पुराने हो चुके भारतीय वन अधिनियम में संशोधन काफी समय से लंबित थे, खासतौर पर सन 1996 के बाद से जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश के जरिये वनों तथा उनके संचालन की अवधारणा की बुनियाद को ही बदल दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि कोई भी हरित क्षेत्र ‘वन’ शब्द को चरितार्थ करता हो उसे वन माना जाना चाहिए और उसका उसी अनुसार रखरखाव होना चाहिए। इसके साथ ही ज्यादातर हराभरा भूभाग वन मान लिया गया, भले ही उसका स्वामित्व किसी के पास हो। ऐसे में उस जमीन के किसी भी तरह के इस्तेमाल के पहले वन अधिकारियों की मंजूरी जरूरी हो गई। रेलवे तथा सड़क जैसे सार्वजनिक विभागों को भी उस स्थिति में वन विभाग से इजाजत लेनी जरूरी हो गई जब उनकी खाली पड़ी जमीन में पेड़ पौधे उग आए हों। सीमावर्ती इलाकों में रणनीतिक रूप से अहम परियोजनाओं को भी इस समय खपाऊ प्रक्रिया से गुजरना पड़ता और आवश्यक मंजूरी लेनी पड़ती।
ऐसे में वन मंत्रालय ने मौजूदा वन कानून में संशोधन की प्रक्रिया शुरू करके अच्छा काम किया। हालांकि यह कवायद लंबी खिंच रही है। सन 2017 और 2019 में ऐसे दो प्रयास विफल रहे क्योंकि प्रस्तावित बदलावों को लेकर आम जनता की प्रतिक्रिया अनुकूल नहीं थी। अब पर्यावरण मंत्रालय एक नए और व्यापक संशोधन वाले नोट के साथ आगे आया है जिस पर विचार किया जाना चाहिए। इसे हाल ही में सार्वजनिक किया गया है ताकि विशिष्ट अंशधारक तथा राज्य सरकारें इसे लेकर अपनी प्रतिक्रिया दे सकें। इस नए पाठ में पिछले मसौदों के कई विवादित प्रावधानों को हटा दिया गया है तथा आवश्यक बदलावों के साथ यह इस कानून में बदलाव का आधार तैयार करता है। विवादों की तादाद कम करने के लिए इसमें जहां छोटे मोटे अपराधों के लिए दंड समाप्त करने की बात है, वहीं बड़े अपराधों के लिए अपेक्षाकृत भारी भरकम जुर्माने तथा वन संरक्षण के लिए कड़े मानकों की बात कही गई है। इससे भी अहम बात यह है कि इसमें ‘प्राचीन जंगल’ की नई अवधारणा शामिल की गई है। यह वह इलाका होगा जहां किसी भी हालत में किसी तरह की गैर कृषि गतिविधि की इजाजत नहीं दी जाएगी। तेल एवं प्राकृतिक गैस खनन की इजाजत भी तभी होगी जब इसके लिए वन भूमि से बाहर जमीन में छिद्र किया जाए और इस दौरान भूमिगत जल स्रोतों को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया जाए। हालांकि यह प्रावधान विवादास्पद हो सकता है क्योंकि इस तकनीक की व्यवहार्यता को लेकर विशेषज्ञों में मतभेद है।
दूसरी ओर, नए मसौदे में वन क्षेत्र को लेकर कुछ अहम और जरूरत आधारित सुधारों को शामिल करने की बात कही गई है। ये सुधार निजी भूमि पर भी वानिकी गतिविधियों का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। इनके मुताबिक निजी भूमि पर फसल उगाने, उसे लाने ले जाने और उसका कारोबार करने की राह में आने वाली अधिकांश बाधाओं को दूर किया जाना है। परंतु इसके साथ ही नए मसौदे में कृषि वानिकी पर जोर नहीं दिया गया है जबकि इसमें ग्रामीण इलाकों में हरित क्षेत्र का विस्तार करने तथा किसानों के लिए अतिरिक्त आय उत्पन्न करने की काफी संभावना है। निजी भूमि पर पौधरोपण और कृषि को बढ़ावा देना अब अनिवार्य हो गया है क्योंकि सरकार और समुदाय के स्तर पर नए वन तैयार करने के लिए जमीन का अभाव है। 33 फीसदी हिस्से को वनाच्छादित बनाने तथा जलवायु परिवर्तन के पेरिस समझौते में स्वयं के लिए तय 2.5 से 3 अरब टन क्षमता की कार्बन डाई ऑक्साइड कार्बन सिंक (वह व्यवस्था जहां उत्सर्जन से अधिक कार्बन खपत होती है) करने के लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी अहम है। हमें वनों के विस्तार, पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास में संतुलन कायम करना होगा। इसके लिए निजी और सार्वजनिक का तालमेल आवश्यक है।
