बाजार में निवेशकों के मन में एक बड़ा सवाल यह है कि क्या अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के ब्याज दरें बढ़ाने के बाद बाजार में तेजी आएगी? यह सवाल बिल्कुल वाजिब है। यह अलग बात है कि हमारा पिछला अनुभव कहता है कि अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ती हैं तो शेयरों में गिरावट देखी जाती है। अमेरिका में पिछले वर्ष के अंत से महंगाई बढऩे के बाद भारतीय शेयर बाजार दबाव में रहे हैं। लंबे समय तक ब्याज दरें शून्य के स्तर पर रहने के बाद अब निवेशकों को यह चिंता सताने लगी थी कि फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढ़ाना शुरू कर सकता है। जनवरी मध्य में यह आशंका सही साबित हुई। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 2021 में 7 प्रतिशत उछलने के बाद फेडरल रिजर्व ने जता दिया कि ब्याज दरें नियंत्रित करने के लिए वह आक्रामक रवैया अपनाएगा। जून 1982 के बाद पहली बार अमेरिका में खुदरा महंगाई में इतनी तेजी दर्ज हुई थी। 10 फरवरी को महंगाई दर 7.5 प्रतिशत पर पहुंच गई और इसकी प्रतिक्रिया में वैश्विक बाजार में भारी बिकवाली देखी गई। निवेशकों के मन में यह डर समा गया कि एक आपात उपाय के रूप में अमेरिकी केंद्रीय बैंक ब्याज दरें 50 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है। फेडरल रिजर्व सरकारी बॉन्ड और गिरवी आधारित ऋणों में भी कमी कर रहा है। इस कदमों का एक तत्काल असर यह होगा कि जोखिम वाले शेयरों से निवेशक अपनी रकम निकाल लेंगे। क्या वाकई ऐसा होगा? किसी भी संभावित नतीजे को समझने का एक तरीका यह हो सकता है कि इस बात की पड़ताल की जाए कि अतीत में फेडरल रिजर्व के ब्याज दरें बढ़ाने के बाद क्या हुआ था।
इतिहास बताता है कि 1950 से ब्याज दरें बढऩे के 12 अवसरों पर एसऐंडपी 500 सूचकांक ने औसतन 9 प्रतिशत सालाना प्रतिफल दिया है। इनमें 11 मौकों पर बाजार में तेजी दिखी है। अर्थव्यवस्था और बाजारों में संरचनात्मक बदलावों के बाद पुराने आंकड़े कभी-कभी कम महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। इस पक्ष को ध्यान में रखते हुए हम हालिया आंकड़ों पर विचार करते हैं। 2004 के मध्य से 2006 के मध्य तक फेडरल रिजर्व ने 17 ब्याज दरें बढ़ाई हैं। ब्याज दरें बढऩे के बावजूद इस अवधि में एसऐंडपी 46 प्रतिशत तक चढ़ा है। दिसंबर 2015 से दिसंबर 2020 के बीच ब्याज दरें नौ बार बढ़ाई गई हैं। इस पर एसऐंडपी की कैसी प्रतिक्रिया रही? सूचकांक में तेजी बदस्तूर जारी रही और यह दिसंबर 2015 में 1,900 के स्तर से बढ़ कर दिसंबर 2017 में 2,800 पर पहुंच गया। सूचकांक तब फिसला था जब तीन वर्षों तक ब्याज दरें बढऩे का सिलसिला अंतिम पड़ाव पर पहुंच गया था। अगस्त 2018 में फेडरल रिजर्व के ब्याज दरें घटाने के बाद बाजार फिर ऊपर भागा और मार्च 2020 तक यह सिलसिला जारी रहा। इसके बाद कोविड महामारी ने आर्थिक गतिविधियों को अपनी चपेट में ले लिया। मोटी बात यह है कि यदि फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढ़ाता है तो जरूरी नहीं कि बाजार में गिरावट दिखे।
