अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप | फाइल फोटो
बीते दो सप्ताह के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने सभी देशों के साथ कारोबारी जंग छेड़ दी। सिंगापुर जैसा देश जिसने बहुत सावधानी के साथ अपने और अमेरिका के बीच के कारोबार को संतुलित किया था, उसके साथ घाटे की भरपाई करने के लिए 10 फीसदी का टैरिफ लगा दिया गया। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि अमेरिका के साथ किसी देश का मुक्त व्यापार समझौता यानी एफटीए है या नहीं। कनाडा, मेक्सिको और दक्षिण कोरिया के साथ तो अमेरिका का एफटीए भी था। हालांकि चीन को छोड़कर अन्य देशों के विरुद्ध अगले 90 दिनों के लिए उच्च टैरिफ पर रोक लगाई गई और शुल्क को 10 फीसदी पर सीमित कर दिया गया। शेष विश्व को और भारत को ट्रंप के कदमों का जवाब किस तरह देना चाहिए़?
सबसे बेहतर प्रत्युत्तर यही होगा कि कोई प्रतिक्रिया ही न दी जाए। अमेरिकी राष्ट्रपति चाहते हैं कि विभिन्न देश उनके पास सौदेबाजी के लिए आएं। उनकी अनदेखी करने की जरूरत है। इसके बजाय दुनिया भर के मित्र देशों से बात करके ऐसे सिद्धांतों पर सहमति बनाएं जो विश्व व्यापार संगठन के सर्वाधिक तरजीही देश के दिशानिर्देशों के अनुरूप हों। साथ ही शेष विश्व के साथ व्यापार उदारीकरण की शुरुआत की जाए। अमेरिका के लिए भी इसके दरवाजे खुले रखे जाएं बशर्ते वह दिशानिर्देशों का पालन करने को तैयार हो। अमेरिका के बिना भी कारोबारी सौदा किया जा सकता है।
अमेरिका बड़ा कारोबारी देश हो सकता है लेकिन शेष विश्व का कुल कारोबार बहुत अधिक है। दुनिया के कारोबार का 90 फीसदी से अधिक अमेरिका से अप्रभावित है, बशर्ते कि हम अप्रभावित रहना चाहें। हमें तत्काल शेष विश्व के साथ व्यापार वार्ता शुरू करनी चाहिए। हमें सही समय पर अमेरिका से अपनी शर्तों पर बात करनी चाहिए। फिलहाल उसे टैरिफ लगाने दें। अमेरिका से निपटने के क्रम में जब तक विभिन्न देश आपस में नहीं उलझते यही विकल्प सही है। अगर कोई प्रतिक्रिया नहीं देता है तब ट्रंप क्या करेंगे?
बदकिस्मती से कोई भी देश ऐसा नेतृत्व मुहैया नहीं करा रहा है। सिंगापुर या भारत के प्रधानमंत्री कनाडा, यूरोपीय संघ, यूनाइटेड किंगडम, मेक्सिको, ब्राजील या जापान आदि में अपने समकक्षों से बात करें या नहीं लेकिन यह बात एकदम साफ होनी चाहिए कि ट्रंप को जवाब नहीं देना है।
अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समन्वय नहीं कायम हो पाता तो विश्व व्यापार संगठन के नियमों के तहत अलग-अलग काम करना चाहिए। जहां संभव हो टैरिफ का विरोध करना चाहिए, जहां संभव हो वहां सभी देशों के लिए अपने टैरिफ कम करने चाहिए। अगर चीन से दिक्कत हो तो मुक्त व्यापार समझौते करने चाहिए। विश्व व्यापार संगठन देशों को उन देशों के साथ टैरिफ कम करने की इजाजत देता है जिनके साथ उसका मुक्त व्यापार समझौता हो। हमें आसियान देशों, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका और संयुक्त अरब अमीरात के साथ अपने मौजूदा व्यापार समझौतों को और गहरा करना चाहिए और यूरोपीय संघ तथा यूनाइटेड किंगडम के साथ चल रही समझौता वार्ताओं को तेज करना चाहिए।
हमें प्रशांत पार साझेदारी के लिए व्यापक और प्रगतिशील समझौते में शामिल होने का आवेदन करना चाहिए क्योंकि वह काफी व्यापक और गहरा है। अगर हमें अमेरिका के साथ बातचीत करनी ही हो तो मुक्त व्यापार समझौते पर काम करना चाहिए लेकिन जल्दीबाजी नहीं दिखानी चाहिए। हमें उन देशों के साथ कारोबारी रिश्ते मजबूत करने चाहिए जो नियम से चलते हैं। उनके साथ नहीं जो दोस्तों और दुश्मनों के साथ एक जैसा बरताव करते हैं।
