कई बार हमें यह सोचकर हैरानी होती है, ‘क्या हमारे शहर वाकई तैयार हैं?’ यह सवाल हमारे ऊपर बेहद भारी पड़ता है क्योंकि हमारे देश की जनसंख्या बढ़ रही है और संसाधन कम होते जा रहे हैं। ऐसे में हमारे शहर भविष्य के लिए पूरी तरह तैयार नहीं रह पाते हैं।
हम शहरी जीवन को बेहतर बनाने के लिए टिकाऊपन, ऊर्जा दक्षता और संसाधन प्रबंधन के महत्त्व पर चर्चा करते हैं लेकिन फिर भी हम एक ऐसी अहम चुनौती को नजरअंदाज कर देते हैं जो कई दशकों से बनी हुई है।
प्राचीन दौर से ही परिवहन हमारे शहरों की जीवन रेखा के रूप में कार्य करता रहा है। लगातार आबादी बढ़ने के साथ ही आवागमन के लिए सुलभ परिवहन पर हमारी निर्भरता भी बढ़ती जाती है।
दरअसल, जनसंख्या वृद्धि और वाहनों की संख्या में बढ़ोतरी साथ-साथ ही होती है जिससे यातायात जाम वाली स्थिति अधिक बनती है और सड़कों पर खर्च होने वाले घंटे लंबे होते जाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की हाल की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2050 तक हमारी वैश्विक आबादी 9.7 अरब तक पहुंचने का अनुमान है, जिनमें से अधिकांश लोग यानी लगभग 68.4 प्रतिशत लोग शहरी क्षेत्रों में रहेंगे।
भारत के संदर्भ में देखा जाए तो मौजूदा 1.4 अरब की आबादी 2030 तक बढ़कर 1.5 अरब से अधिक होने की उम्मीद है। वर्ष 2047 तक लगभग 51 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी। ये आंकड़े चौंकाने वाले हो सकते हैं लेकिन ये हमें अपने रोजमर्रा के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों पर विचार करने के लिए थोड़ा ठहरकर सोचने के लिए मजबूर करते हैं। वर्ष 1950 से भारत ने अपनी आबादी में एक अरब की बढ़ोतरी देखी गई है।
रोड ट्रांसपोर्ट ईयर बुक 2019-20 के मुताबिक इसी अवधि के दौरान पंजीकृत वाहनों की संख्या ने आसमान छू लिया और यह संख्या 1951 के 300,000 से बढ़कर 2020 में 32.6 करोड़ हो गई।
आवागमन के साधन के तौर पर वाहन खरीदने वालों की तादाद बढ़ने के साथ ही यातायात भीड़ की पुरानी समस्या और भी बढ़ती गई जिसके चलते हमारा रोजमर्रा का सफर धैर्य और सहनशक्ति की परीक्षा लेने वाला बन गया है।
आज हमारे देश के बड़े शहर, बेंगलूरु, पुणे, मुंबई और दिल्ली अत्यधिक यातायात जाम की समस्या से जूझ रहे हैं जिसकी वजह से लोग दिन में काम के महत्त्वपूर्ण घंटे सड़क के जाम में गंवा देते हैं।
एम्सटर्डम के एक शोध समूह द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बताया गया कि पुणे में जाम में फंसे रहने के कारण (ज्यादा भीड़ वाली समयावधि में) लोगों ने एक वर्ष में काम के पूरे पांच दिन गंवा दिए। उसी अध्ययन में, बेंगलूरु और पुणे को 2023 में दुनिया के 10 सबसे खराब यातायात प्रभावित शहरों में छठे और सातवें स्थान पर रखा गया। बेंगलूरु की पहचान दुनिया के दूसरे सबसे अधिक भीड़-भाड़ वाले शहर के रूप में की गई।
इस भीड़भाड़ का असर यातायात में फंसने पर होने वाली असुविधा से कहीं ज्यादा है। यह जीवन की उस गुणवत्ता को कम कर देता है जिसकी हम आकांक्षा करते हैं और वास्तव में लंबी दूरी तय करने के बाद हम परेशान और थके हुए ही बने रहते हैं।
भीड़भाड़ वाली सड़कों से गुजरने का तनाव और थकान लोगों के साथ-साथ पूरे समुदाय पर भी भारी पड़ता है। साथ ही, पर्यावरणीय प्रभाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वाहनों के जाम में खड़े रहने के चलते हम जिस हवा में सांस लेते हैं वह भी प्रदूषित हो जाती है और इससे हमारे स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है।
