मुस्लिम वोट भाजपा (BJP) की सबसे बड़ी चिंता हैं। हालिया आम चुनाव में कमियों की तलाश शुरू भी हो चुकी है। बिना उत्तर प्रदेश में अपनी हालत सुधारे भाजपा की मुश्किलें और उसका पराभव लगातार बढ़ता जाने की आशंका है।
इस आम चुनाव में सबसे कम चर्चित सुर्खी मुस्लिम मतों की ताकत की वापसी है। ऐसा भी नहीं है कि मुस्लिमों की राजनीतिक शक्ति अथवा नए मुस्लिम नेतृत्व का उभार हुआ है। यह केवल मुस्लिम मतों की ताकत की नए सिरे से तलाश है।
महत्त्वपूर्ण बात है कि चुनाव नतीजे उस समय आए जब कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री ने एक टेलीविजन साक्षात्कार में कहा था कि मुस्लिमों को अभी भी लगता है कि वे यह निर्धारित कर सकते हैं कि भारत पर किसका शासन होगा।
टाइम्स नाऊ के साथ बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘मैं मुस्लिम समाज से पहली बार यह कह रहा हूं, उसके पढ़े लिखे लोगों से कह रहा हूं कि आत्ममंथन कीजिए आप पीछे क्यों छूट रहे हैं, इसका कारण क्या है? आपको कांग्रेस के दौर में लाभ क्यों नहीं मिले? इस पर आत्ममंथन कीजिए। आपने यह जो भावना पाली है कि आप तय करेंगे कि कौन सत्ता में रहेगा और किसे हटा दिया जाएगा, वह आपके बच्चों का भविष्य खराब कर रही है। पूरी दुनिया में मुसलमानों में बदलाव आ रहा है।’
ऐसा लगता नहीं है कि मुस्लिमों ने उनकी बात सुनी। उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल को ही ले लीजिए, दोनों राज्यों में ‘इंडिया’ गठबंधन के वोटों का प्रतिशत इस बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) से अधिक रहा। बिना मुस्लिम मतों के यह संभव नहीं था।
एक्जिट पोल तथा अन्य शोधों से हासिल आंकड़े हमें यही बताते रहे हैं कि मुस्लिमों ने हमेशा रणनीतिक ढंग से भारतीय जनता पार्टी (BJP) को हराने के लिए वोट दिया। हमें यह सवाल पूछना होगा कि इस बार वे इस कदर कामयाब कैसे रहे, खासकर उत्तर प्रदेश में। इतना ही नहीं बिहार और असम में उन्हें कामयाबी क्यों नहीं मिली जबकि इन दोनों राज्यों में भी अच्छी खासी मुस्लिम आबादी है और ‘इंडिया’ गठबंधन भी मजबूत है।
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इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि 2014, 2019 और 2024 के तीन लोकसभा चुनावों तथा 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की 80 लोक सभा सीट और 403 विधानसभा सीट पर एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा। इसके बावजूद उसे बहुमत हासिल होता रहा। इस बार यह नाटकीय बदलाव कैसे?
यह भाजपा की सबसे बड़ी चिंता है। पार्टी की इस अहम कमजोरी को लेकर जांच पड़ताल शुरू हो चुकी है और योगी आदित्यनाथ के पक्ष-विपक्ष में भी चर्चाएं चालू हैं। अगर उत्तर प्रदेश में सुधार नहीं हुआ तो भाजपा की इस गिरावट में निरंतरता देखने को मिल सकती है।
पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों ने एक्जिट पोल करने वालों की प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया और भाजपा के विरोधियों और समर्थकों दोनों को चौंकाया। उत्तर प्रदेश के करीब 20 फीसदी (2011 के बाद जनगणना न होने के कारण सभी आंकड़े लगभग में) के उलट पश्चिम बंगाल में करीब 33 फीसदी मुस्लिम हैं।
इसके बावजूद 2019 में भाजपा को वहां 42 में से 18 लोक सभा सीट पर जीत मिली थी। इस बार उसे और अधिक सीट पर जीत की उम्मीद थी लेकिन पार्टी पिछले चुनाव की तुलना में आधी सीट से कम पर निपट गई आखिर क्यों? भाजपा जिन राज्यों में सीट जीत सकती है वहां वह एक सामान्य फॉर्मूले पर काम करती है और वह है 50 फीसदी से अधिक हिंदू मत हासिल करना।
उत्तर प्रदेश में यह कारगर रहा है और इसके कारण करीब 20 फीसदी मुस्लिम मत बेमानी हो गए। पश्चिम बंगाल और असम में मुस्लिम आबादी अधिक होने की वजह से पार्टी को कम से कम 60 फीसदी हिंदू मतों की जरूरत पड़ती है।
उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजे दशकों पुराने इस अवधारणा को खारिज करते हैं कि मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की राजनीति मुस्लिम मतों को राष्ट्रीय स्तर पर अप्रासंगिक बना सकती है।
