हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में राज्य सभा चुनावों में हुई क्रॉस-वोटिंग और दलबदल के घटनाक्रम ने कई महत्त्वपूर्ण सियासी सवाल खड़े कर दिए हैं। जैसे कि नेताओं को पार्टी के प्रति वफादार रहने या उसे छोड़ने का मुख्य प्रेरणास्रोत क्या है? किन वजहों से कुछ दल एक साथ रहते हैं जबकि कुछ विभाजित हो जाते हैं? पार्टियों को एकजुट रखने का मूल आधार क्या है और किन वजहों से यह आधार कमजोर हो जाता है?
पहली वजह, निश्चित रूप से सत्ता और पूंजी की ताकत है जो लोगों को पार्टी में रहने या छोड़ने के लिए प्रेरित करता है। ये वजहें इन दलों को एक साथ बनाए रखने वाले गोंद या दूर करने वाले चुंबक की तरह ही होनी चाहिए। लेकिन यह सच नहीं है। अगर ऐसा होता, तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 1984 में कांग्रेस की 414 सीट की तुलना में सिर्फ दो सीट पर सिमट जाने के बाद भी सबसे अधिक एकजुटता बनाए रखने वाली राष्ट्रीय पार्टी कैसे बनी रहती?
भाजपा, वर्ष 1980 में मूल भारतीय जनसंघ (बीजेएस) के नए अवतार के रूप में उभरी थी। लेकिन भारतीय जनसंघ राजनीतिक वनवास के दौर में भी दशकों तक अपना अस्तित्व मजबूती से बनाए रखने में कामयाब रही थी। वर्ष 1947 और 1989 के बीच न तो इस पार्टी और न ही इसके उत्तराधिकारी दल को केंद्र की सत्ता का स्वाद चखने को मिला। हालांकि जनता पार्टी के घटक के रूप में वर्ष 1977-79 के 28 महीने के दौरान इसे जरूर सत्ता से जुड़ने का मौका मिला था।
जनसंघ ने खुद को जनता पार्टी में मिला लिया और इसके सभी सदस्यों ने भी कर्तव्यपरायणता दिखाते हुए बिना किसी विरोध के अपनी सहमति व्यक्त की। इसका स्पष्ट तर्क यह हो सकता है, ‘बेशक, उन्होंने सत्ता के लिए ऐसा किया।’ लेकिन इस तर्क में भी खामियां हैं। ऐसा इसलिए कि सत्ता जाने के बाद, जनसंघ के सभी लोग भाजपा के रूप में फिर से संगठित हो गए। कोई भी कांग्रेस में शामिल नहीं हुआ या अपना खुद का कोई दल नहीं बनाया। इससे यह निष्कर्ष निकालने में सहूलियत मिल सकती है कि विचारधारा के चलते दल एकजुट हो सकते हैं। मैं यहां कुछ और तर्क की चुनौती देने के लिए तैयार हूं।
क्या लोग भाजपा/जनसंघ को नहीं छोड़ते रहे हैं? बिल्कुल, बलराज मधोक और कुछ अन्य लोगों ने 1970 के दशक की शुरुआत में पार्टी में एक शख्सियत के बढ़ते प्रभाव को लेकर विरोध किया था और पार्टी छोड़ दी थी। लेकिन वे दल बदल कर कांग्रेस में नहीं गए, चाहे इंदिरा गांधी उन्हें कितना भी लुभाने की कोशिश करतीं। समसामयिक स्तर पर देखा जाए तो शंकरसिंह वाघेला, कल्याण सिंह, उमा भारती और बीएस येदियुरप्पा ने पार्टी छोड़ दी और अपने छोटे राजनीतिक दल बना लिए।
केवल वाघेला ने मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया और यह बात वर्ष 1996 की है। वह उस वक्त से पार्टी छोड़ चुके हैं और अब नरेंद्र मोदी की प्रशंसा कर रहे हैं। बाकी तीनों नेताओं की भाजपा में घर वापसी हो चुकी है। भाजपा अकेली ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है जिसकी कोई राजनीतिक उप शाखा नहीं है।
भारतीय राजनीति उतनी दिलचस्प नहीं होती अगर वह किसी भी स्पष्ट लगने वाले विचार या ‘निस्संदेह’ से शुरू होने वाले उत्तर का खंडन नहीं करती। लेकिन एक सवाल यह भी है कि अगर विचारधारा दलों को एक साथ रखती है, तब समाजवादी पार्टी में सबसे अधिक विभाजन क्यों देखा गया और प्रारंभिक दौर में व्यक्तिगत संस्थापकों के अधीन अलग सियासी दल बनाने के रास्ते क्यों अपनाए गए?
