भारत जैसी उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में मंदी में राजकोषीय मजबूती सामान्य वृद्धि के समय की राजकोषीय मजबूती से बहुत अलग होती है। मेरी परिभाषा (सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी वृद्धि में लगातार तीन साल गिरावट) के हिसाब से भारत वित्त वर्ष 2016 से ही मंदी की स्थिति में है। इसके आम तौर पर होने वाले परिणाम सामने आए हैं, खास तौर पर राजस्व कर में उछाल घटने के रूप में।
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के कष्टप्रद और लापरवाह क्रियान्वयन से स्थितियां और पेचीदा हो गईं। यह जटिल काम था, जो वित्त मंत्रालय के बूते से बाहर था। इसी वजह से विनिवेश के लक्ष्य अव्यावहारिक थे और इन्हें लगातार कभी नहीं हासिल किया जा सका। राजकोषीय नियंत्रण सार्वजनिक, विशेष रूप से पूंजीगत खर्च में कटौती करके बरकरार रखा गया।
कोविड और उसके नतीजों से हालात और विकट हो गए। राजकोषीय घाटा वित्त वर्ष 2021 में बढ़कर 9.2 फीसदी और वित्त वर्ष 2022 में 6.9 फीसदी रहा, जबकि यह वित्त वर्ष 2019 में 3.4 फीसदी ही रहा था। इस बढ़ोतरी का एक मामूली हिस्सा पूंजीगत व्यय के लिए था। यह वित्त वर्ष 2019 से वित्त वर्ष 2022 के दौरान जीडीपी का महज 1 फीसदी बढ़ा, जबकि राजकोषीय घाटे में 3 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। आलोच्य अवधि में राजस्व घाटा जीडीपी के 2.4 फीसदी से बढ़कर 4.7 फीसदी हो गया। भारत लगातार उपभोग के लिए उधार ले रहा है और यह समस्या केवल बढ़ रही है।
वित्त वर्ष 2022 में कर में उछाल 1.4 फीसदी रही, जो वित्त वर्ष 2019 में 0.8 फीसदी थी। यह वित्त वर्ष 2023 में गिरकर 0.67 फीसदी पर आने का अनुमान है, जो चिंता की बात है। इससे संकेत मिलता है कि कर में उछाल अस्थायी थी और मुख्य रूप से आधार प्रभाव की वजह से थी।
इस तरह हमारे लिए राजकोषीय संकट खत्म नहीं हुआ है बल्कि दो महत्त्वपूर्ण मायनों में विकराल हुआ है। पहला, सरकार अपनी राजस्व की दिक्कतें दूर नहीं कर पाई है। यह केवल अपनी राजस्व और विनिवेश क्षमताओं को लेकर व्यावहारिक बनी है। लेकिन उम्मीदों को कम करने के प्रशंसा योग्य यथार्थवाद से राजस्व में कम उछाल की समस्या का समाधान नहीं होता है, जो दबे पांव आ रहे भारत के राजकोषीय संकट की महत्त्वपूर्ण वजह है। इसका मतलब है कि जब तक सरकार खर्च में कमी (ऐसा वित्त वर्ष 2016 से वित्त वर्ष 2019 के बीच हुआ) की कोशिश नहीं करती है, तब तक मध्यम अवधि में उधार लेने की जरूरत बढ़ती रहेगी। लेकिन व्यय में ऐसी कटौतियों से या तो सरकार की पूंजीगत व्यय बढ़ाने की आकांक्षाओं में देरी होगी या उसे प्रतिबद्ध व्ययों में कमी करने को मजबूर होना पड़ेगा। महामारी के दौरान इन प्रतिबद्ध व्ययों में इजाफा हुआ है। हालांकि व्यय में बढ़ोतरी में ज्यादातर हिस्सा ब्याज भुगतान का है और इस पर राजकोषीय सुधार का कोई असर नहीं पड़ेगा, खास तौर पर ऊंची महंगाई और बढ़ती ब्याज दरों के दौर में।
खुशकिस्मती से भारत विदेशी मुद्रा के सॉवरिन कर्ज से पैदा हो सकने वाली समस्याओं से बचा हुआ है। जब मैं एफआरबीएम समिति का सदस्य था, उस समय इस तरीके की सिफारिश ब्रेटन वुड्स इंस्टीट्यूशन ने की थी। इसे वित्त वर्ष 2020 के बजट में अपनाया भी गया था, लेकिन बहुत से चिंतित विशेषज्ञों के कड़े प्रयासों के कारण इसे लागू नहीं किया गया।
