संपादकीय

बैंकिंग साख: आधारभूत परियोजना ऋण के मसौदा नियमों में हो सुधार

ढांचागत परियोजनाओं में ऋण एवं पूंजी (डेट-टू-इक्विटी) अनुपात अलग-अलग हो सकता है मगर ज्यादातर मामलों में यह 70:30 रहता है।

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तमाल बंद्योपाध्याय   
Last Updated- June 30, 2024 | 10:09 PM IST

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने 3 मई को आधारभूत परियोजनाओं के लिए ऋण आवंटन पर मसौदा प्रपत्र जारी किया था। आरबीआई के इन दिशानिर्देशों का उद्देश्य नियामकीय ढांचे को और मजबूत बनाना तथा बैंक, वित्तीय संस्थानों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) सहित ऋणदाताओं के बीच बेहतर तालमेल सुनिश्चित करना है।

केंद्रीय बैंक ने 15 जून तक इस मसौदा दिशानिर्देश पर सुझाव मांगे थे। इन दिशानिर्देशों में कई अच्छी बातें हैं। उदाहरण के लिए समूह व्यवस्था (कंसोर्टियम) के अंतर्गत जिन मामलों में सभी ऋणदाताओं ने कुल 1,500 करोड़ रुपये का ऋण दिया है, वहां किसी एक ऋणदाता द्वारा आवंटित रकम कुल ऋण का 10 प्रतिशत से कम नहीं होगा।

जिन मामलों में कुल उधारी रकम 1,500 करोड़ रुपये से अधिक है उनमें प्रत्येक ऋणदाता के लिए न्यूनतम ऋण 5 प्रतिशत या 150 करोड़ रुपये (जो भी अधिक हो) तय कर दिया गया है।

इससे ऋणदाताओं को जोखिम का बेहतर प्रबंधन करने में सहूलियत मिलेगी। पिछले दशक में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में गैर-निष्पादित आस्तियों (NPA) का अंबार लग गया था।

मगर आरबीआई के इस मसौदे का वह प्रावधान बैंकों को खटक रहा है जिसमें परियोजना की निर्माण अवधि में प्रोविजन बकाया ऋण या नए ऋण के 0.4 प्रतिशत से बढ़ाकर 5 प्रतिशत (12 गुना से अधिक) कर दिया गया है। परियोजना की परिचालन अवधि में पहुंचने के बाद प्रोविजन घटा कर आधा यानी 2.5 प्रतिशत तक किया जा सकता है।

परियोजना जब इस स्थिति में आ जाएगी कि उसे प्राप्त होने वाली रकम सभी ऋणदाताओं के ऋण चुकाने के लिए पर्याप्त होगी और व्यावसायिक परिचालन शुरू करने पर दीर्घ अवधि का ऋण कम होकर 20 प्रतिशत रह जाने पर प्रोविजन और कम कर 1 प्रतिशत किया जा सकता है।

ऐसे प्रोविजन के पीछे यह तर्क हो सकता है कि ऋणदाता निर्धारित समय से पीछे चल रहीं निर्माणाधीन ढांचागत परियोजनाओं में अपने ऋण पर केवल ब्याज लेकर मूलधन जस का तस रहने दे रहे थे जो बैंकिंग तंत्र के हित में नहीं है।

निर्माण के दौरान 5 प्रतिशत प्रोविजन की शर्त चरणबद्ध रूप में हासिल- 31 मार्च 2025 तक 2 प्रतिशत, 31 मार्च, 2026 तक 3.5 प्रतिशत और 31 मार्च 2027 तक 5 प्रतिशत की जाएगी। इस शर्त का पालन नहीं करने पर निगरानी एवं क्रियान्वयन से जुड़े कदम उठाए जाएंगे।

प्रोविजन से जुड़ी शर्तों के कारण बैंकों को अधिक रकम अलग रखनी होगी जिससे उनके लिए पूंजी पर लागत बढ़ जाएगी। इससे ढांचागत परियोजनाओं को ऋण देने वाले संस्थानों और निवेशकों दोनों पर प्रतिकूल असर होगा। बैंकों को प्रायः ऐसे ऋण पर 9 प्रतिशत और निवेशकों को लगभग 15 प्रतिशत तक रिटर्न मिलता है।

ढांचागत परियोजनाओं में ऋण एवं पूंजी (डेट-टू-इक्विटी) अनुपात अलग-अलग हो सकता है मगर ज्यादातर मामलों में यह 70:30 रहता है। सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) वाली परियोजनाएं के लिए ऋण आम तौर पर इसी ऋण एवं पूंजी अनुपात पर आवंटित होते हैं।

पूंजी पर लागत बढ़ने से परियोजनाओं के लिए ऋण महंगा हो जाएगा क्योंकि कोई भी बैंक मुनाफे को लेकर कोई समझौता तो नहीं करना चाहेगा। विश्लेषकों का कहना है कि ऐसे ऋण पर ब्याज 0.50 से 0.70 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा। ऋण महंगा होने से निवेशकों का लाभ भी घट जाएगा जिससे विदेश से आने वाली रकम कम हो सकती है।

अगर निर्माणाधीन परियोजनाओं के लिए ये मसौदा निर्देश लागू हुए तो निजी बैंक, विदेशी बैंक और एनबीएफसी ढांचागत परियोजनाओं के लिए ऋण देने में कोताही करने लगेंगे और बेहतर रिटर्न के लिए दूसरे क्षेत्रों की तरफ मुड़ जाएंगे। ऐसी परियोजनाओं के लिए ऋण देने का दायित्व सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और राष्ट्रीय अवसंरचना वित्त पोषण एवं विकास बैंक पर बढ़ जाएगा।

क्या भारत जैसा देश आधारभूत ढांचा तैयार करने के विषय पर समझौता कर सकता है? बिल्कुल नहीं। क्या इसके साथ जोखिम भी जुड़े हैं? हां, मगर एक अलग नजरिये के साथ ये जोखिम कम किए जा सकते हैं?

आरबीआई बैंकों को प्रोविजन बढ़ाने के बजाय उन्हें बहीखाते में एक सुरक्षित रकम रखने के लिए कह सकता है। किसी बैंक में एनपीए बढ़ने की सूरत में इस सुरक्षित रकम का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस्तेमाल नहीं होने की स्थिति में बैंकों को मुनाफा इस रकम पर ब्याज अर्जित करने की छूट दी जानी चाहिए।

दिशानिर्देशों में कहा गया है कि वित्तीय समझौते में व्यावसायिक परिचालन शुरू करने की तारीख के बाद ऋण भुगतान पर अस्थायी रोक की अमूमन अनुमति नहीं दी जाएगी। अगर यह अनुमति दी भी जाती है तो यह छह महीने से अधिक नहीं हो सकती। मोरेटोरियम अवधि (अगर कोई होती है) सहित मूल या संशोधित भुगतान अवधि परियोजना के आर्थिक जीवनकी अवधि की 85 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती।

छह महीने की अवधि किस आधार पर निर्धारित की गई है? क्या यह फैसला बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों पर नहीं छोड़ देना चाहिए? ऐसा लगता है कि नियामक उन पर जरा भी विश्वास नहीं करता है। इसी तरह, मसौदा दिशानिर्देश में परियोजनाओं के लिए शुद्ध वर्तमान मूल्य (एनपीवी) निर्धारित किए गए हैं।

किसी भी परियोजना को ऋण देने के लिए सकारात्मक एनपीवी एक आवश्यक शर्त होगी। निर्माण अवधि के दौरान एनपीवी में गिरावट आ सकती है इसलिए बैंकों को सभी परियोजनाओं के एनपीवी का मूल्यांकन हरेक साल स्वतंत्र रूप से कराना होगा।

समय एवं लागत का बढ़ना किसी भी ढांचागत परियोजना के लिए अनोखी बात नहीं होती मगर एनपीवी की व्याख्या हो सकती है। स्वतंत्र मूल्यांकन के बाद भी आरबीआई के अंकेक्षकों को कुछ खास परियोजनाओं के एनपीवी में कमी दिख सकती है।

ऐसा होने पर बैंकों को ऋणको एनपीए घोषित करना होगा और इसके लिए प्रावधान करना होगा। ये कदम निगरानीकर्ता के नजरिये से स्वागतयोग्य माने जा सकते हैं मगर क्या नियामक को इस पूरी प्रक्रिया में विकास को बढ़ावा देने की भूमिका नहीं निभानी चाहिए? अगर नियामक यह रुख अपनाए तो उसे अंतिम दिशानिर्देश तैयार करते वक्त कुछ खास प्रावधानों में संशोधन करना तर्कसंगत लगेगा।

(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक में वरिष्ठ सलाहकार हैं)

First Published : June 30, 2024 | 10:09 PM IST