सन 1996 में जब मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री का पद छोड़ा तब उनके मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि वह कांग्रेस की मूल्यविहीन राजनीति में गुम न हों और उन लोगों के बीच अपना समर्थन और आधार बनाए रखें जो उन्हें आर्थिक सुधारों के लिए सराहते हैं। इस पर सिंह ने अपनी स्वाभाविक शर्मीली मुस्कान के साथ कहा था, ‘लेकिन मैं राजनीति में हूं।’ उनके इस जवाब के बाद चुप्पी छा जाती थी क्योंकि लोग शायद उन्हें इस तरह देखते ही नहीं थे।
तथ्य यही है कि मनमोहन सिंह एक राजनेता थे, भले ही वह इसे स्वीकार करने से बचते थे। इतना ही नहीं वह एक कुशल वार्ताकार थे। कुछ ही लोगों को याद होगा कि 2002 में जम्मू कश्मीर विधान सभा चुनावों के बाद कांग्रेस और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी के बीच गठबंधन को मूर्त रूप देने के लिए मनमोहन सिंह को ही भेजा गया था।
उक्त संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में शांति और स्थिरता की अहमियत को समझते हुए तथा सरकार को सही मायनों में जनता का प्रतिनिधित्व वाला बनाना सुनिश्चित करते हुए सिंह ने असंभव को संभव कर दिखाया था। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व वाली कांग्रेस और मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व वाली पीडीपी बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनाएं। यह रिश्ता 2008 के विधानसभा चुनावों से छह महीने पहले टूट गया लेकिन इसके बावजूद वह एक ऐसी व्यवस्था कायम करवाने में कामयाब रहे जिससे जम्मू कश्मीर के लोगों का भरोसा जीता जा सके। यह बारी-बारी से मुख्यमंत्री चुने जाने का सबसे पहला और सफल प्रयोग था।
उनका यह गुण उस समय भी काम आया जब 2009 के लोक सभा चुनावों में जीत के बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती ने उन्हें बधाई देने के लिए फोन किया। सिंह ने उन्हें अपनी ‘छोटी बहन’ बताकर उनका दिल जीत लिया। किसी और के मुंह से यह बात खराब लग सकती थी लेकिन सिंह के मुंह से बात वैसी ही थी जैसे सामाजिक रूप से वंचित को खुले दिल से गले लगाना। इसी प्रकार 2008 की गर्मियों में सिंह ने समाजवादी पार्टी के नेताओं से बात की और उनकी समझदारी से अपनी सरकार बचाई। दोनों दलों में मधुर संबंध नहीं थे लेकिन वे मनमोहन सिंह के लिए एक साथ आए।
एक राजनेता के रूप में सिंह के सामने गठबंधन सरकार चलाने की लगभग असंभव जिम्मेदारी थी। ढेर सारे कांग्रेस नेता ऐसे भी थे जो पार्टी में खुद को सिंह से वरिष्ठ और बेहतर राजनेता मानते थे। तमाम अन्य लोगों की तरह सिंह भी जानते थे कि किसी भी विषय पर अंतिम निर्णय उनका नहीं बल्कि उनके निवास से दो किलोमीटर दूर रहने वाली सोनिया गांधी का होगा।
एक समय पर उन्होंने समझौते भी किए फिर चाहे वे कितने भी खराब क्यों न रहे हों। उन्होंने एक मंत्री को पद पर बनाए रखा जिस पर हत्या का आरोप था। मंत्रिमंडल के फेरबदल में उन्होंने पेट्रोलियम मंत्री के पद पर एक ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जो पेट्रोलियम कारोबार वाली एक कंपनी से रिश्तों के लिए जाना जाता था। उनके संचार मंत्री का भाई मीडिया कारोबार चलाता था जो एक हद तक संचार मंत्रालय द्वारा भी विनियमित होता था।
परंतु ऐसे भी अवसर आए जब उन्होंने कठोरता दिखाई। जब भ्रष्टाचार के लिए दोषी एक मंत्री को पद छोड़ना था और गठबंधन का दबाव था कि मंत्री को दोबारा पद सौंपा जाए तब उन्होंने कड़ाई बरती। इसके बावजूद कांग्रेस ने हमेशा सोनिया गांधी को ही बॉस का दर्जा दिया, न कि प्रधानमंत्री को। तमाम लोग प्रधानमंत्री कार्यालय को कोई काम करने के लिए कहते और साथ में जोड़ देते कि ‘मैडम से बात हो गई है।’
