देश के फिल्म कारोबार से जुड़ी कई खुश करने वाली कहानियां देखने को मिलती हैं, आपको बस उन्हें ढूंढ़ने की जरूरत है। आमिर खान प्रोडक्शंस ने हाल में रिलीज हुई अपनी फिल्म ‘सितारे जमीन पर’ के लिए एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने सिनेमाघर में फिल्म रिलीज कराने और उसे दिखाए जाने के बीच कहीं और यानी किसी ओटीटी के लिए कोई करार नहीं किया। उनका मानना था कि किसी फिल्म के सिनेमाघरों में रिलीज होने और ओटीटी मंच पर आने के बीच का समय जितना कम होगा, दर्शक वर्ग छोटी फिल्मों को थिएटर में देखने जाने से उतना ही बचेंगे। सच तो यह है कि ‘सितारे जमीन पर’ जैसी फिल्मों की कहानी ही उसकी मुख्य पहचान है, जबकि ‘पुष्पा 2’ या ‘पठान’जैसी फिल्में बड़े फिल्मी सितारों पर निर्भर होती हैं।
आमिर खान अपने स्टूडियो के मालिक भी हैं ऐसे में वह फिल्मों की दो से छह हफ्ते की छोटी रिलीज अवधि को लेकर हमेशा मुखर रहे हैं। इस बार भी उन्होंने अपने सिद्धांतों पर अमल करते हुए वहीं पैसा लगाया जिसकी बात वह अब तक करते रहे हैं। ‘सितारे जमीन पर’ की सफलता ने उन फिल्म स्टूडियो को हौसला दिया है जो अक्सर फिल्म रिलीज से पहले कमाई के लिए स्ट्रीमिंग मंचों के साथ बेहतर करार नहीं कर पाते हैं।
फिल्म कारोबार से जुड़ी एक और सफल कहानी के लिए पश्चिम बंगाल का रुख करते हैं। वर्ष 2000 में इस राज्य में 400 सिनेमाघर थे, वहीं 2015 तक यह संख्या घटकर 140 रह गई थी, जिसके कारण इस क्षेत्र के सबसे बड़े स्टूडियो एसवीएफ एंटरटेनमेंट की कमाई कम हो गई थी। ‘चोखेर बाली’ और ‘रेनकोट’ जैसी फिल्मों की निर्माता कंपनी, एसवीएफ के पास अपना ओटीटी प्लेटफॉर्म होइचोई भी है और वह हजारों घंटे की स्ट्रीमिंग और टीवी प्रोग्रामिंग भी तैयार करती है। लेकिन सिनेमाघरों का बंद होना एक बड़ा संकट था क्योंकि वास्तव में सिनेमाघरों से होने वाली कमाई ही सिनेमा उद्योग का इंजन है। वर्ष 2024 में भारतीय फिल्मों ने लगभग 20,000 करोड़ रुपये की कमाई की जिनमें से दो-तिहाई कमाई थिएटर से होती है और यह स्ट्रीमिंग या टेलीविजन कंपनियों द्वारा भुगतान की जाने वाली राशि भी निर्धारित करता है।
आमिर खान की तरह, एसवीएफ के सह-संस्थापक महेंद्र सोनी ने इस समस्या का सीधा समाधान करने का फैसला किया। उन्होंने छोटे शहरों और कस्बों में सिनेमा स्क्रीन का प्रबंधन करना और स्क्रीन की खरीद करनी शुरू कर दी। फिलहाल उनके पास 53 स्क्रीन हैं और मार्च 2026 तक यह संख्या 75 हो जाएगी। पश्चिम बंगाल में जैसे-जैसे स्क्रीन की संख्या बढ़ी, शुद्ध बॉक्स ऑफिस कमाई में एसवीएफ की हिस्सेदारी दोगुनी हो गई।
दो दशकों से भारत में सिनेमा स्क्रीन की संख्या कम हुई है और यह 1990 के दशक के अंत में 12,000 से घटकर अब लगभग 8,000 रह गई है। यह सब फिल्म स्टूडियो के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश में प्रति 10 लाख लोगों पर महज छह सिनेमा स्क्रीन हैं जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा 125 और चीन में 30 है। अगर आप सवाल करते हैं कि ज्यादा स्क्रीन क्यों नहीं बन रहा है तब थिएटर चेन, मौजूदा सिनेमाघरों में 20-30 प्रतिशत दर्शकों की ओर इशारा करते हैं और वे सही भी हैं। लेकिन एसवीएफ दिखाता है कि कहानी का एक और पहलू भी है।
सिनेमा स्क्रीन में बहुत निवेश हो रहा है और यह उन क्षेत्रों पर केंद्रित है जहां टिकट की कीमतें ज्यादा हैं और तुरंत रिटर्न संभव है। जब पश्चिम बंगाल में सिनेमा स्क्रीन की तादाद घट रही थीं तब कोलकाता में यह दर स्थिर रही क्योंकि यह एक बहुभाषी महानगर है जहां टिकट की औसत कीमतें अधिक हैं। यहां हिंदी, हॉलीवुड और बांग्ला सिनेमा सभी के लिए जगह है। कोलकाता के बाहर, केवल बांग्ला फिल्में चलती हैं, लेकिन सिनेमा स्क्रीन के बिना, यह दर्शक वर्ग गायब हो गया। जब एसवीएफ ने सिनेमाघरों को फिर से शुरू करने की कवायद की तब पूरा शहर, फिर से इस खेल में वापस जुड़ गया।
