संपादकीय

Editorial: बेहतर अनुपालन की जरूरत

वनों की सन 1996 की परिभाषा की ओर वापस लौटते हुए अदालत ने सरकार से यह भी कहा कि वह देश के हर प्रकार के वन क्षेत्र का रिकॉर्ड तैयार करे।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- February 25, 2024 | 9:39 PM IST

सर्वोच्च न्यायालय ने सुधार का एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाते हुए सरकार को निर्देश दिया है कि वह वनों की व्यापक ‘शब्दकोश परिभाषा’ के लिए सन 1996 में सर्वोच्च न्यायालय के ही दो सदस्यीय पीठ की परिभाषा का पालन करे।

ताजा निर्णय तीन सदस्यीय पीठ ने वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में संशोधन के खिलाफ दा​खिल की गई कई याचिकाओं पर सुनाया है। उक्त संशोधन 2023 में संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किए गए थे। इन संशोधनों के मुताबिक एफसीए केवल अधिसूचित वन क्षेत्र और उस भूमि पर लागू होगा जिसे सरकारी रिकॉर्ड में ‘वन’ के रूप में परिभाषित किया गया हो।

इन संशोधनों की घोषित वजह यह बताई गई थी कि सन 1996 के निर्णय ने एफसीए के प्रावधानों को उन दर्ज किए गए वनों पर लागू किया गया था जिन्हें गैर वन उपयोग के लिए रखा गया था। यह बुनियादी क्षेत्र के मंत्रालयों, खासकर सड़क और राजमार्ग मंत्रालय की लंबे समय से लंबित मांग थी। परंतु संशोधन का विरोध करने वाले याचियों का कहना था कि इसके परिणामस्वरूप लाखों हेक्टेयर वन भूमि का वन के रूप में वर्गीकरण समाप्त हो जाएगा।

ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इन संशोधनों की बदौलत चिड़ियाघर और सफारी वनों के भीतर बनाए जाने का रास्ता निकल आया। इसके परिणामस्वरूप हरियाणा ने अरावली के वनों के बीच एक वन्य पशु सफारी पार्क बनाने की योजना तैयार कर ली। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में यह भी कहा गया कि ऐसी सभी योजनाओं को अदालत की मंजूरी की आवश्यकता होगी।

वनों की सन 1996 की परिभाषा की ओर वापस लौटते हुए अदालत ने सरकार से यह भी कहा कि वह देश के हर प्रकार के वन क्षेत्र का रिकॉर्ड तैयार करे। इसका अर्थ यह हुआ कि राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को सन 1996 के अदालती फैसले के तहत गठित विशेषज्ञ समितियों द्वारा पहचाने गए वनों का रिकॉर्ड जमा करना होगा। सरकार के पास ये आंकड़े जमा करने के लिए 15 अप्रैल तक का समय है।

यह निर्णय उन कई निर्णयों में से एक है जिसके तहत न्यायपालिका पर्यावरण कानूनों को कमजोर किए जाने को लेकर कुछ संतुलन कायम करना चाह रही है। इन कानूनों को विकास के नाम पर कमजोर किया गया है। एक निर्णय जो सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए लंबित है, वह है उन कंपनियों को पुरानी तारीख से मंजूरी प्रदान करना जिन्होंने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत पर्यावरण मंजूरी प्राप्त करने के लिए शर्तों का पालन नहीं किया।

पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों की ऐसी 100 से अधिक परियोजनाओं को जिनमें सीमेंट, कोयला, लोहा और इस्पात, बॉक्साइट तथा चूना पत्थर आदि शामिल हैं, 2017 के इस प्रावधान के तहत मंजूरी दी गई। इस वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने इन पर प्रतिबंध लगा दिया। इस बीच 2022 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने प्रस्ताव रखा कि उन राजमार्ग, हवाई अड्‌डों, फिशिंग पोर्ट, ताप बिजली परियोजनाओं आदि के लिए पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता समाप्त कर दी जानी चाहिए जो नियंत्रण रेखा अथवा अंतरराष्ट्रीय सीमा के 100 किलोमीटर के दायरे में हों।

बाद में कुछ विपक्षी दलों की असहमति के बाद एक संयुक्त संसदीय समिति ने स्पष्ट किया कि इसमें एकतरफा मंजूरी शामिल नहीं होगी और यह निजी क्षेत्र के लिए नहीं खुला होगा। देश के सीमावर्ती इलाकों की पारिस्थितिकी की संवेदनशीलता को देखते हुए तथा पहाड़ी या तटीय इलाकों के मौसम को देखते हुए इस स्पष्टीकरण से पर्यावरणविदों की चिंताओं को कम करने की संभावना नहीं है। उत्तराखंड के कई नगरों में जमीन धसकना अत्यधिक निर्माण के खतरे की पहचान बना हुआ है।

सरकार ने बार-बार सुरक्षा और विकास संबंधी जरूरतों का हवाला देकर पर्यावरण संबंधी चिंताओं की अनदेखी की है। उदाहरण के लिए उसने कहा कि 2023 में एफसीए में संशोधन इसलिए करना पड़ा कि यह कानून जनजातीय समुदायों के लिए स्कूलों की इमारतों, शौचालयों और अन्य सुविधाओं के निर्माण की राह में रोड़ा बन रहा था।

बहरहाल संशोधन निरर्थक था क्योंकि वन अधिकार अधिनियम ने सरकार को एफसीए को समाप्त करने और ऐसी परियोजनाओं के लिए वन भूमि देने में सक्षम बनाया था। देश में प्राकृतिक वनों में तेजी से कमी को देखते हुए विकास के नाम पर पर्यावरण संबंधी नियंत्रण को शिथिल किए जाने की तत्काल समीक्षा करने की आवश्यकता है।

First Published : February 25, 2024 | 9:39 PM IST