हमने अब तक मुस्लिम मतों की शक्ति को लेकर जो भी सवाल उठाए हैं उनका जवाब बेहद सामान्य है: हिंदू वोट। यह स्थापित बात है कि मोहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान की स्थापना के साथ भारत से जाने के बाद भारतीय मुस्लिमों ने कभी अपने समुदाय के किसी व्यक्ति को अपना नेता नहीं माना। यहां तक कि मौलाना अबुल कलाम आजाद को भी नहीं। उन्होंने भरोसे के लिए हमेशा हिंदू नेताओं की ओर देखा।
सन 1989 तक आमतौर पर वे कांग्रेस के साथ थे लेकिन बाबरी मस्जिद के ताले खुलने के साथ उनका भरोसा दरक गया। तब यह वोट बैंक बचाव का आश्वासन देने वाली अन्य शक्तियों के पास चला गया। इनमें अधिकांश हिंदी प्रदेशों के लोहियावादी समाजवादी नेता थे, मसलन मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद।
पश्चिम बंगाल में वे वाम दलों के साथ हो गए। महाराष्ट्र और केरल में तथा दक्षिण में अन्य विकल्पों के अभाव में मुस्लिम कांग्रेस के साथ बने रहे। दूरदराज इलाकों में कुछ मुस्लिम नेतृत्व चुनौती की तरह उभरे। मुस्लिमों ने जिन नेताओं को चुना वे अपने दम पर सत्ता दिला पाने में सक्षम नहीं थे। इन नेताओं ने पर्याप्त संख्या बल वाले हिंदुओं के साथ गठबंधन किया।
मुलायम और लालू के साथ यादव तथा पिछड़ा वर्ग की कुछ जातियां थीं। वाम के साथ बड़ी संख्या में बंगाली हिंदुओं का निम्न वर्ग था और कांग्रेस के साथ विंध्य के दक्षिण का एकजुट वोट बैंक था।
हिंदी प्रदेशों में यह तब तक कारगर रहा जब तक कि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, भाजपा और कांग्रेस के बीच बंट रहा था। तब 28-30 फीसदी मतों के साथ भी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सत्ता पाई जा सकती थी। 2002 में मुलायम, 2007 में मायावती, 2012 में अखिलेश यादव और अनेक बार लालू प्रसाद यह कारनामा करने में कामयाब रहे।
तरीका यही था कि एक या दो जाति आधारित हिंदू जातियों वोट बैंक तथा मुस्लिमों को अपने साथ करके सत्ता पाई जा सकती थी। मोदी के उभार से यह फॉर्मूला नाकाम हो गया। ज्यादातर हिंदू उनके साथ चले गए और यादव तथा मायावती के पास ही उनके वोट बैंक रह गए।
इस चुनाव में क्या बदला? पहली बात, मुस्लिमों के उन्हीं हिंदू नेताओं ने बीते पांच साल में बहस को बदल दिया और मुस्लिम मुद्दों पर कभी आक्रामक ढंग से बात नहीं की। अगर भाजपा ने 2014 में सात और 2019 में तीन के बाद इस लोक सभा चुनाव में केवल एक मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया तो इसे समझा जा सकता है।
परंतु समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने भी उत्तर प्रदेश की 80 लोक सभा सीट में से क्रमश: केवल चार और दो पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 42 में से छह सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे। उनकी कोशिश थी कि मुस्लिमों पर अपनी निर्भरता को छिपाया जाए या कम किया जाए। मुस्लिम धर्मगुरु और कट्टरपंथी भी खामोश रहे। भाजपा को ध्रुवीकरण करने का अवसर नहीं दिया गया।
जरा सोचिए कि आखिर भाजपा ने संदेशखाली में महिलाओं पर अत्याचार का मुद्दा इस तरह क्यों उठाया? आंकड़े बताते हैं कि बनर्जी भाजपा को 60 फीसदी हिंदू मत पाने से इसलिए रोक सकीं क्योंकि महिलाओं में उनकी जबरदस्त लोकप्रियता है। भाजपा को लग रहा था कि संदेशखाली मामला ममता बनर्जी को झटका देगा लेकिन ऐसा नहीं हो सका। नतीजा हमारे सामने है।
असम में बदरुद्दीन अजमल को एक भी सीट नहीं मिली। परिसीमन इस प्रकार किया गया कि अधिकांश मुस्लिम मत एक लोक सभा क्षेत्र ढुबरी में केंद्रित हो गए। अब उनका प्रभाव सभी तीन सीटों पर नहीं रहा। सीधे मुकाबले में कांग्रेस के रकीबुल हुसैन ने न केवल अजमल को हराया बल्कि वह देश भर में सबसे अधिक अंतर से चुनाव जीते।
मेरी नजर में यह मुस्लिमों के मस्तिष्क के पुराने ढर्रे पर लौटने का उदाहरण है। वे उन दलों की ओर लौट रहे हैं जो पर्याप्त हिंदू मतों के साथ सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष गठबंधन कर सकते हैं। असम और बिहार से इसे आसानी से समझा जा सकता है।
असम में जाति आधारित विभाजन के अभाव के कारण कांग्रेस अधिक हिंदू मत नहीं हासिल कर सकी। बिहार में भाजपा के साझेदारों चिराग पासवान और जीतन राम मांझी ने दलित मतों को एकजुट रखा जबकि उत्तर प्रदेश में मायावती ऐसा नहीं कर सकीं।
इन्हीं वजहों से हमें मुस्लिम मत पर्याप्त हिंदुओं के साथ साझेदारी में ताकतवर होते दिख रहे हैं। यह भविष्य की राजनीति का स्पष्ट संकेत है।