प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) व्यवस्था में मौजूदा चार मुख्य दरें (5,12,18 और 28 फीसदी) अब दो मुख्य दरों 5 फीसदी और 18 फीसदी में तब्दील हो जाएंगी। तंबाकू जैसी हानिकारक वस्तुओं पर 40 फीसदी जीएसटी के अलावा अतिरिक्त शुल्क भी लगाया जाएगा।
सरकार ने कहा कि इस कदम का मकसद अनुपालन सरल बनाना, जीएसटी व्यवस्था में मौजूद त्रुटियां दूर करना और उपभोक्ताओं के हाथ में अधिक रकम देना है। हालांकि, निवेशकों एवं अर्थशास्त्रियों को यह घोषणा कुछ जानी-पहचानी लगी। छह वर्ष पहले 20 सितंबर, 2019 को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कंपनी कर 30 फीसदी से घटाकर 22 फीसदी और नए विनिर्माताओं के लिए इसे 25 फीसदी से घटाकर 15 फीसदी कर भारतीय उद्योग जगत को चौंका दिया था। कई कंपनियों के लिए यह कटौती अचानक बड़े मुनाफे की सौगात लेकर आई। उस दिन बीएसई सेंसेक्स 5.3 फीसदी उछल गया और फिर अगले सोमवार को इसमें 2.8 फीसदी की तेजी दर्ज हुई। मगर निवेशकों एवं कंपनियों का उत्साह कुछ दिनों बाद काफूर हो गया।
आखिर, इसकी क्या वजह थी? कंपनी कर में कटौती एक तत्काल प्रतिक्रिया थी और शिथिल पड़ती अर्थव्यवस्था संभालने के लिए सरकार द्वारा आनन-फानन में उठाया गया कदम था। उस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर कम होकर 5 फीसदी (पुरानी गणना विधि के अनुसार 3.5 फीसदी) तक सिमट गई। देश से निर्यात कमजोर हो गया था, बेरोजगारी दर तेजी से बढ़ रही थी और वाहनों की बिक्री घट कर दो दशकों के निचले स्तर पर आ गई थी।
वित्तीय क्षेत्र संकट में था और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) चरमरा गई थीं। कर घटाने के पीछे यह तर्क था कि इससे कंपनियां अपने पास जमा रकम नई परियोजनाओं में निवेश करेंगी जिससे रोजगार के अवसर सृजित होंगे। मगर वास्तविकता यह है कि कंपनियों के पास जमा नकदी का भंडार धनाढ्य कंपनियों की विस्तार योजनाओं को आगे नहीं बढ़ाती हैं बल्कि अर्थव्यवस्था में वाजिब मांग से ही ऐसा हो पाता है। जिसकी आशंका थी वही हुआ, कंपनी कर में कटौती के बावजूद कंपनियां विस्तार योजनाओं की राह में आगे नहीं बढ़ीं।
इस बार जबकि हमें निजी क्षेत्र की तरफ से पूंजीगत व्यय बढ़ने का इंतजार है छह साल बाद एक बार फिर दरों में बड़ी कटौती हो रही है। हालांकि, 2025 में भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत उतनी खराब नहीं है मगर यह मजबूत भी नहीं कहा जा सकती। वित्त वर्ष 2025-26 की पहली तिमाही में भारतीय कंपनियों की मुख्य आय सालाना आधार पर 3.3 फीसदी कम हो गई, जो पिछली चार तिमाहियों में दूसरी गिरावट है। सालाना आधार पर उनका राजस्व 7.3 फीसदी दर से बढ़ा मगर वित्तीय एवं तेल कंपनियों को छोड़कर यह दर महज 5.3 फीसदी ही रही। कर पूर्व मुनाफा भी 7.4 फीसदी कम हो गया।
जुलाई में भारत के प्रमुख क्षेत्रों का उत्पादन सालाना आधार पर केवल 2 फीसदी दर से बढ़ा, जो जून में दर्ज 2.2 फीसदी की तुलना में कम रहा। औद्योगिक उत्पादन भी जून में 10 महीनों के निचले स्तर 1.5 फीसदी पर आ गया। सूक्ष्म वित्त और असुरक्षित खुदरा पोर्टफोलियो में दबाव के कारण बैंकों में फंसे ऋण चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सालाना आधार पर 26 फीसदी तक बढ़ गए। नए फंसे ऋण एक साल पहले के 39,000 करोड़ रुपये की तुलना में बढ़कर 49,000 करोड़ रुपये हो गए। अब तक उपलब्ध आंकड़े ऋण आवंटन की दर कमजोर पड़ने के संकेत दे रहे हैं।
विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) कंपनियों की कमजोर कमाई और रुपये में गिरावट से सहमे हुए हैं। अगस्त के पहले पखवाड़े में उन्होंने 210 अरब रुपये मूल्य के शेयरों की बिकवाली की जिससे 2025 में अब तक भारतीय शेयर बाजार से 1.16 लाख करोड़ रुपये रकम बाहर निकल चुकी है। विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने जुलाई में भारतीय शेयरों में अपना निवेश खासा कम कर लिया।