राज्य भी केंद्र को तवज्जो नहीं देते थे। तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने संसद में स्वीकार किया था कि पंजाब विधानसभा द्वारा हरियाणा के साथ जल साझेदारी के वादे को तोड़ने और मणिपुर सरकार द्वारा कुछ इलाकों में सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून समाप्त करने जैसे अवसरों पर राज्यों ने केंद्र की सलाह के प्रतिकूल काम किया था। उनके गृह मंत्री ने बार-बार दोहराया कि वह तब तक पद पर रहेंगे जब तक उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष का भरोसा हासिल है।
वह शायद भारत के संविधान को भूल गए जिसमें लिखा है कि मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी पुस्तक ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर: द मेकिंग ऐंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ में सिंह के हवाले से लिखा है, ‘देखिए, आपको एक बात समझनी होगी। सत्ता के दो केंद्र नहीं हो सकते। इससे भ्रम की स्थिति बनती है। मुझे यह स्वीकार करना होगा कि पार्टी अध्यक्ष ही सत्ता की केंद्र हैं। सरकार पार्टी के प्रति जवाबदेह है।’
परंतु इन बातों के बीच मनमोहन सिंह को कम करके आंकना समझदारी नहीं होगी। उस कनिष्ठ मंत्री का किस्सा याद कीजिए जिसे उसके वरिष्ठ सहयोगी की बीमारी के समय मंत्रालय संभालने को कहा गया। जब अखबारों ने यह छापा कि उक्त कनिष्ठ मंत्री अपनी ‘पदोन्नति’ से इतने प्रसन्न हैं कि वह जश्न मनाने के लिए पार्टी कर रहे हैं और यह भूल गए हैं कि वह केवल अस्पताल में कोमा में पड़े अपने वरिष्ठ साथी की जगह काम कर रहे हैं, मनमोहन सिंह ने चुपचाप राष्ट्रपति को सूचित किया कि उक्त मंत्रालय वह स्वयं देखेंगे।
वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का सफरनामा…
जुलाई 2008 में जब उनकी सरकार के विश्वास मत पर बहस चल रही थी तब उन्होंने तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष को सलाह दी थी कि वह अपना भविष्य बांचने वाले को बदल दें क्योंकि वह अक्सर उनकी सरकार गिरने की भविष्यवाणी करता रहता है। या फिर उनका यह पूछना कि वाजपेयी सरकार ने जब कंधार में आतंकवादियों को मंत्री की निगरानी में सुरक्षित भेजा तब वह दरअसल क्या करना चाह रही थी?
उसके बाद 23 मार्च, 2011 को जब लोक सभा में वोट के बदले नोट मामले पर चर्चा चल रही थी और मनमोहन सिंह विपक्ष के सवालों का जवाब दे रहे थे तब नेता प्रतिपक्ष ने उन पर व्यंग्य करते हुए कहा था, ‘तू इधर उधर की न बात कर, ये बता कि कारवां क्यों लुटा, तुझे राहजन से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।’
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इस पर मनमोहन सिंह ने जवाब दिया था, ‘माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक देख, मेरा इंतजार देख।’ इसके बाद स्वराज सहित सारा विपक्ष मुस्करा पड़ा। आप एक सफल प्रधानमंत्री को लेकर चाहे जो धारणा बनाएं, वह ऐसी हर धारणा को चुनौती देते थे। उन्हें उनकी वाक कला के लिए नहीं जाना जाता था। उन्होंने कभी सत्ता या अधिकार का भाव नहीं दिखाया। वह हवाई बातें करने से बचते थे और शिखर बैठकों में जहां दूसरे लोग कैमरे पर मुस्कराते या बातचीत करते नजर आते थे, वहीं अक्सर मनमोहन सिंह कहीं खोये हुए नजर आते थे। इसके बावजूद वह ऐसे प्रधानमंत्री थे जिसे उसकी बुद्धिमता, बौद्धिकता और सादगी के लिए याद किया जाएगा।