दूसरा खेद है कि केंद्र ने राजकोषीय संकट राज्यों को दे दिया है। सकल कर राजस्व में राज्यों का हिस्सा वित्त वर्ष 2019 में 36.69 फीसदी था, जो वित्त वर्ष 2022 में घटकर 29.8 फीसदी पर आ गया। इसके अलावा कर राजस्व में औसतन कम उछाल और राज्यों को जीएसटी का हिस्सा जारी करने में घटत-बढ़त (क्षतिपूर्ति उपकर और एकीकृत जीएसटी दोनों) के कारण राजकोषीय जोखिम केंद्र से राज्यों के पाले में चला गया है। इस मुश्किल दौर में एक और चिंताजनक रुझान है, जिसका राजकोषीय सुदृढ़ता पर असर पड़ेगा। इस समय न केवल वृद्धि धीमी है बल्कि हमारे यहां मुद्रास्फीति भी बढ़ रही है। डॉलर में मजबूती के समय बढ़ते चालू खाते के घाटे का मतलब है कि कम से कम इस समय मार्शल लर्नर की स्थितियां लागू नहीं होंगी।
इससे एक अन्य कारक प्रभावी हो जाता है। रुपये में मूल्य वाले सरकारी बॉन्ड धारक विदेशियों का अनुपात धीरे-धीरे बढ़ रहा है। इस स्थिति में बढ़ते सरकारी कर्ज या जीडीपी अनुपात (भले ही ज्यादातर रुपये मूल्य में हों) कमजोरी का संकेत दे सकते हैं और उस विदेशी पूंजी की निकासी को प्रोत्साहित कर सकते हैं, जिसने भारत के चालू खाते के घाटे के लिए धन मुहैया कराया है। इसके अलावा रुपये मूल्य वाले सॉवरिन कर्ज बाजार से अंतरराष्ट्रीय निवेशकों के निकलने का सार्वजनिक वित्त के प्रबंधन पर सीधा असर पड़ेगा। यह स्थिति ठीक 1991 जैसी नहीं लेकिन उससे काफी समान होगी। अभी कोई संकट नहीं है क्योंकि विदेशी मुद्रा का भंडार सहज है, रुपया आधारित सॉवरिन कर्ज बाजार से निकलना महंगा पड़ेगा मगर इन हालात पर कड़ी नजर रखने की जरूरत है।
हालात ऐसे नहीं हैं, जिन्हें ठीक न किया जा सकता हो। भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए मध्यम अवधि की योजना की तत्काल जरूरत है। यह उस मुश्किल दौर को स्वीकार करती है जिससे हम गुजर रहे हैं। ऐसी नीतिगत पहल करें, जो मध्यम अवधि में इन चुनौतियों का समाधान करे। साथ ही यह सुनिश्चित करें कि लघु अवधि के लिए बनाई जाने वाली नीतियां इस मध्यम अवधि की योजना के अनुरूप हों। महज 5 लाख करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य तय करने या ऐसे अन्य कदमों से वांछित नतीजे नहीं मिल पाएंगे। हमें पता होना चाहिए कि 5 लाख करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था कैसी होगी? क्या यह निर्यात आधारित या आत्मनिर्भरता आधारित या दोनों पर आधारित होगी और इससे कैसे ढांचागत दशाओं में बदलाव आएगा? क्या इससे कर में उछाल आएगी और प्रतिबद्ध सरकारी खर्च पर अंकुश लगेगा? आधुनिक राजकोषीय नीति निर्माण में सालाना राजकोषीय बजट को ऐसी वृहद राजकोषीय योजना एवं उसकी उपयोगिता में समाहित करना कोविड के दौरान उन देशों में खूब देखने को मिला है, जिन्होंने ऐसा किया है।
मध्यम अवधि की इन समष्टि और राजकोषीय पहलों के पुनर्विकास के अलावा इस काम को राजकोषीय परिषद या राजकोषीय नियमों जैसी एक मददगार संस्थागत राजकोषीय ढांचे की दरकार होगी। इसका परंपरागत ढर्रे की समर्थक आर्थिक अफसरशाही द्वारा विरोध किया जाएगा, जो लघु अवधि के नीति निर्माण को लेकर ही सहज हैं। इस पर पार पाने के लिए अहम राजनीतिक पूंजी के निवेश की जरूरत होगी, जो अभी तक मुहैया नहीं कराई गई है।
(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में निजी विचार हैं)