समाजवादियों के पास एक विचारधारा भी थी और इसके भीतर एक और भी स्पष्ट रूप से परिभाषित विचारधारा थी, लोहियावाद। अब उन धड़ों को गिनें जिनमें लोहियावादी विभाजित हो गए हैं और उन्होंने अलग-अलग रास्ते चुने। इनमें नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, मुलायम/अखिलेश, लालू/तेजस्वी शामिल हैं। यह गिनती जारी रखी जा सकती है।
हमारे पास एक और विकल्प है जो बहुत स्पष्ट लगता है। भाजपा का मुख्य नेतृत्व कभी संसाधन विहीन नहीं था बल्कि इनमें से ज्यादातर का तालुल्क संपन्न परिवारों से था। इन्हें संघ की तरफ से प्रशिक्षण मिला था और इसलिए वे पूरी गहराई से उस विचारधारा से जुड़े थे।
जो चीज राजनीतिक दलों को एक साथ जोड़े रखती है वह है आर्थिक रूप से आरामदायक व्यक्तिगत जीवन और वैचारिक प्रतिबद्धता का होना। इसके साथ ही, सत्ता का स्वाद भी जो भाजपा को 1989 से ही मिला है। लेकिन भारत के वामपंथियों के बारे में क्या कहा जा सकता है?
ऐसी मिसाल शायद ही मिले जब वामपंथी दलों के सदस्य ने दल बदला हो। अगर विचारधारा की बात छोड़ दे तों उनकी वफादारी कैसे बनी रहती है, खासतौर पर इस तथ्य पर विचार करते हुए कि उन्हें शायद ही कभी सत्ता मिलती है और उनके पास निजी तौर पर खूब संपत्ति भी नहीं है? इस संदर्भ में ‘स्पष्ट रूप से और निस्संदेह’ वाला उत्तर भी नहीं कारगर होगा।
इसकी वजह यह है कि वामपंथी दल नहीं बदलते बल्कि वे विभाजित हो जाते हैं। लेकिन वे सत्ता या पैसे के लिए ऐसा नहीं करते हैं। वे वैचारिक शुद्धता की तलाश में विभाजित होते हैं और उनका गहन तर्क इस बात पर होता है कि किसका अनुसरण करना हैः लेनिन, माओ, त्रोत्सकी, रूस या फिर चीन?
सवाल फिर भी है कि क्या कोई ताकतवर शख्सियत या कोई राजनीतिक वंशवादी परंपरा ही राजनीतिक दलों को एकजुट रख सकती है और नई प्रतिभा को अपनी ओर आकर्षित भी कर सकती है। आप नरेंद्र मोदी की भाजपा, स्तालिन की द्रमुक ( जिसकी एक खास विचारधारा है, हालांकि यह एक राज्य तक ही सीमित है) और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को बाहरी स्तर पर देखें क्योंकि इन्हें भी कुछ लोगों ने छोड़ा है।
लेकिन अन्य सभी व्यक्तित्व/वंशवादी परंपरा वाले राजनीतिक दलों पर भी गौर करें तब आपको मालूम पड़ेगा कि मायावती की बसपा, शिवसेना, शरद पवार की राकांपा या बादल परिवार के शिरोमणि अकाली दल को छोड़कर जाने वाले लोग भी मिलेंगे। हम आज के संदर्भ के लिहाज से सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर वापस आते हैं जो कांग्रेस की अपने संगठन को एकजुट रखने में विफलता से जुड़ी है।
पार्टी यह दावा करती है कि इसकी एक विचारधारा हैं और शीर्ष स्तर पर एक नेता/वंशवादी परंपरा भी है। जब हिमंत विश्व शर्मा से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता इस पार्टी छोड़ देते हैं तब उन्हें पार्टी की विचारधारा के प्रति सच्चा न रहने के लिए खारिज कर दिया जाता है। पार्टी में देने के लिए शक्ति और संरक्षण का दायरा भी है लेकिन यह कम हो रहा है। शीर्ष स्तर पर एक मजबूत शख्सियत/वंशवादी नेतृत्व होने के चलते यह शत-प्रतिशत उपयुक्त भी लगता है। हालांकि पार्टी से प्रतिभाशाली लोगों का पलायन हो रहा है। हालात यहां तक बिगड़े कि इसके एक मुख्यमंत्री (पेमा खांडू, अरुणाचल प्रदेश) को पूरे विधायक दल के साथ भाजपा में शामिल होते देखा गया है।
