अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने मेक्सिको और कनाडा से होने वाले आयात पर ऊंचा कर लगाने का बयान हाल ही में दिया है, जिसके बाद विश्व व्यापार के दो पहलुओं पर आशंका के बादल मंडराने लगे हैं – फ्रेंडशोरिंग (सहयोगी देशों में उत्पादन करना या उनसे कच्चा माल लेना) और अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौता (यूएसएमसीए)। पहले का अमेरिका के उन करीबी देशों पर सीधा असर पड़ेगा, जिन्होंने मान लिया होगा कि ट्रंप के शुल्क वृद्धि के फैसले से उनके लिए राह आसान हो जाएगी। बाद वाले पहलू को देखें तो ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में संस्थाओं और कानूनों की समीक्षा होगी, चाहे अतीत में उन्हें अमेरिकी हितपूर्ति के लिए ही क्यों न बनाया गया हो।
कनाडा और मेक्सिको पर ऊंचे शुल्क लगाने से यूएसएमसीए का उल्लंघन होगा, जो उत्तर अमेरिका के इन तीन देशों को तरजीह देने वाला व्यापार समझौता है। 2020 में इसे उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार समझौते की जगह लागू किया गया था। शुल्क वृद्धि हुई तो 2022 के इनफ्लेशन रिडक्शन एक्ट को भी चुनौती मिलेगी। इस समझौते के तहत मेक्सिको और कनाडा को उत्पाद के मूल स्रोत के मामले में तरजीह दी जाती है ताकि खास तौर पर इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) में क्षेत्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं को बढ़ावा दिया जा सके।
स्पष्ट है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में वैश्विक व्यापार में काफी अनिश्चितता रहेगी। भारत की व्यापार नीति देखें तो जोखिम से बचने के लिए स्थिर, वैकल्पिक संस्थागत व्यवस्थाओं और/अथवा समझौतों में भागीदारी के जरिये व्यापार में विविधता बढ़ाने की जरूरत है। इस समय भारत के सामने तीन बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौतों के विकल्प हैं जो हैं- इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रॉस्पैरिटी (आईपीईएफ), रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकनॉमिक पार्टनरशिप (आरसेप) और कॉम्प्रिहेंसिव ऐंड प्रोग्रेसिव ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी)।
जोखिम कम करने के लिहाज से सबसे अच्छा तो इन तीनों में भागीदारी करना होगा। इससे व्यापार तथा वैश्विक मूल्य श्रृंखला में में शामिल होने की ज्यादा से ज्यादा संभावनाएं भी खुल जाएंगी। आईपीईएफ की बात करें तो भारत आईपीईएफ के तीनों स्तंभों का सदस्य है। ये स्तंभ हैं: आपूर्ति श्रृंखला, स्वच्छ ऊर्जा, और कर तथा भ्रष्टाचार विरोध। लेकिन वह चौथे स्तंभ यानी व्यापार से अलग रहा है। लेकिन जीवीसी में व्यापार-निवेश गठजोड़ को देखते हुए व्यापार में भारत की भागीदारी के भी पर्याप्त आधार हैं। मगर अभी शायद उसका सही समय नहीं है।
आईपीईएफ समझौतों के परिणाम अलग से नजर नहीं आते और ये समझौते बाध्यकारी होने के बजाय सिफारिशी भर हैं, इसलिए मुक्त व्यापार समझौतों या बड़े क्षेत्रीय व्यापार समझौते की तुलना में यह आर्थिक एकीकरण का कमजोर उपाय साबित होता है। आईपीईएफ कार्यकारी समझौता है और चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप इशारा कर चुके हैं कि जीतने पर वह इसे खत्म कर देंगे। ऐसे में आईपीईएफ के अस्तित्व पर ही संशय मंडरा रहा है।
जहां तक आरसेप और सीपीटीपीपी की बात है तो 2019 में बाहर होने के बाद भारत जोर-शोर से कहता रहा है कि वह आरसेप में वापस नहीं जाएगा। यह तब है, जब आरसेप ने भारत के लिए दरवाजे खोल रखे हैं और इसके स्रोत के नियम, मूल्य श्रृंखला के गहरे एकीकरण आदि से कई फायदे हो सकते हैं। सीपीटीपीपी की बात करें तो नीतिगत रूप से भारत ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया है।
सीपीटीपीपी की स्थापना 2018 में हिंद-प्रशांत व्यापार समूह के तौर पर की गई थी। इसमें जापान, सिंगापुर, वियतनाम और ऑस्ट्रेलिया सहित 11 देश शामिल हुए थे। यूनाइटेड किंगडम को इस वर्ष इसका 12वां सदस्य बनाया गया। इसके सात सदस्य आरसेप के भी सदस्य हैं। चीन ने 2020 में इसकी सदस्यता के लिए अर्जी डाली थी मगर अभी तक उसे सदस्य नहीं बनाया गया है।
सदस्यता के लिए औपचारिक आवेदन करने वालों की सूची लंबी है और दक्षिण कोरिया, थाईलैंड तथा इंडोनेशिया जैसे देशों ने इसमें अनौपचारिक रुचि भी दिखाई है। इसके नियम कायदों में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियम शामिल हैं। सदस्य देशों के बीच लगभग सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए शुल्क मुक्त व्यापार मुहैया कराने तथा निवेश का उदारीकरण करने के अलावा सीपीटीपीपी ऊंचे दर्जे के निवेशक संरक्षण नियम, बौद्धिक संपदा अधिकार नियम, व्यापक ई-कॉमर्स संकल्प तथा विवाद निपटारा प्रणाली लागू करता है।
सदस्यता सभी के लिए खुली है लेकिन औपचारिक आवेदन पर विचार तभी होता है, जब सभी सदस्य देश नया सदस्य शामिल करने के लिए कार्यसमूह बनाने पर राजी हों। इसके बाद आवेदन करने वाले देश को समझौतों के उच्च मानकों का पालन करने के लिए तैयार रहना पड़ता है।
पिछले छह साल में केवल एक नया सदस्य शामिल किया गया है और दिलचस्पी रखने वाली दूसरी अर्थव्यवस्थाएं अभी इंतजार ही कर रही हैं। इससे प्रवेश की इस लंबी प्रक्रिया पर सवाल उठे हैं। वैश्विक अनिश्चितता बढ़ती देखकर प्रवेश प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने की सलाह आई है और सभी आवेदकों को एक साथ समूह में शामिल करने का सुझाव भी दिया गया है।
ऐसे में भारत के आवेदन के लिए यह समय सही लग रहा है। अगर प्रक्रिया बदली गई तो भारत इससे सबसे बड़े, खुले और नियमों पर चलने वाले व्यापार समूह से बाहर नहीं छूटेगा। प्रवेश प्रक्रिया नहीं बदली तो भी मौजूदा भू-राजनीतिक हालात की वजह से दूसरे देशों के बजाय भारत को जल्दी शामिल किया जा सकता है।
सीपीटीपीपी में शामिल होने का औपचारिक इरादा जाहिर करने से जरूरी सुधार लागू करने और अपने घरेलू नियमों को उच्चतम वैश्विक मानकों के हिसाब से ढालने की भारत की इच्छा और संकल्प भी जाहिर होगा। चीन से अपना निवश हटा रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत अपने यहां लाना चाहता है। इस लिहाज से भी सीपीटीपीपी के लिए आवेदन कारगर रहेगा। वियतनाम में हम ऐसा होते देख चुके हैं। वह सीपीटीपीपी का सदस्य है और यूरोपीय संघ के साथ उसका मुक्त व्यापार समझौता भी है। इसलिए चीन प्लस वन नीति का उसे काफी फायदा मिल रहा है।
यह सही है कि सीपीटीपीपी के व्यापार नियम पहले ही तय हैं और भारत वहां नियम तैयार करने में योगदान नहीं कर सकेगा। परंतु यह भी समझना चाहिए कि सीपीटीपीपी हर देश को विभिन्न कारोबारी क्षेत्रों में जरूरी मानकों तक पहुंचने का रास्ता और अवधि चुनने की पूरी छूट देता है।
यानी समझौते में नए सदस्यों के लिए छूट भी है और घरेलू सुधारों की पूरी गुंजाइश भी है। यूनाटेड किंगडम को ही देख लीजिए। वहां इस बात पर राय बंटी हुई थी कि निवेश से जुड़े कुछ नियम स्वीकारने का नतीजा क्या होगा। मगर इसी बीच कुछ सदस्य देशों के साथ द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों और निवेश संबंधों को ध्यान में रखते हुए समझौतों पर हस्ताक्षर कर दिए गए। सीपीटीपीपी की सदस्यता के लिए यूनाइटेड किंगडम ने जो मोलभाव किया, उसका सावधानी से अध्ययन करना मददगार साबित हो सकता है।
कुल मिलाकर ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में लगातार अनिश्चित होते वैश्विक व्यापार के बीच अगर भारत इस समय सीपीटीपीपी की सदस्यता पाने के लिए औपचारिक आवेदन करता है तो उसे स्थिर, नियमों पर चलने वाली व्यापार व्यवस्था में प्रवेश मिल सकता है और व्यापार तथा वैश्विक मूल्य श्रृंखला की दृष्टि से गतिशील व्यापार समूह में आर्थिक एकीकरण बढ़ाने का मौका भी मिल सकता है।
(लेखिका सीएसईपी की सीनियर फेलो और जेएनयू में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं)