प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस वर्ष अपने कई संबोधनों में विदेशी निवेशकों को चीन के समक्ष भारत को एक वैकल्पिक निवेश केंद्र के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उन्होंने निवेशकों से कहा कि यह भारत में निवेश करने का सबसे अच्छा समय है।
विदेशी निवेशकों ने उनकी इस बात पर उत्साहजनक प्रतिक्रिया दी। मोदी ने कहा कि भारत ने इस वर्ष अप्रैल से जुलाई के बीच 20 अरब डॉलर मूल्य का विदेशी निवेश आकर्षित किया है। यह किसी भी मानक से अत्यंत उल्लेखनीय है।
एक ऐसे वर्ष में जब वैश्विक अर्थव्यवस्था कोविड-19 महामारी के कारण तेजी से कमजोर पड़ी है और भारत किसी भी अन्य उभरते बाजार की तुलना में इससे अधिक प्रभावित हुआ है, ऐसे में यह प्रदर्शन वाकई उल्लेखनीय है। 20 अरब डॉलर का आंकड़ा वित्त वर्ष 2020 के 73.5 अरब डॉलर के 27 फीसदी के बराबर है जो अपने आप में चमत्कृत करने वाला है।
सरकार ने इस उपलब्धि का जश्न भी मनाया क्योंकि यह 2018-19 के आंकड़े से 18 फीसदी की महत्त्वपूर्ण बढ़त दर्शा रहा था। वाणिज्य मंत्रालय की ओर से अभी पहली तिमाही के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के आंकड़े आने शेष हैं। यानी इन ताजातरीन आंकड़ों की सच्चाई अभी स्थापित होनी बाकी है। प्रथम दृष्टया देखें तो यह संभव है कि अप्रैल-जुलाई के आंकड़ों में यह तेजी आई हो क्योंकि इस दौरान रिलायंस इंडस्ट्रीज ने अपनी दूरसंचार और मनोरंजन क्षेत्र की अनुषंगी कंपनी जियो प्लेटफॉम्र्स में काफी निवेश आकर्षित किया।
यदि ऐसा है तो एफडीआई में आई इस तेजी को भारत में वैश्विक भरोसे के रूप में नहीं देखा जा सकता है। बल्कि यह इस बात को दर्शाता है कि वैश्विक निवेशक समुदाय को पता है कि भारतीय आर्थिक और कारोबारी परिदृश्य में रिलायंस इंडस्ट्रीज की हैसियत कितनी मजबूत है। बीते कुछ वर्षों से घरेलू कारोबारियों ने किसी भारतीय उपक्रम में निवेश करने की इच्छा नहीं दर्शाई है। मंत्रालयों की ओर से तमाम आह्वान के बावजूद ऐसा हुआ है। ऐसे में एफडीआई सत्ताधारी दल के लिए एक हद तक प्रतिष्ठा बचाने का कारण बना रहा। बहुसंख्यक शैली के ध्रुवीकरण वाले शासन और अर्थव्यवस्था के खराब प्रबंधन के कारण सरकार को न केवल देश के भीतर बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारी आलोचना का सामना करना पड़ा है। ऐसे में एफडीआई को सत्ताधारी दल के ऐसे प्रचार के रूप में देखा जाता रहा है जो विचारधारा से संचालित नहीं है। यह एक सीमा तक सही अनुमान हो सकता है क्योंकि वैश्विक पूंजी अपनी प्रकृति में अनैतिक होती है। परंतु यह भी सही है कि पिछले वर्ष तक एफडीआई की वृद्धि दर भी अत्यंत कमजोर थी। वित्त वर्ष 2015 और 2016 में 25 और 23 फीसदी की वृद्धि दर हासिल करने के बाद जब देश के ‘सीईओ’ प्रधानमंत्री शिखर बैठकों को संबोधित कर रहे थे और एक के बाद एक बड़ी निवेश परियोजनाओं (मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया वगैरह) की शुरुआत कर रहे थे तब वित्त वर्ष 2017, 2018 