ऐसा लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अप्रैल-मई में कोविड की दूसरी लहर के जबरदस्त आघात से बड़ी तेजी से उबर रही है। यह सुधार पहली लहर के समय के सुधार से कहीं ज्यादा तेजी से आया है। अप्रैल 2020 के उलट अप्रैल-मई 2021 में बिजली उत्पादन एवं खपत में ज्यादा गिरावट नहीं आई थी और जुलाई 2021 में तो इसमें खासी तेजी भी देखने को मिली है। जुलाई में श्रम भागीदारी दर दूसरी लहर आने से पहले के मार्च 2021 के स्तर पर जा पहुंच गई। बेरोजगारी दर हालांकि मार्च 2021 के 6.5 फीसदी के स्तर से थोड़ी ज्यादा है लेकिन यह मई में 11.9 फीसदी की ऊंचाई तक पहुंचने के बाद जुलाई में 7 फीसदी के स्तर पर आ गई। नोमुरा कारोबार बहाली सूचकांक मार्च 2021 के करीब 94 फीसदी से गिरकर मई अंत तक 60 फीसदी पर आ गया था लेकिन 25 जुलाई को यह सुधरकर मार्च के स्तर को भी पार कर गया।
उपभोक्ता धारणाएं एक के बाद एक सुधरती गईं। उपभोक्ता धारणा सूचकांक ने दूसरी लहर की वजह से आई गिरावट की भरपाई काफी हद तक जुलाई महीने में ही कर ली। दूसरी लहर में मार्च-जून के दौरान उपभोक्ता धारणा में 15.4 फीसदी तक की भारी गिरावट आ गई थी। लेकिन जुलाई 2021 में यह धारणा तेजी से सुधरी और 10.7 फीसदी की वृद्धि देखी गई। यह सुधार अब भी अधूरा है लेकिन केवल एक महीने में इतनी प्रगति होना बेहद प्रभावी है।
यह तीव्र सुधार इस लिहाज से दिलचस्प है कि 2020 के कोविड आघात से उबरने के लिहाज से उपभोक्ता धारणा में काफी सुस्त प्रगति देखी गई थी।
पहली लहर के समय परिवार अधिकांश आर्थिक संकेतकों में दिख रहे वी-आकृति के सुधारों से ज्यादा प्रभावित नहीं थे। मार्च एवं जून 2020 के बीच उपभोक्ता धारणा में 55 फीसदी की भारी गिरावट दर्ज की गई थी। जून 2020 के बाद मार्च 2021 तक के नौ महीनों में भी इस धारणा में सिर्फ 30 फीसदी का ही सुधार देखने को मिला था। इस तरह दूसरी लहर आने के ठीक पहले उपभोक्ता धारणा मार्च 2020 में महामारी की पहली लहर आने के समय के स्तर से भी 41.6 फीसदी नीचे थी। भारतीय रिजर्व बैंक का उपभोक्ता विश्वास सर्वे भी हमें कुछ ऐसी ही स्थिति बयां करता है। इसका परिवारों का वर्तमान स्थिति सूचकांक मार्च 2021 में एक साल पहले की तुलना में 38 फीसदी कम था। दूसरी लहर ने इस धीमी रिकवरी को भी करीब तीन महीने तक रोक दिया।
उपभोक्ता धारणा में जुलाई में आया सुधार न केवल अच्छा-खासा है बल्कि इसका प्रसार भी ग्रामीण एवं शहरी इलाकों में समान और सशक्त है। यह मौजूदा हालात में आए सुधार के साथ ही भविष्य को लेकर लोगों की धारणा में आए सुधार को भी दर्शाता है। उपभोक्ता धारणाओं में आया सुधार उपभोक्ता धारणा के लगभग सारे अवयवों में आए सुधार को भी दर्शाता है।