यही बात वास्तव में, इस लेख का मुख्य बिंदु है। दीर्घकालिक समस्याओं से बाहर निकलने के कई तरीके हैं और इसके लिए केवल साहस की आवश्यकता है। बहुत लंबे समय से वास्तविक मुद्दों यानी स्क्रीन की कमी, पूंजी की कमी और उचित मार्केटिंग की कमी को बेतुकी दलीलों के पीछे छिपाया गया है। मल्टीप्लेक्स बनाम सिंगल स्क्रीन फिल्में, ओटीटी बनाम थिएटर, हिंदी बनाम दक्षिण से जुड़ी छोटी बहसें एक ऐसे बाजार से संबंधित है जिसकी हिस्सेदारी नहीं बढ़ पा रही है।
भारत में सिनेमाघरों की कमाई, पांच साल से अधिक समय से लगभग 11,000 करोड़ रुपये से 12,000 करोड़ रुपये के बीच अटकी हुई है। हालांकि 2023 जैसे एक बेहतर वर्ष में, 94.3 करोड़ टिकट बेचे गए। ‘थिएटर जाने वाली आबादी’ 12.2 करोड़ या लगभग 11 फीसदी है जबकि यूरोप और अमेरिका में यह आबादी 50 से 80 फीसदी है। सबसे बड़ी हिट फिल्में देखने के लिए भी लगभग 3.5 करोड़ लोग या सिर्फ 2 फीसदी आबादी ही सिनेमाघरों में जाती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि बड़ी संख्या में भारतीयों को स्थानीय सिनेमा की सुविधा नहीं मिल पाती है।
गौर करने वाली बात यह है कि सिनेमा की कुल खपत बहुत ज्यादा है। सिनेमा के खाते में टीवी देखने वालों का एक-चौथाई हिस्सा, ओटीटी का एक-तिहाई और म्यूजिक सुनने वालों का तीन-चौथाई हिस्सा आता है। लेकिन यह हमारी टिकट बिक्री में नहीं दिखता है।
तीन दशकों से एक दुष्चक्र सा बन गया है। सिनेमा स्क्रीन की कमी का मतलब कम पूंजी जुटना है और इसलिए कम फिल्में बन रही हैं। थोड़े समय के लिए, सैटेलाइट अधिकार और अब स्ट्रीमिंग के जरिये इस उद्योग को तुरंत पैसा मिला लेकिन इसके कारण और भी सिनेमाघर कम हो गए। महामारी के कारण इनकी तादाद काफी कम हो गई। इसका परिणाम यह है कि मुख्य राजस्व स्रोत कम हो रहा है भले ही लोग मनोरंजन के लिए बाहर निकल रहे हैं। जब दो अरब या उससे ज्यादा टिकट बिकेंगे और अधिक लोग फिल्में देखने के लिए अक्सर जाएंगे तब देश के फिल्म कारोबार का बड़ा आकार और क्षमता दिखेगी।
सिनेमा उद्योग को पश्चिम बंगाल में एसवीएफ या दक्षिण भारत में पीवीआर-आईनॉक्स जैसे मल्टीप्लेक्स के अलावा भी काफी चीजों की जरूरत है। इसके लिए सरकार के हस्तक्षेप की भी जरूरत है यानी थियेटर बनाने के लिए कर छूट जैसे कदम उठाए जा सकते हैं क्योंकि ये भी बुनियादी ढांचा का हिस्सा हैं। वर्ष 2001 में मल्टीप्लेक्स का उभार भी कुछ ऐसे ही हुआ था। इसके अलावा गैर-रणनीतिक निवेशकों की भी जरूरत है जैसे कि अदार पूनावाला ने धर्मा प्रोडक्शंस में निवेश किया है।
दुखद बात यह है कि मनोरंजन के अन्य साधनों से मिल रही कड़ी प्रतिस्पर्द्धा के बावजूद, फिल्म स्टूडियो मार्केटिंग पर पूरा ध्यान नहीं दे रहे हैं। उनकी मार्केटिंग का तरीका बेहद घिसा-पिटा और पूरी तरह से ऑनलाइन हो गया है।
हाल ही में पुणे के आईनॉक्स इनसिग्निया में जहां ‘मिशन-इम्पॉसिबल-द फाइनल रेकनिंग’ फिल्म लगी थी वहां सेल्फी के लिए एक भी पोस्टर या स्टैंडी नहीं था। बाद में वहां मेरे दोस्तों ने एक बांग्ला फिल्म देखी और सिनेपॉलिस में ‘सितारे जमीन पर’ देखी, वहां भी ऐसा ही हाल था। अगर फिल्मों की मार्केटिंग सिर्फ ऑनलाइन और उन्हीं दर्शकों तक होगी जो संभवतः उन्हें देख सकते हैं तब आखिर बाजार का विस्तार कैसे होगा?