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द्वैत दृष्टिकोण की नाकामी और बदलती दुनिया

अपने बताए रास्ते को ही सही मानने का पश्चिमी मानक अब कारगर नहीं रह गया है। वक्त आ गया है कि जटिलताओं और विरोधाभासों को मानक के रूप में स्वीकार किया जाए। बता रहे हैं आर जगन्नाथन

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- March 08, 2024 | 10:23 PM IST

दुनिया अब ऐसे युग में प्रवेश कर रही है जहां वे बातें कारगर साबित नहीं होंगी जिन्हें महज कुछ दशक पहले तक हम हल्के में लेते थे। हर जगह लोकतंत्र खतरे में नजर आ रहा है और इसकी परिभाषा भी कुलीनों की सहमति पर आधारित है। माना जाता है कि हिंसा और शक्ति पर सरकार का एकाधिकार है लेकिन गैर राज्य कारक, एकल अभियान चलाने वाले और विशिष्ट रुचि रखने वाले आबादी में अपने अनुपात से कहीं अधिक शक्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं।

कई देशों में कानून के शासन का उल्लंघन हो रहा है। अब मुंह देखे ढंग से ताकत का इस्तेमाल हो रहा है। वाक् स्वतंत्रता का अर्थ अब विचार या अभिव्यक्ति की आजादी नहीं रह गया है। संकीर्ण स्वार्थ वाले समूह तय कर रहे हैं कि कौन बोलेगा और कौन नहीं।

उपरोक्त वक्तव्य के समर्थन में देश और विदेश में कई प्रमाण मिल जाएंगे। किसानों के एक छोटे से हिस्से ने भारत सरकार को कृषि सुधार संबंधी कानून वापस लेने पर विवश कर दिया। एक अन्य घटना में एक धार्मिक समुदाय ने सरकार को सरकार को ऐसा कानून लागू करने से रोक दिया जो तीन पड़ोसी देशों के पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करने से संबंधित था। डेनमार्क जो एक समय अभिव्यक्ति की आजादी का गढ़ था, उसने इस्लामिक ताकतों के दबाव में ईशनिंदा विरोधी कानून लागू किया।

सैन्य-औद्योगिक जटिलता और समझौतावादी शिक्षाविदों ने अमेरिका को दो युद्धों के समर्थन की ओर धकेल दिया जिनमें से एक यूक्रेन में और दूसरा पश्चिम एशिया में चल रहा है। इन युद्धों में अप्रत्यक्ष रूप से इतने देश शामिल हैं जितने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कभी नहीं हुए। केवल एक राजनीतिक गणना की चूक से तीसरा विश्वयुद्ध शुरू हो सकता है। दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अपनी सीमाओं पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है और वहां हर तरफ से प्रवासी पहुंच रहे हैं। अवैध प्रवासी शब्द चलन से बाहर हो रहा है और अवैध रूप से आने वालों को नवागंतुक कहा जा रहा है।

इन हालात के पीछे कई कारण हैं। किसी विषय पर सहमति नहीं है लेकिन मेरा मानना है कि पश्चिम का चीजों को द्वैत में देखने का तरीका लोगों को हालात के बारे में आर या पार का रुख रखने पर विवश कर रहा है। अब्राहमिक द्वैत कहता है कि केवल एक ही ईश्वर हो सकता है बाकी सभी ईश्वर झूठे हैं, सिर्फ हमारा रास्ता ही सही है और आप हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ।

यह विचार अब अपनी उम्र पूरी कर चुका है। यह द्वैत सामान्य लोगों के लिए चुनाव को आसान बनाने के लिए तैयार किया गया था लेकिन यह अपनी अवधि पूरी कर चुका है। दुनिया बहुत जटिल और विविधता से भरी हुई है और उसे केवल सही-गलत अथवा हम बनाम वे में नहीं आंका जा सकता है।

जरा देखिए ऐसी बातों ने हमें कहां पहुंचा दिया। अगर हम हरित ऊर्जा पर अत्यधिक ध्यान देने पर शुबहा करें तो हमें जलवायु परिवर्तन को नकारने वाला ठहरा दिया जाता है। छोटे समूह ऐसी प्राथमिकताओं पर निर्णय लेते हैं जिन्हें हम सभी को अपनाना होता है। अमेरिका और यूरोप में ईएसजी यानी पर्यावरण, सामाजिक और संचालन तथा डीईआई यानी विविधता, समता और समावेशन जैसे मानकों को लेकर अनिर्वाचित कंपनियों और अफसरशाही द्वारा जोर दिया जा रहा है।

