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सरकारी कार्यक्रमों का रोजगार पर सीमित प्रभाव

कार्यक्रमों या परियोजनाओं की तुलना में अगर नीतिगत कार्यक्रमों का इस्तेमाल किया जाए तो वे रोजगार के लिए कहीं बेहतर साबित होंगे।

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अजय शाह   
Last Updated- July 23, 2024 | 10:54 PM IST

बजट घोषणाओं में श्रम बाजार को ध्यान में रखकर अनेक तत्त्व शामिल किए गए हैं और यह वास्तव में भारत में एक बड़ी चिंता का विषय है। कुछ नई घोषणाएं मध्यम अवधि में निराश करने वाली हो सकती हैं। उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन योजनाओं यानी पीएलआई से हम जानते हैं कि भारत इतना बड़ा देश नहीं है कि यह अर्थव्यवस्था पर सीधा असर डाल सके। नीति निर्माताओं के लिए मार्ग उस माहौल को सुधारने में निहित है जहां निजी कंपनियां वृद्धि और रोजगार तैयार करें। इसमें कार्यक्रमों या परियोजनाओं का काम और नीति की भूमिका अधिक है।

शीर्ष 500 कंपनियों के इंटर्नशिप कार्यक्रम पर विचार कीजिए। सरकार की इच्छा है कि वह पांच साल में एक करोड़ लोगों को इसमें शामिल करेगी। बजट के पृष्ठ क्रमांक 34 पर एक वाक्य है ‘कंपनियों की भागीदारी स्वैच्छिक है।’ यह उपयुक्त वाक्य है। सरकार ने एक केंद्रीकृत ऑनलाइन पोर्टल, आवेदकों की अर्हता के लिए कई नियमों और प्रधानमंत्री इंटर्नशिप के तहत प्रति इंटर्न प्रति वर्ष 60,000 रुपये देने की घोषणा की है।

इसके लिए सरकार 54,000 रुपये देगी और शेष राशि 2013 में कंपनियों से प्राप्त सीएसआर की धनराशि से किया जाएगा। क्या कंपनियां इस मार्ग को चुनेंगी? कंपनियां इंटर्नशिप कार्यक्रम बनाती रही हैं और वे अक्सर 5,000 रुपये प्रति माह से अधिक भुगतान भी करती रही हैं। केंद्रीकृत आवेदन पोर्टल में सरकार के साथ संवाद की संभावना, सब्सिडी भुगतान आदि कई के लिए चुनौतीपूर्ण होगा। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि पांच साल में एक करोड़ की संख्या को कैसे फलीभूत किया जाएगा।

हम उम्मीद करते हैं कि 2024 की यह पूर्ण स्वैच्छिक पहल भविष्य में शीर्ष 500 कंपनियों पर सरकारी दबाव में परिवर्तित नहीं होगी। अगर ऐसा दबाव पैदा होता है तो इससे कंपनियों का निवेश प्रभावित होगा और रोजगार की समस्या और बढ़ेगी। सबसे सामान्य स्थिति में अगर कंपनियों पर दबाव बनाया गया तो वे ऐसे प्रोसेसिंग सेंटर स्थापित कर सकती हैं जो कल्याण कार्यक्रम की शैली में 60,000 रुपये इंटर्न को दे सकती हैं। जाहिर है इससे अधिकारी अधिक नियमों और केंद्रीकृत आईटी सिस्टम के साथ प्रतिरोध कर सकते हैं जो कंपनियों के साथ हस्तक्षेप करेगा।

अगर सबकुछ इरादे के मुताबिक हुआ और सीएसआर तथा कर जुटाने के अलावा कोई दबाव नहीं बनाया गया तो भी देश के श्रम बाजार के आकार को देखते हुए एक करोड़ लोगों की इंटर्नशिप बहुत छोटी तादाद होगी।

देश में वृद्धि और रोजगार हासिल करने के दो वैकल्पिक तरीके हैं। पहला है सरकार की शक्ति को इस तरह नया आकार देना जिससे ऐसे हालात बनें कि निजी व्यक्ति देश में निवेश करना चाहें। यह वृद्धि का मार्ग है और इसमें असीमित संभावनाएं हैं। दूसरा है सीधे रोजगार जैसे वांछित नतीजे हासिल करने की कोशिश करना। भारत में न्यूनतम वेतन लगभग 1.60 लाख रुपये सालाना है।

