वर्ष 2021-22 के आम बजट में वृद्धि और सुधार का नया एजेंडा तय किया गया है। यह एजेंडा बाजार से ली गई उधारी और अल्प बचत के माध्यम से पूंजीगत व्यय बढ़ाने पर केंद्रित है।
किसी भी अन्य वर्ष में बजट से जुड़े प्रश्न इस नीति के प्रभाव पर केंद्रित रहते। परंतु 2020-21 सामान्य वर्ष नहीं है। यह ऐसा वर्ष है जब महामारी ने संपूर्ण विश्व के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को भी चपेट में लिया। इस वर्ष बहुत बड़ी तादाद में भारतीयों ने रोजगार गंवाया।
ऐसे में यह सवाल भी होना चाहिए कि इस बजट ने देश के सर्वाधिक संवेदनशील और महामारी से सर्वाधिक प्रभावित तबके की चिंताओं को किस हद तक दूर किया। यह वह वर्ग है जो आय वितरण में एकदम निचले क्रम पर आता है।
इसका स्पष्ट उत्तर है कि उनकी चिंताओं का अच्छी तरह निराकरण नहीं किया गया। सच यह है कि अधोसंरचना को उन्नत बनाकर मध्यम और दीर्घावधि में रोजगार तैयार करने की नीति के अपने लाभ हो सकते हैं लेकिन एक ऐसे वर्ष में जब अल्पावधि की चिंताएं बहुत गहन हैं, एक दीर्घकालिक नीति शायद तात्कालिक समस्याओं को हल नहीं करे।
कहने का अर्थ यह नहीं है कि बजट में स्वाभाविक तौर पर लोककल्याणकारी रुख अपनाया जाना चाहिए। बल्कि संकट के समय बजट का आकलन इस आधार पर भी होना चाहिए कि इस संकट से सबसे अधिक प्रभावित लोगों को उबारने के लिए उसमें क्या कदम उठाए गए।
इस नजरिये से देखा जाए तो बजट के व्यय संबंधी रुख के बारे में ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय यह मान चुका है कि महामारी समाप्त हो चुकी है।
उदाहरण के लिए खाद्य सब्सिडी शायद पिछले वर्ष लंबी खिंच गई क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से होने वाला वितरण लॉकडाउन के दौरान शिखर पर रहा। फिर भी यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर क्यों महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए आवंटन में एक तिहाई की कटौती की गई जबकि भारी पैमाने पर लोगों ने रोजगार गंवाए हैं। कुल मिलाकर सब्सिडी में काफी कमी की गई है। यह हाल के वर्षों की एक बड़ी उपलब्धि है।
परंतु इस समय इसे प्राथमिकता देने पर सवाल उठ सकता है। इसके अलावा बात करें तो ग्रामीण क्षेत्र की कुछ अधोसंरचना योजनाओं का वित्त पोषण जारी रखा जाएगा और महिलाओं और शिशुओं पर केंद्रित एकीकृत योजनाओं का पुनर्गठन किया जा रहा है। परंतु ऐसे समय में जबकि रिकॉर्ड तादाद में भारतीय गरीबी के दुष्चक्र में दोबारा उलझ गए हैं, क्या ऐसा करना उचित है?
शायद आम बजट की इस नाकामी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अधिक सचेत कोई और नहीं है। उन्होंने बजट पर केंद्रित अपनी टिप्पणी में कहा है कि इसे गत मार्च में लॉकडाउन लागू होने के बाद अपनाए गए उपायों की शृंखला में केवल एक उपाय के रूप में देखा जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि इन उपायों में से अनेक महामारी, सामाजिक दूरी मानकों और लॉकडाउन के असर को कम करने में सहायक रहे। इसके बावजूद यह तथ्य बरकरार है कि उन पैकेजों के आकार, उनके वास्तविक राजकोषीय प्रभाव को लेकर तमाम दावों के बावजूद उनका वास्तविक असर सीमित रहा है। आशा की जा रही थी कि एक ऐसे वर्ष में जब सरकार को महामारी के सबसे अधिक शिकार लोगों को और अधिक धनराशि मुहैया करानी चाहिए थी, बजट ऐसा करने में नाकाम रहा।