और 2019 में एफडीआई की वृद्धि दर क्रमश: आठ, एक और दो फीसदी थी। इस दौरान मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी की समय सीमा को पहले करने और गोवध पर प्रतिबंध लगाने जैसे कदम उठाए जिनका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा। वाणिज्य मंत्री को वित्त वर्ष 2020 में एफडीआई में 13 फीसदी के इजाफे पर काफी गौरव हो रहा है लेकिन वह निवेश भी एकतरफा था क्योंकि एमेजॉन ने अपनी भारतीय अनुषंगी में निवेश किया था और सेवा, आईटी तथा दूरसंचार आदि क्षेत्रों में काम कर रही स्टार्ट अप में कुल फंड आवक का करीब एक तिहाई हिस्सा पहुंचा।
यह रुझान बताता है कि देश की उद्यमिता में निवेशकों का भरोसा बरकरार है। खासतौर पर स्टार्ट अप जगत पर भरोसा। इसके अलावा भारतीय मध्य वर्ग की क्रय शक्ति पर भी यकीन बरकरार है। एमेजॉन और वॉलमार्ट इसके उदाहरण हैं। परंतु यह मामला भारत पर भरोसे से अलग है। हमें इसका सामना करना ही होगा। भारत हमेशा से ऐसा निवेश चाहता था जिसकी बदौलत बड़े विनिर्माण कारोबार उद्यम स्थापित हों और लाखों की तादाद में रोजगार तैयार हों जिससे देश आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर सके। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो भारत लंबे समय से चीन जैसा बनने की आकांक्षा पालता रहा है वह भी एकदम भारतीय खासियत के साथ। भारत में कारोबारी भरोसे का वह गुण पैदा करना आसान नहीं है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ‘चीनी गुणधर्म वाले समाजवाद’ में दो दशक तक बिना किसी सवाल के भरोसा किया और बमुश्किल ही कभी उनका भरोसा डगमगाया। परंतु भारतीय गुणधर्म निवेशकों को असहज करने वाले हैं। उदाहरण के लिए टोयोटा ने गत सप्ताह शिकायत की थी कि कर बहुत ज्यादा हैं। टोयोटा सन 1997 से भारत में है और उसने हाल ही में कहा कि वह भारत में अपनी विस्तार योजनाओं को विराम दे रही है क्योंकि भारतीय नीति निर्माता ‘लक्जरी कारों’ पर बहुत अधिक शुल्क लगा रहे हैं। ऐसी ही वजहों से जनरल मोटर्स ने 2017 में भारत से अपना कारोबार समेट लिया था और फोर्ड ने भारत में कार बेचने को लेकर दो दशक के संघर्ष के बाद अपनी परिसंपत्तियां महिंद्रा ऐंड महिंद्रा के साथ संयुक्त उपक्रम में शुरू कर दी हैं जो दरअसल बाजार से निकलने का ही एक तरीका है।
सच तो यह है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेशक चुनिंदा भारतीय उद्यमियों पर यकीन करते हैं लेकिन सरकार पर नहीं। भारत में कारोबार करने के लिए जमीन, श्रम और पूंजी जुटाने की समस्याएं ढांचागत स्वरूप ले चुकी हैं और इनसे सब वाकिफ हैं परंतु नीतिगत माहौल बदलने से इन समस्याओं में और अधिक इजाफा हो जाता है। अतीत की तारीख से लगने वाले कर से लेकर ई-कॉमर्स तथा दूरसंचार क्षेत्र में सबके लिए समान कारोबारी परिस्थितियां न होना इसके उदाहरण हैं। केवल भारतीय गुणधर्म वाले उद्यमियों में यह काबिलियत है कि वे इन नीतिगत विचित्रताओं से निपट सकें। विदेशी निवेशकों को भी इस बात पर भरोसा है।