इसकी वैचारिक प्रतिबद्धता विश्वसनीय नहीं है और यह इस बात से स्पष्ट है कि इसके कई प्रमुख नेता आसानी से भाजपा से जुड़ जाते हैं। क्या इसके लिए पैसा, सत्ता और ‘एजेंसियों से सुरक्षा’ के साथ-साथ मोदी-शाह भाजपा के अनूठे ‘आकर्षण’ को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
हालांकि 1969 के बाद से ही पार्टी हर कुछ वर्षों में विभाजित हो रही है। आखिरी बड़ा विभाजन तब हुआ जब जनवरी 1978 में पार्टी के वरिष्ठतम नेता सत्ता से कुछ महीने बाहर रहने का दुख नहीं सह सके। इनमें शामिल थे ‘इंदिरा इज इंडिया’ वाले डी के बरुआ, वसंतदादा पाटिल, वाई बी चव्हाण और स्वर्ण सिंह। बाद में, पार्टी के हमेशा वफादार रहे ए के एंटनी कांग्रेस (अर्स) में शामिल हुए और फिर अपनी खुद की पार्टी कांग्रेस (ए) बना ली। चौधरी चरण सिंह, शरद पवार, वाईएस जगनमोहन रेड्डी, ममता बनर्जी और हिमंत विश्व शर्मा सभी ने मुख्य पार्टी के कमजोर होने के साथ ही अपनी खुद की राजनीतिक ताकत बनाने की कोशिश की।
इसका निष्कर्ष क्या है? पहली बात यह है कि विचारधारा एक मजबूत बंधन हो सकती है, लेकिन इसके लिए यह स्पष्ट और धारदार विचारधारा होनी चाहिए और इसे कम उम्र से ही लोगों के दिमाग में बिठाया जाना चाहिए, जैसा कि भाजपा/संघ, वामपंथियों और द्रविड़ दलों ने किया है। एक मजबूत व्यक्तित्व या वंशवादी परंपरा पार्टी को एकजुट रख सकती है, लेकिन ऐसा तभी संभव है जब वे अपने समर्थकों को वोट दिलवाने की गारंटी दे सकें। आंध्र प्रदेश में जगन मोहन और बंगाल में ममता की ताकत यही है। पैसे और सत्ता का लोभ भी पार्टी में शामिल होने वालों की संख्या बढ़ा सकता है, जैसा कि आज भाजपा ने दिखाया है।
कांग्रेस इन सभी परीक्षाओं में विफल हो गई। इसकी विचारधारा अस्पष्ट है। यह खुद को जेएनयू-वामपंथी विचारधारा की तर्ज पर धर्मनिरपेक्ष होने की बात करती है, लेकिन इसके साथ ही यह अपने ‘शिवभक्त’ नेता की ‘जनेऊधारी’ (पवित्र धागा पहनने वाले) दत्तात्रेय ब्राह्मण पहचान को भी प्रदर्शित करने से परहेज नहीं करती है। वहीं दूसरी ओर यह अयोध्या में मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के लिए निमंत्रण ठुकरा देती है।
कांग्रेस का आर्थिक मुद्दों पर वामपंथी रुख और अदाणी, अंबानी और ‘भारत के मुट्ठी भर अमीरों’ के खिलाफ तीखी बयानबाजी खोखली लगती है क्योंकि उसी जमात के साथ इसके अपने पुराने रिश्ते रहे हैं। पार्टी के सदस्यों को भी यह पता नहीं है कि वह किस चीज के लिए संघर्ष करें और उन्हें पैसे या सत्ता का कोई रास्ता नहीं दिखता, उन्हें एक राजनीतिक घराने के नियंत्रण में रहना पड़ता है जो भले ही पार्टी के अंदर कितनी भी ताकतवर हो, उन्हें वोट दिलाने में सक्षम नहीं है, ऐसे में उनके विकल्प तलाशने की संभावना ही दिखती है।
यही बात पिछले हफ्ते शिमला में कांग्रेस के साथ और उसके सहयोगी दल समाजवादी पार्टी के साथ लखनऊ में हुई।
दूसरी ओर, भाजपा एक मजबूत पैकेज की तरह है और यह पार्टी से जुड़ने वालों को वैचारिक फेविकोल, दल-बदल कर आने वाले लोगों के लिए शक्ति और सुरक्षा के साथ ‘मोदी की तरफ से वोटों की गारंटी’ भी देती है। आम चुनाव की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय राजनीति की तस्वीर कुछ ऐसी ही है।