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वैश्विक स्तर पर नवाचार और भारत की स्थिति

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 15, 2022 | 2:41 AM IST

मौजूदा कोविड-19 महामारी ने एक बार फिर सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति के लिए शोध और विज्ञान के महत्त्व की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। दुनिया भर के शोधकर्ता महामारी का टीका बनाने के लिए प्रयासरत हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था और कंपनियों के लॉकडाउन का शिकार होने के बाद कई तकनीकी रुझानों में भी तेजी आई है। तकनीक कभी इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी फिर चाहे मामला ई-कॉमर्स का हो, शिक्षा का या टेली-मेडिसन का। बल्कि तकनीकी व्यय में अब काफी सुधार हो रहा है क्योंकि कंपनियां डिजिटलीकरण और नए कारोबारी मॉडल पर खर्च कर रही हैं।
तकनीकी क्षेत्र के शेयरों में मार्च की गिरावट के बाद तेजी आ चुकी है और अब तक के उच्चतम स्तर पर हैं। ऐपल पहली नॉन सॉवरिन कंपनी है जिसका बाजार पूंजीकरण 2 लाख करोड़ डॉलर से अधिक है। इससे पहले शोध एवं विकास तथा स्टार्टअप गतिविधियां कभी इतनी मजबूत नहीं थीं। एक प्रश्न यह भी है कि वैश्विक शोध एवं विकास व्यय में किसका क्या योगदान है और भारत इसमें कहां ठहरता है?
अमेरिका एक सदी से इस क्षेत्र में दुनिया का सबसे अधिक खर्च करने वाला देश है लेकिन बीते 20 वर्षों से चीन तेजी से उसके करीब आ रहा है। बीते एक दशक में अमेरिका में शोध एवं विकास पर खर्च केवल 43 फीसदी बढ़ा है जबकि चीन ने इसमें 200 फीसदी का इजाफा किया। सन 2018 में अमेरिका में शोध एवं विकास पर सकल घरेलू व्यय 580 अरब डॉलर था। चीन ने उसी वर्ष 550 अरब डॉलर खर्च किए। सन 2008 में अमेरिका और चीन का खर्च क्रमश: 400 अरब डॉलर और 125 अरब डॉलर था। दोनों देशों के बीच का अंतर तेजी से कम हुआ है। इतना ही नहीं शीर्ष दो देशों तथा अन्य देशों के बीच भी काफी अंतर है। शोध एवं विकास पर खर्च के मामले में तीसरा सबसे बड़ा देश जापान इस पर 200 अरब डॉलर से भी कम राशि खर्च करता है। चीन और अमेरिका इस क्षेत्र में कुल वैश्विक खर्च में 55 फीसदी के हिस्सेदार हैं। भारत का शोध एवं विकास खर्च करीब 12-13 अरब डॉलर है।
यदि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखें तो अमेरिका सन 1980 के दशक में शीर्ष में रहने के बाद अब जीडीपी के 2.8 फीसदी व्यय के साथ आठवें स्थान पर है। चीन फिलहाल जीडीपी का 2.2 फीसदी शोध एवं विकास पर खर्च करता है जबकि 2000 के दशक में यह राशि 0.9 फीसदी थी। चीन 12वें स्थान के साथ उभरते बाजारों में शीर्ष पर है। इजरायल और दक्षिण कोरिया जीडीपी का करीब 5 फीसदी हिस्सा शोध एवं विकास पर व्यय करते हैं जबकि भारत की हिस्सेदारी जीडीपी के बमुश्किल 0.6-0.7 फीसदी है। इतना ही नहीं सन 2008 के बाद से इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। हम 1.7 फीसदी के वैश्विक औसत से भी पीछे हैं।