अगर केंद्रीय बजट में रोजगार को मजबूती देने के लिए तय दो लाख करोड़ रुपये का पूरा व्यय निजी कंपनियों के कर्मचारियों को दे दिया गया तो इससे 1.25 करोड़ प्रत्यक्ष रोजगार तैयार होंगे। इससे रोजगार के मोर्चे पर कोई खास सुधार नहीं होगा। अगर कल्याण कार्यक्रमों को आजमाने के बजाय निजी कंपनियों की इच्छा को नए सिरे से आकार देने के कदम उठाए जाएं तो बेहतर होगा।

निर्यात में सफलता के मार्ग की बात करें तो पीएलआई के विचार के साथ एक समानता है। देश में परिचालन में कुछ दिक्कतें हैं। जीएसटी में नीतिगत कमियां हैं, सीमा शुल्क, उपकर, कराधान, पूंजी नियंत्रण आदि। अगर कमियों को दूर करने के लिए वित्तीय हस्तांतरण को रास्ता बनाया जाए तो बहुत अधिक आवंटन की आवश्यकता होगी।

अगर एक लाख करोड़ डॉलर के निर्यात पर 5 फीसदी पीएलआई चुकाया जाता है तो यह राशि करीब 50 अरब डॉलर या चार लाख करोड़ रुपये होगी। भारत इतना अमीर नहीं है कि वह निर्यात पर इतनी अधिक सब्सिडी दे सके। नीतिगत विश्लेषण और सुधारों की मदद से इन कमियों को दूर करना कहीं अधिक बेहतर और किफायती होगा। उसके बाद निजी कंपनियां (देशी-विदेशी, छोटी और बड़ी) देश में उत्पादन का नए सिरे से आकलन करेंगी।

आर्थिक वृद्धि निजी कंपनियों के निवेश निर्णय से होती है। किसी निजी व्यक्ति के कारोबार खड़ा करने का सफर लंबा होता है। उच्च उत्पादकता वाली कंपनी तैयार करने में लंबा समय और भावनात्मक प्रतिबद्धता लगती है। निजी व्यक्ति कानून के शासन और केंद्रीय नियोजन पर दीर्घकालिक परिदृश्य को देखकर प्रतिक्रिया देते हैं। वे साल दर साल होने वाले नीतिगत बदलाव पर प्रतिक्रिया नहीं देते। यकीनन नीति निर्माताओं द्वारा साल दर साल बदलाव अनिश्चितता बढ़ाते हैं और निवेश पर असर डालते हैं।

वर्ष 1991 से 2011 तक की वृद्धि का दौर देश की विकास नीति को दिखाता है। हमें उस अवधि में भारतीय राज्य की काम करने की शैली को लेकर कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। परंतु नीति निर्माताओं ने ऐसा दर्शन दिखाया जो निजी व्यक्तियों को यह प्रोत्साहन दिया कि हालात में सुधार हो रहा है। केंद्रीय नियोजन में धीरे-धीरे गिरावट आई और विधि का शासन बढ़ा। एक बौद्धिक बहस छिड़ी और यथास्थिति की आलोचना हुई जिसने प्रगति की राह दिखाने में मदद की।

यशवंत सिन्हा द्वारा किया गया वादा कि अधिकतम सीमा शुल्क में प्रति वर्ष 5 प्रतिशत की कटौती की जाएगी, उससे उम्मीदें स्थिर हुईं तथा निवेश में तेजी आई। नीति निर्माताओं ने नियमित प्रगति पेश की और सुधारों को आमतौर पर पलटा नहीं गया। एक कुलीन सामाजिक पूंजी थी जिसकी मदद से विशिष्ट समस्याओं को अपवाद प्रबंधन में तब्दील किया जा सकता था।

इस माहौल ने निजी व्यक्तियों में उम्मीद जगाई और उन्होंने 1991-2011 के दौरान दीर्घकालिक निवेश किया। इससे निर्यात और रोजगार में सुधार हुआ। इसके पीछे असली शक्ति थी बौद्धिकता और राजनीतिक नेतृत्व के बीच सहयोग जिसने देश को नए विचार दिए। उस समय निर्यात या भर्तियों को प्रोत्साहित करने या इसके लिए दबाव बनाने के लिए राज्य की शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया गया।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published : July 23, 2024 | 10:36 PM IST