तो क्या जीएसटी 2.0 इस तस्वीर को बदलने की क्षमता रखता है? उपभोक्ताओं के लिए उपभोग दर कम करना कंपनियों के लिए कंपनी कर घटाने से अलग है। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) का अनुमान है कि जीएसटी दर तर्कसंगत बनाने से सालाना खपत लगभग 2 लाख करोड़ रुपये (घरेलू मांग का करीब 8 फीसदी) तक बढ़ सकती है। भारतीय अर्थव्यवस्था में उपभोग का योगदान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 60 फीसदी है, इसलिए उम्मीद की जा रही है कि घरेलू खपत बढ़ने से विनिर्माण एवं सेवाओं में तेजी आएगी जिससे आर्थिक वृद्धि को रफ्तार मिलेगी।
मगर जीएसटी दरों में कमी का तात्कालिक कारण भू-राजनीति से जुड़ा हुआ है। भारत और अमेरिका के बीच संबंध फिलहाल काफी खराब चल रहे हैं। अमेरिका ने भारत पर यूक्रेन युद्ध में रूस को परोक्ष रूप से मदद पहुंचाने का आरोप थोप दिया है। ट्रंप का कहना है कि भारत रूस से सस्ता कच्चा तेल खरीद कर उसकी मदद कर रहा है। 27 अगस्त से भारत के लगभग 50 अरब डॉलर (अमेरिका को कुल 80 अरब डॉलर सालाना निर्यात के आधे से अधिक ) मूल्य के निर्यात पर 50 फीसदी शुल्क लग चुका है। कुछ गिने-चुने आयातक ही इतना शुल्क चुका कर भारतीय सामान आयात करेंगे। जब तक भारत को निर्यात के वैकल्पिक बाजार नहीं मिल जाते तब तक निर्यात का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित हो जाएगा। उपभोग कर में कमी इसी लिहाज से अहम हो जाती है। ‘जीएसटी 2.0’ के जरिये घरेलू उपभोग बढ़ाने की बढ़ाने की कवायद को अमेरिकी शुल्कों के प्रभाव को कम करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।
मगर इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि पल-पल ख्याल बदलने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति यह आर्थिक युद्ध और तेज कर सकते हैं। वह भारत से सॉफ्टवेयर निर्यात, एच1बी वीजा और विदेशी अंतरण यानी अमेरिका से भारत भेजी जाने वाली रकम को निशाना बना सकते हैं। ये सभी भारत के भुगतान संतुलन एवं मुद्रा स्थिरता के लिए अहम समझे जाते हैं। मगर जब तक बात इस स्तर तक पहुंचेगी तक तक क्या ‘जीएसटी 2.0’ से भारतीय अर्थव्यवस्था को मदद मिल पाएगी।
यहां दिक्कत यह है कि दरों में कमी भारत की कमजोरी को दूर करने में बहुत अधिक योगदान नहीं दे पाती है। उपभोग कर में एकबारगी कमी उपभोक्ताओं को शुल्कों के झटकों से राहत पहुंचा सकती है मगर देश की आर्थिक वृद्धि की राह में बाधाओं को कम करने में नाकाम रहती है।वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने में भारत की विफलता साफ तौर पर दिख रही है। उदाहरण के लिए कपड़ा निर्यात पर विचार करते हैं। वर्ष 2010 में वैश्विक निर्यात में चीन की हिस्सेदारी 36 फीसदी थी मगर बढ़ते पारिश्रमिक के कारण 2018 तक यह कम होकर 31.3 फीसदी रह गई। वियतनाम और बांग्लादेश ने इस अवसर का लाभ उठाया और अपनी हिस्सेदारी दोगुना कर क्रमशः 6.2 फीसदी और 6.4 फीसदी कर ली। दूसरी तरफ, भारत की हिस्सेदारी 3.3 फीसदी से कम होकर 3.2 फीसदी रह गई। उस समय शुल्क कोई मुद्दा नहीं था बल्कि भारत में कारोबार करने में आने वाली बाधाओं (अफसरशाही, भ्रष्टाचार, खराब ढुलाई व्यवस्था और बेतरतीब नीतियां) के कारण कंपनियों को वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने का अवसर नहीं मिला। 2019 में कंपनी कर में कटौती आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने वाली सोच का मुजाहिरा करने के लिए हुई थी। मगर यह एक अस्थायी समाधान से अधिक साबित नहीं हुई। ‘जीएसटी 2.0’ के साथ भी यही जोखिम जुड़ा हुआ है।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक एवं मनीलाइफ फाउंडेशन के न्यासी हैं)