ट्रंप के नियमों के अनुरूप चलना सबसे बुरा विकल्प है। वह दावा करते हैं कि 70 देशों ने उनके प्रशासन से संपर्क किया है। उनके अतीत को देखते हुए उनकी बातों पर यकीन करने का कोई अर्थ नहीं है। वह चाहते हैं कि विभिन्न देश उनके पास बिल्कुल झुके हुए बातचीत के लिए तैयार होकर आएं। कमजोर लोगों को परेशान करना धमकीबाज का पारंपरिक व्यवहार होता है। इस मामले में हमें कोई गलती नहीं करनी चाहिए।
सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने अमेरिकी टैरिफ घोषणाओं को लेकर विचारपूर्ण प्रतिक्रिया दी। उन्होंने यह चेतावनी भी दी कि दुनिया संभावित विभाजन के एक खतरनाक दौर में प्रवेश कर रही है। उन्होंने हमें 1930 के दशक की याद दिलाई जब संरक्षणवाद का प्रतिरोध हुआ था और आर्थिक अफरातफरी का माहौल बन गया था जिसकी परिणति जंग के रूप में सामने आई। लॉरेंस वॉन्ग का भाषण काफी लोकप्रिय हो चुका है। उनकी चेतावनी एकदम सही है। दुनिया अमेरिकी टैरिफ को लेकर जो प्रतिक्रिया देगी वह केवल व्यापार को ही प्रभावित नहीं करेगा। अगर अधिकांश प्रमुख देश अधिक सहयोग दिखाएं, लोगों के आवागमन को आसान बनाएं, संरक्षण कम करें और मौजूदा बहुपक्षीय संस्थाओं के लिए मजबूत समर्थन जुटाएं तो हम हालात को सकारात्मक बना सकते हैं। अगर विभिन्न देश स्वार्थी नीतियां अपनाते रहे और अपने बारे में ही सोचते रहे तो इससे उनकी ही संभावनाओं पर असर पड़ेगा। अमेरिकी शेयर बाजार, बॉन्ड बाजार की हालत इसका उदाहरण हैं। शेष विश्व भी इसकी कीमत चुका रहा है।
एक अन्य परेशान करने वाला पहलू है। बीते 12 सप्ताह में हमने जो भाषण, दावे और कदम देखे सुने हैं वे सार्वजनिक जीवन में मानकों के महत्त्व के बारे में बहुत कुछ कहती हैं, कि राष्ट्र एक दूसरे के साथ कैसे पेश आते हैं, एक दूसरे से कैसे बात करते हैं और एक दूसरे से कैसे संबंध रखते हैं। अगर कोई भारतीय नेता कहता कि बांग्लादेश को भारत का 29वां राज्य होना चाहिए तो क्या होता? या कहता कि न्यूजीलैंड हमारे पास होना चाहिए क्योंकि हमें उसकी जरूरत है, तो ? अगर हम ऐसा कुछ करते तो शेष विश्व हमारी अनदेखी कर देता। अमेरिका के साथ भी यही होना चाहिए।
आखिरी बात, मैंने काफी लंबा समय अमेरिका में पढ़ते-पढ़ाते हुए बिताया है। ऐसे में हमें किसी देश की सरकार और जनता के बीच भेद करना चाहिए। कोई देश अपनी सरकार के समान ही नहीं होता। मेरे कई अमेरिकी दोस्त हैं जो अपने राष्ट्रपति की बातों और कदमों से हमसे कहीं अधिक भयाक्रांत हैं। कैलिफोर्निया अगर एक देश होता तो दुनिया की चौथा सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होता। उसके गवर्नर ने कहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति उसके प्रतिनिधि के रूप में नहीं बोल रहे हैं।
हमें खुद को याद दिलाना चाहिए कि अमेरिका दशकों तक हमें नैतिक बल प्रदान करता रहा है और हमने इसकी सराहना भी की है। उदारता की भावना और अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के निबाह की इच्छा ने उस नैतिक अधिकार को बल दिया। अमेरिका का मौजूदा प्रशासन जहां जानबूझकर दशकों के नैतिक नेतृत्व को ठुकरा रहा है वहीं हमें खुद को यह याद दिलाना चाहिए कि अमेरिकी नागरिक नहीं बदले हैं, भले ही अमेरिका की सरकार बदल गई है। अगर हम लॉरेंस वॉन्ग की चेतावनी सुनें तो हमें 1930 के दशक को दोहराने की जरूरत नहीं है। हम आज समन्वय, निष्पक्षता, साझा सम्मान और राष्ट्रीय भावनाओं के सम्मान के रूप में जो चुनेंगे वहीं भविष्य की परिस्थितियां निर्धारित करेगा। सभी देशों के लिए साझा सामृद्धि हासिल करने का प्रयास ही सबसे बेहतरीन रास्ता
(लेखक फोर्ब्स मार्शल के को-चेयरमैन हैं और सीआईआई के अध्यक्ष रह चुके हैं)