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कठिन लक्ष्य

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बीएस संपादकीय
Last Updated- December 22, 2022 | 9:07 PM IST

संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन के पक्षकारों के 15वें सम्मेलन (कॉप 15) का आयोजन पिछले दिनों कनाडा के मॉन्ट्रियल में किया गया। इस आयोजन में जो सहमति बनी वह कागजों पर तो काफी प्रभावशाली नजर आती है लेकिन उसका क्रियान्वयन काफी कठिन साबित हो सकता है। हालांकि इसकी फाइनैंसिंग के लिए एक व्यापक व्यवस्था बनाने की बात कही गई लेकिन उसके बावजूद यह काम मुश्किल हो सकता है। यह ऐतिहासिक समझौता पेरिस जलवायु संधि के तर्ज पर किया गया और इसमें ऐसे लक्ष्य तय किए गए जो 2030 तक जमीनी, आंतरिक जलीय और तटीय तथा समुद्री पारिस्थितिकी को हुए 30 फीसदी नुकसान की भरपाई कर उसे बहाल करने की बात कहते हैं और साथ ही अहम जैव विविधता को होने वाले भावी नुकसान को रोकने का लक्ष्य तय करते हैं। यह लक्ष्य आसान नहीं है, खासकर यह देखते हुए कि फिलहाल केवल 17 फीसदी जमीनी और 10 फीसदी से भी कम समुद्री क्षेत्रों का बचाव किया जा रहा है। दुनिया के महत्त्वपूर्ण जैव संसाधन पूरी तरह बचाव से रहित हैं।

नए वैश्विक जैव विविधता प्रारूप (जीबीएफ) में यह परिकल्पना की गई है कि 2030 तक सभी सार्वजनिक एवं निजी स्रोतों से न्यूनतम 200 अरब डॉलर की राशि प्रति वर्ष जुटाई जाएगी और इसकी सहायता से पृथ्वी की पारिस्थितिकी को जरूरी सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। यह भी अति महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य नजर आता है क्योंकि विकसित देश 2009 में जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए उत्सर्जन कम करने के क्रम में सालाना 100 अरब डॉलर का फंड जुटाने पर सहमत हुए थे लेकिन इस मामले में कोई सकारात्मक अनुभव नहीं रहा है। समग्र रूप से देखा जाए तो जीबीएफ में 23 लक्ष्य तय किए गए हैं जिनमें से अनेक मात्रात्मक हैं जिससे उनकी प्रगति को आंकना आसान है।

जैव विविधता को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों की सब्सिडी में सालाना 500 अरब डॉलर तक की कमी करना और कीटनाशकों तथा हानिकारक रसायनों के इस्तेमाल को आधा करना शामिल है। इसके अलावा इसमें वैश्विक स्तर पर होने वाली खाद्य पदार्थों की बरबादी में 50 फीसदी की कमी और जरूरत से अधिक खपत तथा कचरा उत्पादन में अहम कटौती की बात कही गई है। यह इस बात की भी मांग करता है कि बड़े कारोबारी और निजी निवेशक नियमित रूप से अपने उन कदमों का खुलासा करें जो प्रकृति को प्रभावित करते हैं और उसका संरक्षण करते हैं।

इसमें दो राय नहीं है कि इन कदमों की जरूरत है और इससे भी अधिक ये ऐसे कठिन काम हैं जिनके बारे में कहना आसान है लेकिन करना कठिन। उनका असली महत्त्व तभी आंका जा सकता है जब उन्हें पृथ्वी की जैव विविधता की मौजूदा कमजोर दशा के परिदृश्य में देखा जाए। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर द्वारा जारी 2022 की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट में हमारी जैव विविधता की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इसके मुताबिक करीब 34,000 पौधे और 5,200 पशुओं की प्रजातियां नष्ट होने के कगार पर हैं। इसमें पक्षियों की तमाम किस्में शामिल हैं। बुरी बात यह है कि वन्य जीवों की आबादी 1970 से अब तक 69 फीसदी घटी है। इसके लिए उनके प्राकृतिक आवास नष्ट होना, खतरनाक गतिविधियां, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन आदि प्रमुख वजह हैं।

भारत इस तथ्य से राहत तलाश सकता है कि लक्ष्यों को वैश्विक स्तर पर लागू करने का उसका सुझाव मान लिया गया। विभिन्न देशों को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे इन्हें अपने हालात, प्राथमिकता और क्षमता के अनुसार अपनाएं। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि भारत कुछ अन्य विकासशील देशों तथा अपेक्षाकृत अमीर देश जापान के साथ मिलकर मत्स्यपालन तथा कृषि सब्सिडी को बाहर रखने में कामयाब रहा। इससे भी अहम बात यह है कि वनों में रहने वाले लोगों के जेनेटिक संसाधनों के इस्तेमाल से होने वाले मौद्रिक और गैर मौद्रिक लाभ की साझेदारी तथा जेनेटिक संसाधनों से संबद्ध पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण को जीबीएफ का हिस्सा बनाया गया है। बहरहाल, नए जैवविविधता समझौते के हानि-लाभ से परे इस दिशा में प्रगति के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति अहम है। वरना पृथ्वी का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ेगा और हम गहन संकट में फंस जाएंगे।

First Published : December 22, 2022 | 9:07 PM IST