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Editorial: सीखने की संस्कृति

बोर्ड परीक्षाओं को वर्ष में दो बार आयोजित किया जाना चाहिए ताकि विद्यार्थियों को ‘दो में से बेहतर’ के आधार पर आंका जा सके।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- August 27, 2023 | 9:59 PM IST

नैशनल करीकुलम फ्रेमवर्क (एनसीएफ) ने स्कूली शिक्षा प्रणाली की कमजोरियों को दूर करने के लिए रचनात्मक सुधार की पेशकश की है। वह हर विषय में पाठ्यक्रम का बोझ कम करना चाहता है ताकि रटने की आदत कम हो और आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा दिया जा सके।

उसने सुझाव दिया है कि इसके लिए बोर्ड परीक्षाओं को वर्ष में दो बार आयोजित किया जाना चाहिए ताकि विद्यार्थियों को ‘दो में से बेहतर’ के आधार पर आंका जा सके। उसका कहना है कि उन्हें एकबारगी परीक्षा के उच्च तनाव से बचाना चाहिए।

विचार यह भी है कि भविष्य में मांग आधारित बोर्ड परीक्षा आयोजित की जाए यानी जब छात्र किसी विषय की पढ़ाई पूरी कर लें और परीक्षा के लिए तैयार हों तो परीक्षा ले ली जाए। इसके साथ ही उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में उन्हें विषय चयन करने में भी लचीली व्यवस्था उपलब्ध कराने का विचार है ताकि वे विज्ञान के साथ कला विषयों और व्यावसायिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकें। एनसीएफ ने विभिन्न विषयों में कौशल प्राप्त करने की परिस्थितियां निर्मित की हैं जिनकी 21वीं सदी में कार्यस्थलों में भारी मांग है। ये कल्पनाशील सुझाव हैं जो स्कूली शिक्षा के तनाव भरे प्रतियोगी परीक्षा आधारित मॉडल को सहज बनाएंगे।

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परंतु स्कूली शिक्षा की प्रमुख समस्याओं को हल करने भर से बात नहीं बनेगी क्योंकि कॉलेज शिक्षा में भी गंभीर दिक्कतें हैं और असली होड़ वहीं शुरू होती है। चुनिंदा प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों, प्रौद्योगिकी या प्रबंधन संस्थानों में दाखिले के लिए बच्चों को ज्वाइंट एंट्रेंस एक्जामिनेशन (जेईई), कॉमन एडमिशन टेस्ट (कैट) या ग्रैजुएट मैनेजमेंट एडमिशन टेस्ट (जीमैट) आदि परीक्षाएं पास करनी पड़ती हैं। ऐसी परीक्षाओं में सफलता हासिल करना ही भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) जैसे अधिक प्रतिष्ठित संस्थानों तथा चुनिंदा निजी संस्थानों में दाखिला पाने की शर्त होती है।

इस बीच कोचिंग संस्थान एक बड़े उद्योग के रूप में विकसित हुए हैं जो बच्चों से इन परीक्षाओं की तैयारी के लिए लाखों रुपये का शुल्क वसूल करते हैं। विश्वविद्यालयों की स्नातक कक्षाओं में दाखिले के लिए कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट जैसी परीक्षाओं की शुरुआत होने से यह रुझान और अधिक जोर पकड़ेगा। आईआईटी और आईआईएम शुरू करने पर सरकार के ऐतिहासिक ध्यान के कारण इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि मौजूदा संकट मांग और आपूर्ति के बीच अंतर की वजह से उत्पन्न हुआ है। बहुत बड़ी तादाद में विद्यार्थी इन गिनेचुने श्रेष्ठ संस्थानों की सीमित सीटों के लिए प्रतियोगिता में लगे हुए हैं।

उदाहरण के लिए 2022 में करीब नौ लाख बच्चे जेईई की परीक्षा में बैठे जिनमें से केवल 2.50 लाख उत्तीर्ण हुए। देश के कुल 23 आईआईटी भी इनमें से केवल 17,385 विद्यार्थियों को ही दाखिला दे सकेंगे। बाकी बच्चों को 4,400 अन्य प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिला लेना होगा।

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आश्चर्य नहीं कि माता-पिता भी अपनी जीवन भर की बचत लगाकर बच्चों को कोटा जैसे शहरों में कोचिंग पढ़ने भेजते हैं ताकि वे प्रतियोगी परीक्षाओं में बेहतर रैंक हासिल कर सकें। माता-पिता और सहपाठियों के दबाव में बड़ी तादाद में बच्चे आत्महत्या तक कर रहे हैं। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2020 में देश में 8.2 फीसदी विद्यार्थियों की मौत आत्महत्या से हुई।

ब्यूरो के मुताबिक हर रोज करीब 34 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की। इस समस्या का कोई ठोस निदान अब तक नहीं मिला है। कोटा शहर के प्रशासन ने निर्देश दिया है कि बच्चों के हॉस्टल में ऐसे पंखे लगाए जाएं जिनमें स्प्रिंग लगे हों ताकि बच्चे उनसे लटककर आत्महत्या न कर सकें। यह अफसरशाही का असंवेदनशील रवैया है जो समस्या के कारण का नहीं लक्षणों का हल तलाश रहा है। स्कूली पाठ्यक्रम की तरह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उत्पन्न सामाजिक-आर्थिक संकट का भी रचनात्मक हल तलाशना आवश्यक है।

First Published : August 27, 2023 | 9:59 PM IST