पानी का धीरे-धीरे होने वाला रिसाव जैसे बाढ़ में तब्दील होने के खतरे का संकेत देता है, कुछ वैसी ही हालत इस वक्त तृणमूल कांग्रेस की हो रही है। शुभेंदु अधिकारी के तृणमूल से अलग होने के बाद पार्टी के कई महत्त्वपूर्ण नेता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो रहे हैं। तृणमूल की नेता और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए यह चिंताजनक बात है क्योंकि शनिवार को तृणमूल के पांच मौजूदा विधायक और एक सांसद भाजपा में शामिल हो गए। पश्चिम बंगाल में हाल तक भाजपा की नाम मात्र की उपस्थिति थी। विधानसभा चुनाव होने में अब बमुश्किल पांच महीने का वक्त है, ऐसे में हमें क्या उम्मीद करनी चाहिए? क्या भाजपा ममता को सत्ता से बाहर कर सकती है?
यह सच है कि कई लोकप्रिय योजनाओं और कार्यक्रमों के बावजूद राज्य में ममता की निर्विवाद लोकप्रियता कई पायदानों पर फिसली है। हालांकि वाममोर्चे के खिलाफ नंदीग्राम और सिंगूर में संघर्ष के बलबूते दिखाई गई बहादुरी के दिन अब लद गए हैं जिनके दम पर तृणमूल ने राज्य के विधानसभा चुनावों में जीत का परचम लहराया था। साथ ही अब परिस्थितियां ऐसी बन रही हैं कि सभी ममता विरोधी ताकतें उनके खिलाफ एकजुट हो गई हैं।
अधिकारी के तृणमूल छोडऩे से पहले उनके प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा था, ‘जब नंदीग्राम आंदोलन चल रहा था, तब मैं राहत कार्यों के लिए वहां गया था। मैंने बहुत करीब से देखा कि उन्होंने आंदोलन का नेतृत्व कैसे किया और वहां की जनता ने, गरीब लोगों और किसानों ने उन पर कितना भरोसा किया। मैं इस बारे में झूठ नहीं बोल सकता। तृणमूल को जितना उन्हें देना चाहिए था उतना नहीं दिया गया।’ चौधरी ने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि अधिकारी कौन सी पार्टी में शामिल होंगे (आखिरकार शनिवार को वह भाजपा में शामिल हो गए) लेकिन अगर किसी भी क्षमतावान व्यक्ति के साथ कुछ ऐसा होता है तो देर-सबेर इस तरह का विद्रोह होना लाजिमी है।’ यह नवंबर की बात है। जब अधिकारी पार्टी से अलग हुए तब चौधरी ने उनकी तारीफ की, हालांकि वह प्रतिद्वंद्वी पार्टी भाजपा को मजबूती देने के लिए इसमें ही शामिल हुए।
यह देखना बाकी है कि क्या इस अभियान का विस्तार भाजपा को समर्थन देने के अधिक संरचनात्मक तरीकों में तब्दील होगा। यहां तक कि ममता के सबसे कटु आलोचक भी मानते हैं कि उनकी सरकार द्वारा तैयार किए गए कई कार्यक्रम लक्षित समूहों तक पहुंच गए हैं और इसके नतीजे भी देखे गए हैं। जब कोविड महामारी अपने चरम पर थी तब बंगाल, भारत के शीर्ष तीन राज्यों में से एक था जिसने राज्य वापस आए प्रवासी मजदूरों को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के तहत काम दिया था।
आंकड़ों से पता चलता है कि चालू वित्त वर्ष के दौरान 1 अप्रैल से 10 सितंबर के बीच 5.7 करोड़ परिवारों ने मनरेगा का लाभ उठाया जो इस योजना के 2 फरवरी, 2006 को शुरू किए जाने के बाद से लाभार्थी परिवारों की सबसे अधिक तादाद है। महामारी जैसे गंभीर संकट के समय इस सामाजिक सुरक्षा कवच की सख्त जरूरत थी। कांग्रेस शासित कई राज्यों की तुलना में बंगाल में मनरेगा की शुरुआत ज्यादा सक्षम तरीके से हुई।
ममता पर लिखी किताब की लेखिका और सामाजिक वैज्ञानिक मोनोबिना गुप्ता कहती हैं, ‘भ्रष्टाचार है, बहुत भ्रष्टाचार है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है मुख्यमंत्री के रूप में ममता वाम मोर्चे की तुलना में ग्रामीण बंगाल के लिए ज्यादा नहीं तो काफी कुछ करने में कामयाब रही हैं।’ हालांकि गुप्ता का कहना है कि ममता ने अधूरी क्रांति का नेतृत्व किया। इसके मूल में पुलिस का पुनर्गठन और सरकार तथा कानून व्यवस्था की ताकतों के बीच संबंध थे। ऐसे में ममता ने केवल वाममोर्चे की नकल ही की है। राज्य पुलिस का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों की गतिविधियों पर नजर रखने, उनकी जासूसी करने के लिए किया गया है।
एक स्थानीय पत्रकार का कहना है, ‘अगर ममता को स्थानीय चुनाव के लिए किसी उम्मीदवार के बारे में फैसला करना है तो अपनी पार्टी इकाई से पूछने से पहले वह पुलिस अधीक्षक से उनकी राय लेंगी।’ गुप्ता का कहना है कि इससे राजनीतिक हिंसा को प्रशासनिक वैधता मिली हुई है और भाजपा ने अपने राजनीतिक अभियान के केंद्र में इसी मुद्दे को रखा है। सरकार में तृणमूल की लंबी पारी और बड़ी मत हिस्सेदारी की एक मुख्य वजह अल्पसंख्यकों का समर्थन है। मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता महबूब सहाना का कहना है कि कश्मीर घाटी और असम के बाद देश में पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की सबसे अधिक तादाद है।
2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य में 27.1 प्रतिशत मुसलमान थे और मुर्शिदाबाद, मालदा और उत्तर दिनाजपुर जैसे जिलों में 50 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी है। इन तीनों के अलावा बीरभूम (37.06 प्रतिशत), दक्षिण 24 परगना (35.57 प्रतिशत), नदिया (26.76 प्रतिशत) और नॉर्थ 24 परगना (25.82 प्रतिशत), हावड़ा, हुगली और पूर्व वद्र्धमान जैसे जिले में अल्पसंख्यकों की अच्छी तादाद है। लेकिन ममता ने मुसलमानों से करीबी महसूस कराने के लिए इस्लाम के प्रतीकों को अपनाने की कोशिश की, उदाहरण के तौर पर हिजाब, जिसको लेकर काफी प्रतिक्रिया देखी गई। ऐसे में एक बार फिर भाजपा इसे भुना रही है।
बंगाल में हिंदू अधिकार पर एक किताब पर काम कर रही गुप्ता का कहना है कि बंगाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की जड़ें इतिहास से जुड़ी हैं और काफी गहरी हैं जिसे वामपंथी शासन के दौर में दफन कर दिया गया था। संघ के राज्य में पुनरुद्धार की वजह ममता ने दी है। गुप्ता कहती हैं कि अभी यह कहना मुश्किल है कि 2021 के चुनाव के बाद कौन सरकार बनाएगा लेकिन इतना तो साफ है कि बंगाल में भले ही ममता की अपील बरकरार है लेकिन भाजपा भी उन्हें असहज करने के बेहद करीब वाली स्थिति में आ गई है।