हाल के अनुभवों से भी यही पता चलता है कि ब्याज दरों में तेजी और अमेरिकी सूचकांकों में सकारात्मक संबंध है। इसके बावजूद कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता है कि ब्याज दरें बढऩे के बाद शेयर नीचे गिरेंगे? यह मेरी समझ से बाहर है। मेरा इतना अंदाजा है कि लोग यह मान लेते हैं कि अगर रकम महंगी हो जाएगी तो बाजार स्वत: नीचे आएगा। मगर ऐसे दूसरे कारक हैं जो इस बात पर रोशनी डालते हैं कि ब्याज दरें बढऩे के बाद शेयर क्यों चढ़ते हैं। सामान्यत: आर्थिक हालात मजबूत होने पर फेडरल रिजर्व दरें बढ़ाने लगता है। अर्थव्यवस्था जब तेजी से आगे बढ़ती है तो कंपनियों का मुनाफा भी बढ़ता है। कंपनियों का मुनाफा बढ़ता है तो इनके शेयरों में तेजी आती है। वास्तव में शेयर हमारी परंपरागत सोच में बंधे नहीं रहते हैं। अर्थव्यवस्था मजबूत होने के साथ ही फेडरल रिजर्व धीरे-धीरे ब्याज दरें बढ़ाना शुरू कर देता है। आर्थिक वृद्धि दर लगातार मजबूत होती रहती है तो कंपनियों का मुनाफा और बढ़ता है और उनके शेयर और तेजी से चढ़ते हैं। इसे देखते फेडरल रिजर्व पुन: ब्याज दरें बढ़ाता है और सिलसिला जारी रहता है। यह सिलसिला बताता है कि क्यों ब्याज दरें बढऩे के दौरान शेयर कीमतें चढ़ती हैं। आर्थिक वृद्धि दर और कंपनियों के मुनाफे के बीच मजबूत संबंध है।
दिलचस्प है कि इसी तर्क पर ब्याज दरों में बढ़ोतरी थमने का सिलसिला बंद होने के बाद बाजार नीचे फिसल सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि फेडरल रिजर्व अर्थव्यवस्था में तेजी से रकम का प्रवाह रोकने के लिए ब्याज दरें बढ़ाता है। अगर ब्याज दरें बढऩे से अर्थव्यवस्था थोड़ी प्रभावित होती है तो इसका असर दिखने में समय लगता है। आखिर ऊंची मांग पूरी करने के लिए पूरी ताकत से उत्पादन करने वाले उत्पादक इसलिए उत्पादन नहीं रोक देंगे कि फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरें बढ़ा दी हैं। जब आर्थिक वृद्धि दर कमजोर होती है तो बाजार नकारात्मक प्रतिक्रिया देता है। फेडरल रिजर्व अक्सर आर्थिक गतिविधियों को तेजी देने के लिए ब्याज दरें कम करता है जैसा कि उसने अगस्त 2018 में किया था। इसके बाद बाजार फिर ऊपर भागने लगा।
क्या दरों में बढ़ोतरी और इसकी प्रतिक्रिया में शेयरों की ऊंची कीमतों का कोई अपवाद भी है? वृहद आर्थिक घटनाक्रम के कई अनछुए पहलू भी होते हैं जिन्हें पिछले अनुभवों के आधार पर समझा जा सकता है। इसका अपवाद यह है कि कमजोर आर्थिक वृद्धि के बीच जब फेडरल रिजर्व लगातार दरें बढ़ाता रहता है या इनमें कटौती करने से इनकार करता है तो उस स्थिति में शेयर में गिरावट आएगी। महंगाई भी एक पक्ष है। अगर महंगाई ऊंचे स्तरों पर बनी रहती है तो फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढ़ाता रहेगा। फेडरल रिजर्व के पूर्व चेयरमैन पॉल वोल्कर ने मार्च 1980 में ब्याज दरें बढ़ाकर ऊंचे स्तर पर पहुंचा दिया था। उस समय महंगाई 14.8 प्रतिशत पर पहुंच गई थी। मगर उत्पादकता में सुधार और तकनीक की मदद से लागत में कमी के इस युग में महंगाई का लगातार ऊंचे स्तरों पर बने रहना मुमकिन नहीं है। यदि महंगाई कम होगी तो फेडरल रिजर्व दो बार दरें बढ़ाने के बाद रुक सकता है।
क्या यही वजह है कि पिछले गुरुवार को भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपना उदारवादी रवैया बरकरार रखा? ब्याज दरों को लेकर तत्काल कोई प्रतिक्रिया दिखाने की वजह नजर नहीं आ रही है। मौद्रिक नीति समीक्षा के बाद अपनी टिप्पणी के अंत में आरबीआई गवर्नर ने पाश्र्व गायिका लता मंगेशकर के एक महशूर गीत ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’ का जिक्र किया था। इस गीत के जरिये उन्होंने आशावाद पर जोर दिया था। अगर महंगाई नरम हुई और फेडरल रिजर्व के सामने दरें बढ़ाने की नौबत नहीं आई तो आरबीआई गवर्नर का आशावाद एक दूरदर्शी सोच साबित हो सकती है।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं)