कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर में लोगों में संक्रमण और मौत के मामले बढ़े हैं। तमाम राज्य सरकारों ने गतिविधियों पर रोक लगाई है लेकिन शेयर बाजार इससे बेअसर नजर आता है। आर्थिक गतिविधियों के कुछ अच्छे संकेतक जिन्हें दैनिक/साप्ताहिक आधार पर आंका जा सकता है, वे मंदी का साफ संकेत दे रहे हैं। अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में पेट्रोल और डीजल की मांग तेजी से गिरी। पूरे महीने में यह अप्रैल 2019 के मुकाबले क्रमश: चार फीसदी और 10 फीसदी कम हुई। बिजली की मांग अप्रैल 2019 की तुलना में अधिक जरूर रही लेकिन यह बढ़त मामूली थी। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के लिए ई-वे बिल पूरे अप्रैल कम होते रहे। गूगल के मोबिलिटी संकेतक के अनुसार किराना सबंधी और खुदरा गतिविधियां भी अगस्त 2020 के स्तर तक घटीं। इसके बावजूद निफ्टी सूचकांक अपने उच्चतम स्तर से केवल तीन फीसदी नीचे है। स्मॉल और मिडकैप शेयरों के सूचकांक और बेहतर स्थिति में हैं। इससे पहले एक आलेख में मैंने यह पड़ताल की थी कि आखिर क्यों बाजार और स्थानीय अर्थव्यवस्था प्राय: असंबद्घ रहती हैं।
विदेशी संस्थागत निवेशकों की भागीदारी को देखते हुए शेयर बाजार के प्रदर्शन को वैश्विक बाजारों से जोड़कर देखना होगा। इस पैमाने पर असर साफ नजर आ रहा है। अप्रैल में भारतीय शेयर प्रतिफल के मामले में विश्व के 50 शीर्ष बाजारों में 43वें स्थान पर थे। उनमें एक फीसदी की गिरावट आई जबकि वैश्विक शेयर चार फीसदी ऊपर गए यानी कुल पांच फीसदी का अंतर आया। मई में अब तक भारतीय शेयरों का प्रदर्शन अपेक्षाकृत बेहतर रहा है और वे वैश्विक बाजारों से बस दो फीसदी पीछे हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बाजार महामारी को समझने लगे हैं। देश में सक्रिय मामलों में इजाफा हो रहा है लेकिन महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्य जो दूसरी लहर से अधिक प्रभावित हुए वहां अब सुधार नजर आने लगा है। उदाहरण के लिए मुंबई में मामले उच्चतम स्तर से 48 फीसदी कम हो चुके हैं और पूरी तरह बंद इमारतों की तादाद आधी रह गई है। दिल्ली में शीर्ष से केवल 14 फीसदी गिरावट आई। परंतु लोगों के संक्रमित होने की दर तीन सप्ताह में न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई। माना जा रहा है कि अन्य क्षेत्रों में भी गिरावट आएगी।
शीर्ष सूचकांकों में नजर आ रही स्थिरता के नीचे क्षेत्रवार प्रदर्शन में अंतर रहा है। बैंकों, सीमेंट और उपभोक्ता कंपनियों के शेयरों में आई गिरावट की भरपाई धातु और औषधि कंपनियों के शेयरों ने की। दुनिया भर में धातु की उच्च कीमतों ने घरेलू धातु कंपनियों को कमजोर घरेलू मांग की भरपाई उच्च मूल्य निर्यात से करने में मदद की। मुनाफे में इजाफा नकदी की स्थिति मजबूत कर रहा है। दवाओं और टीकों की मांग में इजाफा तथा रिजर्व बैंक की ओर से नकदी समर्थन ने भी औषधि कंपनियों के शेयरों की मदद की।
बाजार महामारी के प्रभाव की पूरी अनदेखी नहीं कर रहा है। मानवीय त्रासदी की तुलना में यह प्रभाव इतना कम क्यों दिख रहा है इसे समझने के लिए उन चरों पर महामारी के प्रभाव के असर का विश्लेषण करना होगा जिन पर बाजार ध्यान देता है और वह है सूचीबद्ध कंपनियों के मुनाफे का अनुमान। इसके दो हिस्से हैं। पहला अगले 12 महीनों में मुनाफे का अनुमान और दूसरा मध्यम अवधि में मुनाफे पर असर। अगर लॉकडाउन कुछ महीनों के बजाय कुछ सप्ताह तक लगने का अनुमान हो तो निवेशक शायद अपने शेयर अभी न बेचें। क्योंकि यह स्पष्ट नहीं होगा कि बाद में वे उन्हें कम कीमत पर खरीद भी सकेंगे या नहीं।
यहां बात आती है मध्यम अवधि में मुनाफे में वृद्धि की संभावना की। यह गतिविधियों पर प्रतिबंध की अवधि पर भी निर्भर करेगा। यदि ये प्रतिबंध महीनों के बजाय कुछ सप्ताह चलते हैं तो इनसे निपटा जा सकता है। यदि काल्पनिक रूप से हम यह मान लें कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 10 फीसदी समस्याग्रस्त रहता है तो सालाना जीडीपी का 1.6 फीसदी गंवाना पड़ेगा। चूंकि पहली लहर में लॉकडाउन अधिक कड़ा था इसलिए जीडीपी को नुकसान भी करीब पांच गुना अधिक हुआ। आय के इस नुकसान का वितरण अत्यंत अहम है क्योंकि इसका एक अहम हिस्सा सरकार द्वारा कर नुुकसान और सब्सिडी के रूप में भरा जाता है। इस नुकसान को मौजूदा और भविष्य के करदाता वहन करते हैं। एक अन्य अहम हिस्सा वह है जहां लोग कम आय अर्जित करते हैं और खपत भी कम करते हैं (जीडीपी इसी वजह से गिर रहा है)। यहां चुनौती यह है कि आय और व्यय में कमी अलग-अलग लोगों के लिए आई। इससे कुछ घरों में अतिरिक्त बचत पैदा हो गई जबकि अन्य परिवारों की स्थिति बिगड़ गई। शायद यह सबसे प्रभावी असर है लेकिन इसका आकार कम है। यह कम आय वर्ग की विशिष्ट मांग को तब तक प्रभावित करता है जब तक उनकी आय बढ़ नहीं जाती। शेष में जो बंटवारा होता है वह आर्थिक प्रतिभागियों के निर्णयों पर निर्भर करता है। पहली लहर में बड़ी कंपनियों ने भी अपने आपूर्तिकर्ताओं को भुगतान में देरी की, अचानक ऑर्डर रद्द किए या अनुबंधित श्रमिकों की छंटनी की। दूसरी लहर में कम से कम अब तक कंपनियां परिचालन जारी रखने का हरसंभव प्रयास कर रही हैं, हालांकि कई को कामगारों के संक्रमित होने के कारण मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है। कंपनियों को अस्थायी कर्मचारियों को भी अपने साथ बनाए रखने में दिक्कत हो रही है। यह व्यवहार अल्पकालिक उथलपुथल के अनुमान पर आधारित है। यदि जीडीपी को नुकसान कम हुआ तो कंपनियों और आम परिवारों पर भी प्रभाव कम होगा।
इस बात पर भी विचार करना होगा कि ऐसा भीषण अनुभव लोगों के खपत तथा कंपनियों के निवेश के रुझानों पर क्या असर डाल सकता है? टीकाकरण की गति तेज होने से लोगों का डर दूर करने में मदद मिलेगी। अगले कुछ महीनों में टीकों की आपूर्ति तीन गुना हो जाने की संभावना से भी निवेशकों के आशावाद को बल मिल रहा होगा। कंपनियों को भविष्य के निवेश के लिए तैयार रखने के लिए सरकार को महामारी के आगमन के पहले की तरह ही वृद्धि को प्राथमिकता देना जारी रखना होगा। यह अनुमान भी तार्किक प्रतीत होता है क्योंकि गत वित्त वर्ष के अंत में सरकार के पास 4.5 लाख करोड़ रुपये की अधिशेष पूंजी थी। इसके अलावा अप्रैल में जीएसटी संग्रह काफी अच्छा रहा, राजकोषीय सुदृढ़ीकरण पथ रूढि़वादी रहा और केंद्रीय बैंक वृद्धि के लिए मददगार रहा।
आगे चलकर वैश्विक वित्तीय बाजारों में अस्थिरता दिख सकती है जिसका असर भारत पर भी नजर आ सकता है। लेकिन हमें यह आशा करनी चाहिए महामारी के मौजूदा दौर में बाजारों की निरपेक्षता बनी रहेगी।