वे किसी को इनकी प्रासंगिकता पर सवाल नहीं करने देंगे। सही सोच वाला कोई व्यक्ति पर्यावरण और सामाजिक समावेशन की हिमायत के महत्त्व को नहीं समझता हो लेकिन क्या हमें पर्यावरण और विविधता को लेकर इतनी चिंता करनी चाहिए जबकि इसका परिणाम गरीब इलाकों में लोगों को वृद्धि के लिए ऊर्जा अनुपलब्ध कराने के रूप में सामने आए। जब सांस्कृतिक मार्क्सवादियों ने हर किसी को शोषणकर्ता और शोषित में बांट दिया है तो हम जानते हैं हम भी द्वैत के इस तर्क की सीमा पर पहुंच चुके हैं।

राज्य की शक्ति भी दिक्कतदेह हो गई है क्योंकि इसमें मजबूत भी आई है और कमजोरी भी। आज कोई भी संगठित हितों वाला समूह राज्य को बाधित कर सकता है लेकिन वह इन्हीं शक्तियों के साथ मिलकर असीमित शक्ति का उपभोग भी कर सकता है। अमेरिका ताकतवर है क्योंकि वहां उदार अकादमिक जगत और बड़ी प्रौद्यागिक कंपनियों का दबदबा है। इन दोनों के अपने-अपने एजेंडे हैं।

चीन इसलिए ताकतवर है क्योंकि वहां कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है। पाकिस्तानी राज्य को सेना का भरोसा है। भारत में राज्य की शक्ति को मजबूत जाति, क्षेत्रीयता और धार्मिक समूहों का समर्थन है जिसमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों शामिल हैं। कहीं भी राज्य की शक्ति निरपेक्ष नहीं है।

हम इससे कैसे निजात पाएं? एक जवाब तो यही है कि हर देश को यह तय करने दिया जाए कि वह उसके लिए बेहतर व्यवस्था क्या है। दूसरा है भारत के बहुलता के विचार को अपनाना। एक सच हो सकता है, लेकिन जटिल सत्यों को दबाना कठिन होता है। अलग-अलग लोग इसे लेकर अलग-अलग राय बना सकते हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि दुनिया जटिल है। हमें यह सोचना रोकना होगा कि कोई एक हल या नजरिया सबके लिए कारगर होगा।

हमें एक समस्या के हल के लिए कई तरह के हलों को लेकर काम करना होगा और समय ही बताएगा कि कौन सा बेहतर काम करता है। ऐसी दुनिया में जहां आर्टिफिशल इंटेलिजेंस और मजबूत हित विचारों और ताकत को अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित कर सकते हैं, वहीं हमें सरकार की सबसे निचली संभव शाखा को शक्ति संपन्न बनाना होगा यानी स्थानीय निकायों को। अगर लोग अपने लिए सही गलत का निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हों तो केवल मताधिकार से लोकतंत्र को कोई सहायता नहीं मिलती।

हमें यह विचार त्यागना होगा शक्ति पर राज्यों का एकाधिकार होना चाहिए, क्योंकि एकाधिकार में भ्रष्टाचार की गुंजाइश रहती है। इसका अर्थ यह है कि राज्य की शक्ति सामुदायिक समूहों के माध्यम से संतुलित की जानी चाहिए। अगर सबकुछ राज्य के हवाले छोड़ दिया जाएगा तो हमें राज्य के अत्याचारों का सामना करना पड़ेगा और अंतत: शक्तिशाली समूह राज्य में घुसपैठ करके विधि व्यवस्था को क्षति पहुंचाएंगे। राज्य की शक्ति को अन्य समूहों के साथ उचित तरीके से साझा किया जाना चाहिए ताकि लोगों का अलग-थलग होना या उनके असामाजिक आचरण पर रोक लगाई जा सके।

जहां तक जटिलता की बात है तो राज्य शक्ति की कई शक्तियों में साझेदारी और सामाजिक लक्ष्यों की बहुस्तरीयता ऐसी नई हकीकतें हैं जिन्हें हमें स्वीकार करना होगा। सार्वभौमिकता का अर्थ प्रगति के किसी एक विचार को मानना नहीं है बल्कि अलग-अलग गति से प्रगति के अलग-अलग स्वरूपों को चिह्नित करना है। इसके लिए पूर्व की बुद्धिमता की आवश्यकता होगी जिसकी प्रकृति में द्वैत नहीं है। इसकी मदद से ही हम आगे बढ़ सकते हैं।

अमेरिका यह समझने में संघर्ष कर रहा है कि हम उसके साथ साझेदारी में रहते हुए भी रूस का समर्थन क्यों कर रहे हैं। हम इस बात को समझते हैं। अनेक प्रकार की वास्तविकताओं और विरोधाभासी विचारों को एक साथ रखने का भारतीय नजरिया ही शांति और प्रगति की दिशा में आगे ले जाने वाला है। द्वैत का तर्क हकीकत से दूर है।

(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)

First Published : March 8, 2024 | 10:23 PM IST