सरकार के आरंभिक अनुमानों के मुताबिक इस वर्ष खरीफ सत्र में अन्न उत्पादन फिर नया रिकॉर्ड बनाएगा। उच्च उत्पादन से खेती में लगे परिवारों की आय में सुधार होना चाहिए लेकिन बाजार की हकीकत कुछ ऐसी है कि प्रचुर उत्पादन के बाद भी किसानों की आय में कोई खास सुधार नहीं होता। इससे निराशा उत्पन्न होती है और शायह यह भी एक कारण है कि तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का विरोध इतना लंबा खिंच रहा है। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों के किसान तीनों कृषि कानूनों को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं। वे गारंटीशुदा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की भी मांग कर रहे हैं। सरकार ने स्पष्ट कहा है कि खाद्यान्न की सरकारी खरीद जारी रहेगी लेकिन विरोध कर रहे किसान समूह निजी मंडियों तथा कई अन्य बातों के खिलाफ हैं।
हालांकि कृषि कानूनों को वापस लेने या चुनिंदा फसलों पर एमएसपी की गारंटी से ज्यादातर किसानों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आएगा। व्यापक तौर पर ऐसा इसलिए होगा क्योंकि ज्यादातर किसान इतनी फसल नहीं उपजाते कि उनकी आजीविका चल सके। जाहिर है यह स्थिति ठीक नहीं है और इससे सामाजिक और राजनीतिक तनाव बढ़ सकता है। ऐसे में सरकार को कृषि क्षेत्र पर अधिक समग्रता से विचार करना होगा। हरीश दामोदरन और समृद्धि अग्रवाल द्वारा किया गया एक हालिया अध्ययन इस संदर्भ में उपयोगी हो सकता है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की 2018-19 में कृषि से जुड़े परिवारों के आकलन संबंधी रिपोर्ट पर आधारित अध्ययन में उन परिवारों की संख्या का अनुमान लगाया गया जो कृषि से होने वाली आय पर निर्भर हैं। अध्ययन में नियमित या पूर्णकालिक किसानों को ऐसे परिवार माना गया जो अपनी कुल आय का कम से कम 50 फीसदी खेती से अर्जित करते हैं। कहा गया कि अपनी आय का अहम हिस्सा खेती से अर्जित करने वाले किसानों की तादाद महज लगभग चार करोड़ है। आधिकारिक आंकड़े संकेत देते हैं कि यह तादाद नौ करोड़ से 15 करोड़ के बीच हो सकती है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि या पीएम-किसान योजना के तहत करीब 11 करोड़ किसानों को वित्तीय लाभ मिल रहा है।
इसके अलावा आंकड़े बताते हैं कि कृषि आय पर 50 फीसदी निर्भरता तभी संभव है जब किसान का रकबा 2.5 एकड़ से अधिक हो। ज्यादातर परिवारों के पास इतनी जमीन नहीं है और उन्हें सरकारी खरीद या सब्सिडी का ज्यादा लाभ नहीं मिलता। सरकार को अपनी नीतियों की समीक्षा करनी चाहिए और अलग-अलग समूहों को अलग-अलग तरह से समर्थन देना चाहिए। सबसे पहले सरकार को उन किसानों की तादाद निश्चित करनी चाहिए जिन्हें मदद की जरूरत है। इस संदर्भ में पीएम-किसान योजना के तहत सभी किसानों को समान राशि देने के बजाय हस्तांतरण को किसानों के रकबे से जोड़ा जा सकता है। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि कृषि योजनाओं से कृषि श्रमिकों को फायदा नहीं मिलता। सरकार को इसके लिए व्यवस्था बनानी चाहिए। उदाहरण के लिए ओडिशा में कृषि श्रमिकों को सहायता दी जाती है। इसका अध्ययन कर इसे बाकी देश में लागू किया जा सकता है। चूंकि बड़ी तादाद में किसान अपनी अधिकांश आय अन्य माध्यमों से हासिल करते हैं इसलिए ग्रामीण इलाकों में कारोबारी सुगमता में सुधार से रोजगार बढ़ाने में मदद मिलेगी।
हमारे नीतिगत प्रतिष्ठान दशकों से मजबूत विनिर्माण आधार बनाने में नाकाम रहे हैं। ऐसे में रोजगार के अवसर भी कम हैं और कृषि से अधिशेष श्रमिक भी दूसरे काम में नहीं लग पाते। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक कृषि क्षेत्र के संकट को दूर करना मुश्किल होगा। ताजा रोजगार सर्वेक्षण बताता है कि कृषि श्रमिकों की तादाद बढ़ी है। हालांकि ऐसा मोटे तौर पर महामारी की वजह से हुआ है लेकिन इससे आय में और कमी आई होगी। कुल मिलाकर सरकार को जहां कृषि क्षेत्र में हस्तक्षेप का तरीका बदलने की जरूरत है, वहीं समस्या का हल तेज औद्योगीकरण में निहित है।