जैसे-जैसे हम इन चुनौतियों से जूझ रहे हैं, एक बात निश्चित रूप से स्पष्ट है कि हमें आवागमन के लिए टिकाऊ समाधान खोजने की आवश्यकता है। सार्वजनिक परिवहन में निवेश के साथ ही साइकल चलाने जैसे परिवहन के वैकल्पिक साधनों को बढ़ावा देना, पैदल चलना और स्मार्ट शहरी नियोजन रणनीतियों को लागू करना वास्तव में भीड़भाड़ कम करने और रहने योग्य शहर बनाने के लिए आवश्यक कदम हैं।
आबादी में वृद्धि, शहरीकरण और परिवहन से जुड़ी मांगों की जटिल चुनौतियों का समाधान करने के लिए कई क्षेत्रों में मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है। इसके लिए साहसिक नीतिगत हस्तक्षेप और नए तरह के समाधानों की आवश्यकता है जो शहरों के भीतर और कई शहरों के बीच आवागमन के तरीके नए सिरे की परिकल्पना पर आधारित हों।
वास्तविक समय के आंकड़े और इससे संबंधित विश्लेषण का लाभ उठाकर, स्मार्ट परिवहन प्रणालियों से जुड़े यातायात संकेतों को समायोजित कर भीड़भाड़ का प्रबंधन किया जा सकता है और यात्रियों को आवागमन के लिए अद्यतन जानकारी दी जा सकती हैं। इससे न केवल परिवहन नेटवर्क की दक्षता में सुधार होगा बल्कि यात्रियों का समग्र अनुभव भी बेहतर होगा।
सार्वजनिक परिवहन में निवेश के अलावा, स्वस्थ और रहने योग्य शहर बनाने के लिए पैदल चलने और साइकिल चलाने जैसी गतिविधियों को बढ़ावा देना आवश्यक है। अलग बाइक लेन और पैदल चलने की सुरक्षित जगह के साथ ही हम फुटपाथ पर चलने वालों के अनुकूल बुनियादी ढांचे को डिजाइन करते हुए निवासियों को इन टिकाऊ तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं।
आवागमन से जुड़ी ये गतिविधियां पर्यावरण के अनुकूल हैं क्योंकि इस योजना से भीड़भाड़ कम हो सकती है और उत्सर्जन भी कम होता है। साथ ही यह शारीरिक गतिविधि भी बढ़ती है और इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य के स्तर में भी सुधार हो सकता हैं।
अत्याधुनिक तकनीक से संचालित स्मार्ट परिवहन प्रणालियों को अपनाने से भी यातायात भीड़ को अनुकूल बनाए जाने और उनकी गतिशीलता को एक दिशा देने की अपार संभावना है। भीड़ के हिसाब से मूल्य तय करने वाली योजनाएं वास्तव में यातायात भीड़ को प्रबंधित करने और उत्सर्जन कम करने के लिए नई कारगर रणनीति है। ये योजनाएं वैकल्पिक परिवहन साधनों के उपयोग को प्रोत्साहित करने के साथ ही अनावश्यक रूप से की जाने वाली कार यात्राओं को हतोत्साहित कर सकती हैं।
भीड़ के आधार पर मूल्य निर्धारण से मिलने वाले राजस्व का निवेश, परिवहन के बुनियादी ढांचे में सुधार और निरंतर गतिशीलता वाली पहलों में किया जा सकता है।
यही बात शहरों की योजना बनाने वालों के लिए भी मायने रखती है। अगर हम मिली-जुली सुविधाओं वाले इलाके बनाएं और लोगों के रहने और दफ्तर जाने की जगहों को सार्वजनिक परिवहन के पास बनाएं तो इससे शहर को आसानी से घूमने लायक बनाया जा सकेगा और ये ज्यादा जीवंत भी बने रहेंगे।
इससे न सिर्फ कारों पर निर्भरता कम होगी बल्कि टिकाऊ और शहरी माहौल से जुड़ी दिक्कतों का सामना करने वाले बेहतर शहर बन पाएंगे। आने वाले समय में जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा लोग शहरों में मौके की तलाश में आएंगे वैसे ही हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमारे शहर लाखों लोगों के रहने के लायक बने रहें।
इसके लिए ना सिर्फ आधुनिक और सबके लिए समान कामकाज की जगह बनानी होगी बल्कि यह भी जरूरी है कि आवागमन के लिए हम परिवहन व्यवस्था का उपयुक्त इस्तेमाल करें और साथ ही पर्यावरण का भी ध्यान रखें।
(कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपैटिटिवनेस, इंडिया के चेयर एवं स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में व्याख्याता हैं तथा देवरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं। साथ में जेसिका दुग्गल)