प्रकृति आधारित उपायों’ के पक्षधर हैं। ऐसे में एनडब्ल्यूपी में इस बात पर काफी जोर दिया गया है कि कैचमेंट एरिया (जल भराव क्षेत्र) को नए सिरे से तैयार करके पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जाए। इन क्षेत्रों के विध्वंस और इनकी अनदेखी के कारण सालाना प्रति हेक्टेयर करीब 15.35 टन मिट्टी का नुकसान हो रहा है जिससे जलाशयों में गाद भरती है और उनकी क्षमता में हर वर्ष एक-दो टन की कमी आती है। एनडब्ल्यूपी का प्रस्ताव है कि सभी बांधों की सुरक्षा और उनमें गाद की स्थिति तथा 50 वर्ष से अधिक पुराने डायवर्जन वायर (नदी या नहर का जल स्तर बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले) की व्यापक समीक्षा की जाए तथा असुरक्षित पाए जाने वाले ढांचों या भंडारण क्षमता के 80 फीसदी हिस्से तक पट चुके जलाशयों का इस्तेमाल बंद किया जा सकता है। इसके लिए सभी अंशधारकों की सहमति लेनी चाहिए। एनडब्ल्यूपी ने अनुशंसा की है कि नदियों क कैचमेंट एरिया के पुनरुद्धार को प्रोत्साहित करने के लिए पर्यावास सेवाओं की क्षतिपूर्ति की जाए, खासतौर पर ऊपरी, पहाड़ी इलाकों में रहने वाले संवेदनशील समुदायों के लिए।
ग्रामीण और शहरी इलाकों में स्थानीय स्तर पर वर्षा जल संरक्षण को लेकर नए सिरे होने वाले प्रयासों को पारंपरिक स्थानीय जलधाराओं को चिह्नित, अधिसूचित, संरक्षित और पुनर्जीवित करने वाले प्रयासों के साथ जोडऩा होगा। इससे शहरी क्षेत्र में नीला-हरा बुनियादी ढांचा विकसित होगा ताकि पानी की गुणवत्ता तथा जल स्तर सुधारा जा सके। इसके साथ ही बाढ़ को सीमित करने, तथा रेन गार्डेन और बायोस्वेल्स (कृत्रिम संरचना जिनके माध्यम से विभिन्न स्थानों से वर्षा जल निकाला जाता है), शहरी पार्क, वेटलैंड, रास्ते का कच्चा फर्श, स्थायी प्राकृतिक नाली व्यवस्था, हरीभरी छतों और दीवारों जैसी विशेष अधोसंरचनाएं तैयार की जा सकती हैं। अनुशंसा की गई है कि सभी सरकारी इमारतों को सतत भवन संहिताओं के अनुसार तैयार किया जाएगा, उनमें पानी का प्रबंधन पुनर्चक्रण, दोबारा इस्तेमाल आदि के जरिये किया जाएगा। भूजल भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज की जीवनरेखा है, इस बात को समझते हुए एनडब्ल्यूपी अपने संचालन और प्रबंधन को उच्चतम प्राथमिकता देती है। ज्यादा गहराइयों तक खनन और बड़े पैमाने पर जल निमासी के कारण अनेक जिलों में जल स्तर और जल की गुणवत्ता दोनों में गिरावट आई है। यह बिना विविधताओं का ध्यान रखे एक साझा संसाधन के बेतहाशा खनन से हुआ है। भूजल जो पर्यावास संबंधी सेवाएं प्रदान करता है वे भी खतरे में पड़ गयी हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नदियों का सूखने के रूप में सामने आया है क्योंकि मॉनसून के बाद के समय में वे भूजल प्रवाह पर निर्भर रहती हैं।
चूंकि भूजल एक साझा संसाधन है और बड़े पैमाने पर भूजल स्रोत मसलन चार करोड़ कुएं और ट्यूबवेल और 40-50 लाख जल स्रोत विविध सामाजिक और पर्यावास क्षेत्र में विस्तारित हैं, ऐसे में एनडब्ल्यूपी का सुझाव है कि भूजल का प्रभावी प्रबंधन केंद्रीकृत लाइसेंस आधारित अफसरशाही रवैये से संभव नहीं। इसके बजाय भागीदारी वाला भूजल प्रबंधन करना होगा। ऐसे में अटल भूजल योजना को ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भूजल कार्यक्रमों का आधार बनाया जा सकता है। जलाशयों की सीमा, जल भंडारण क्षमता और जलाशयों में प्रवाह के बारे में जानकारी आसानी से सभी अंशधारकों तक पहुंचनी चाहिए ताकि वे भूजल के सतत और समतापूर्ण प्रबंधन के लिए नियम विकसित कर सकें। यह प्रबंधन स्थानीय स्तर पर होना चाहिए ओर इस दौरान देश की जलीय विविधता का ध्यान रखना चाहिए। एनडब्ल्यूपी का प्रस्ताव है कि राष्ट्रीय जलवाही स्तर प्रबंधन कार्यक्रम (एनएक्यूयूआईएम) को एकदम निचले स्तर से निर्णय लेने की प्रक्रिया अपनानी होगी। ऐसा करने पर ही भूजल संबंधी सूचनाओं का सही इस्तेमाल संभव हो सकेगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो देश के जल संकट का समाधान मुश्किल है।
(लेखक शिव नाडर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। वह नई राष्ट्रीय जल नीति का खाका तैयार करने वाली समिति के प्रमुख हैं)