बीते दो दशक में विश्व स्तर पर शोध एवं विकास व्यय 4.6 फीसदी वार्षिक की दर से बढ़ा है जबकि वैश्विक जीडीपी वृद्धि 2.9 फीसदी रही। विश्व स्तर पर शोध एवं विकास व्यय जीडीपी के 1.4 फीसदी से बढ़कर 1.7 फीसदी हो गया। जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक के बढ़ते प्रयोग को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है। एक दिलचस्प पहलू यह है कि अमेरिका और चीन के शोध एवं विकास खर्च का क्रमश: 65 और 80 फीसदी हिस्सा विकास परियोजनाओं में लगता है, न कि बुनियादी शोध में। शोध एवं विकास की राशि अल्पकालिक वाणिज्यिक परियोजनाओं पर व्यय की जाती है ताकि एक विशेष उत्पाद या प्रक्रिया तैयार हो सके। यह यूरोपीय संघ के देशों के उलट है। फ्रांस और ब्रिटेन में शोध व्यय का 60 फीसदी से अधिक हिस्सा बुनियादी शोध पर खर्च किया जाता है। पैसा बुनियादी समझ बढ़ाने पर व्यय किया जाता है। अमेरिका और चीन अधिक वाणिज्यिक सोच रखते हैं।
वित्त पोषण के स्रोत की बात करें तो हर देश में कारोबार ही प्रमुख है बस स्तर अलग-अलग है। अमेरिका में शोध व्यय का 65 फीसदी खर्च कारोबारी जगत उठाता है। चीन और जापान मेंं यह अनुपात 76 फीसदी है। ब्रिटेन और फ्रांस में कारोबारी जगत केवल 54 फीसदी शोध व्यय उठाता है। सरकार हर जगह संतुलन कायम करती है।
कंपनियों के शोध एवं विकास व्यय पर नजर डालें तो शीर्ष 100 कंपनियां कुल व्यय का 50 फीसदी वहन करती हैं। सिलिकन वैली की बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियां सबसे अधिक व्यय करती हैं। एमेजॉन का शोध व्यय 30 अरब डॉलर से अधिक है जबकि अल्फाबेट 26 अरब डॉलर इस पर खर्च करती है। यूरोपीय संघ में फोक्सवैगन 16 अरब डॉलर के साथ सर्वाधिक व्यय वाली कंपनी है। एशिया में सैमसंग इलेक्ट्रॉनिक्स और हुआवे सालाना 15-15 अरब डॉलर शोध एवं विकास पर खर्च करती हैं। शीर्ष 10 में इकलौती गैर अमेरिकी कंपनी रोश है। फोक्सवैगन के अलावा सभी कंपनियां तकनीक या जीवन विज्ञान से जुडी हैं। शोध व्यय वाली विश्व की शीर्ष 20 कंपनियां तकनीक जीवन विज्ञान या वाहन क्षेत्र की हैं।
भारत की केवल एक कंपनी शोध एवं विकास पर व्यय के मामले में शीर्ष 100 में शामिल हैं। टाटा मोटर्स 35 करोड़ डॉलर की राशि इसमें व्यय करती है। बड़ी तकनीकी कंपनियों की बात करें तो शोध एवं विकास पर उनका व्यय भारत के सालाना व्यय से कई गुना है।
भारत बहुत पीछे नजर आता है लेकिन आंकड़े उन सैकड़ों शोध विकास केंद्रों को दर्ज नहीं करते जो वैश्विक कंपनियों ने स्थापित की हैं। हर बड़ी विदेशी कंपनी भारत में एक खास राशि इस मद में देती है। यह राशि कंपनियों के वैश्विक लाभ-हानि व्यय में दर्ज की जाती है लेकिन खर्च भारत में होती है। वैश्विक शोध-विकास शृंखला में भारत की अलग अहमियत है।
परंतु भारतीय कंपनियों को सुधार करना होगा। सरकार के पास शोध व्यय बढ़ाने के लिए संसाधन नहीं हैं, ऐसे में कंपनियों को आगे आना होगा। चीन ने बीते चार दशक में विदेशों से घर लौटे छात्रों में से 85 फीसदी यानी करीब 43 लाख की मदद से नवाचार मजबूत किया है। अमेरिकी आव्रजन नियमों को देखें तो वहां से भी भारतीयों का घर लौटना तय है। इन प्रतिभाओं का सकारात्मक इस्तेमाल होना चाहिए। निवेशकों को भी प्रोत्साहित करना होगा। हमारे बाजार कई बार अल्पावधि के लाभ और प्रतिफल पर केंद्रित रहती हैं। शोध पर होने वाले व्यय को मुनाफे से नहीं जोड़ा जा सकता। स्टार्ट अप के लिए भी हालात धीरे-धीरे अनुकूल हो रहे हैं।
भारत के पास शोध एवं विकास में वैश्विक रुतबा हासिल करने की क्षमता है। कहीं से काम करने की क्षमता हमारी ताकत है। हमें नवाचार में अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)

First Published : September 2, 2020 | 11:36 PM IST