शहरी भारत में उपभोक्ता धारणा में 12 फीसदी की अच्छी प्रगति देखी गई है और ग्रामीण भारत में भी यह 11 फीसदी सुधरी है। वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों में दोनों ही क्षेत्रों की वृद्धि काफी अच्छी रही है। यह एक साल पहले की तुलना में परिवार की मौजूदा आय और टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों की खरीद की मंशा के मोर्चों पर आए सुधार को भी दर्शाता है।
भले ही इन दोनों मोर्चों पर सुधार आया है लेकिन मौजूदा निरपेक्ष स्तर अब भी काफी खराब है। जुलाई 2021 में शहरी क्षेत्रों के सिर्फ 6 फीसदी परिवारों ने ही एक साल पहले की तुलना में आय बढऩे की बात कही। जून 2021 में तो यह अनुपात सिर्फ 4 फीसदी था। इसी तरह शहरी भारत के महज 4 फीसदी परिवारों ने ही जुलाई में टिकाऊ उपभोक्ता खरीदने की मंशा जताई जबकि जून 2021 में यह आंकड़ा सिर्फ 2 फीसदी पर था।
ग्रामीण भारत में ये दोनों अनुपात और भी निचले स्तर पर हैं। वहां के सिर्फ 4.5 फीसदी परिवारों ने ही जुलाई में कहा कि एक साल पहले की तुलना में उनकी आमदनी बढ़ी है। इसके अलावा ग्रामीण परिवारों के सिर्फ 2.7 फीसदी हिस्से ने टिकाऊ उत्पाद खरीदने के लिए जुलाई को बेहतर वक्त माना।
साफ है कि आमदनी बढऩे का दावा करने वाले परिवारों के अनुपात में वृद्धि परिवारों की खुशहाली के लिहाज से निरंतर रिकवरी में भरोसा जगाने के लिए काफी नहीं है। खुद परिवार भी इस बारे में संकोच दिखा रहे हैं। जहां मौजूदा आर्थिक हालात का सूचकांक 13.7 फीसदी बढ़ा है, वहीं उपभोक्ता प्रत्याशा सूचकांक में 9.2 फीसदी की ही बढ़ोतरी हुई है। ये वृद्धि दर इस लिहाज से सीमित उपयोग की है कि आधार ही काफी कम था। सूचकांकों में शामिल कुछ घटक एक तरह के गतिरोध की ओर भी इशारा कर रहे हैं। मसलन, अगले एक साल में आमदनी बढऩे की उम्मीद करने वाले शहरी परिवारों का अनुपात जुलाई में घटकर 4 फीसदी पर आ गया जबकि एक महीने पहले यह 5 फीसदी था। इसका मतलब है कि भविष्य को लेकर कम शहरी परिवार ही ज्यादा आशान्वित हैं। उनमें से आधे से ज्यादा का मानना है कि उनकी आय एक साल बाद भी मौजूदा स्तर पर ही बनी रहेगी। आरबीआई के सर्वेक्षणों से हमें मालूम है कि एक साल बाद की माध्य मुद्रास्फीति प्रत्याशा 11 फीसदी है। ऐसी स्थिति में अधिकांश शहरी परिवारों को अगले 12 महीनों में अपनी वास्तविक आय कम होती हुई दिख रही है। इसका असर परिवारों की खर्च की संभावनाओं पर पड़ सकता है। मौजूदा आमदनी सुधरने से भविष्य की अपेक्षाओं में कोई सुधार नहीं आया है। कम शहरी परिवारों को ही लगता है कि अगले एक साल में उनकी आमदनी बढ़ेगी। शहरी परिवारों में फैली यह निराशा भारत में मजबूत आर्थिक रिकवरी को रोके हुए है।
जुलाई में कुल उपभोक्ता धारणा सूचकांक 53 पर रहने के बावजूद फरवरी 2020 के 105.3 की तुलना में करीब आधा ही है। इसका मतलब है कि उपभोक्ता धारणा पूरी तरह सुधरने के लिए लंबा सफर तय करना है।