महिला पहलवानों द्वारा भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और सत्ताधारी दल के शक्तिशाली सांसद बृज भूषण शरण सिंह पर यौन शोषण के सिलसिलेवार आरोप लगाए जाने को साढ़े पांच महीने बीत चुके हैं। परंतु एक विचित्र और परेशान करने वाले घटनाक्रम में पुलिस ने शिकायतकर्ताओं पर ही बल प्रयोग किया और वे अब भी न्याय मांग रहे हैं।
सिंह के खिलाफ दो प्राथमिकी दर्ज हो चुकी हैं, हालांकि इसके लिए भी सर्वोच्च न्यायालय को दबाव डालना पड़ा। सप्ताहांत पर पर उन्होंने बेहद अवज्ञापूर्ण ढंग से एक रैली की और अगले वर्ष संसदीय चुनाव लड़ने का इरादा जताया। उनके खिलाफ दर्ज की गई दो प्राथमिकियों में से एक प्रिवेंशन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेस ऐक्ट (पोक्सो) की धारा 10 के तहत दर्ज की गई है क्योंकि शिकायतकर्ता नाबालिग है।
सिंह के खिलाफ तत्काल कदम उठाने के लिए यह वजह ही पर्याप्त थी। इसके बजाय दिल्ली पुलिस ने सिंह और उनके कर्मचारियों से पूछताछ की कवायद शुरू की जबकि यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था।
इस बीच नाबालिग ने अपनी शिकायत वापस ले ली है, जाहिर है इस पर भी लोगों को कई तरह की शंकाएं हैं। नाबालिग के पिता ने किसी तरह के दबाव से इनकार किया है। दिल्ली पुलिस ने भी एक विशिष्ट जांच प्रक्रिया अपनाई है जो दस वर्ष पुराने पोक्सो कानून की विस्तृत मानक प्रक्रिया के अनुरूप नहीं है।
परस्पर दोनों पक्षों के बयानों पर टिके अपराध के मामले में यह कानून कहता है कि शिकायतकर्ता ने जिस घटनाक्रम का ब्योरा दिया हो, अगर प्रमाण उसका समर्थन करते हों तो उसे सही माना चाहिए। पहलवानों की शिकायत सबूत पेश करने के इस मानक पर पूरी तरह खरी उतर रही थी क्योंकि कम से कम एक अंतरराष्ट्रीय कुश्ती रेफरी ने इस बात की पुष्टि की थी कि उन्होंने कई अवसरों पर महिला पहलवानों के साथ सिंह के अनुचित व्यवहार को देखा था।
अजीब बात है कि पुलिस ने न केवल महिला पहलवानों से बातचीत के लिए उस परिसर का चयन किया जहां सिंह उस समय मौजूद थे। जानकारी के मुताबिक पुलिस ने महिलाओं से सिंह के आचरण का सचित्र प्रमाण मांगा। इससे तो यही पता चलता है कि या तो पुलिस को यौन प्रताड़ना की प्रकृति के बारे में गलत समझ है या फिर वह लीपापोती का प्रयास कर रही है।
हालांकि बहुत कुछ उस आरोप पत्र पर निर्भर करेगा जिसे दिल्ली पुलिस 15 जून तक दाखिल करने वाली है लेकिन बड़ा मसला है अन्य लोगों द्वारा बरती जा रही खामोशी। सन 1983 की विश्व कप विजेता क्रिकेट टीम (हालांकि उस टीम के एक खिलाड़ी रोजर बिन्नी को छोड़कर, जो क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष हैं) को छोड़ दिया जाए तो वर्तमान खिलाड़ियों ने इस मसले पर चुप्पी ओढ़े रखी।
खेल प्रशासन पर सरकार के दबदबे को देखते हुए इसे समझा जा सकता है। किसान संगठनों, पहलवानों के जातीय संगठनों को छोड़कर ज्यादातर प्रमुख विपक्षी नेताओं ने इन महिलाओं के पक्ष में आवाज नहीं उठाई। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो खुद को सत्ताधारी दल का धुर विरोधी मानते हैं। कोई महिला संगठन भी वैसा प्रदर्शन करता नहीं दिखा जिसने 2012 में संसद को कार्यस्थल पर यौन प्रताड़ना संबंधी कानून बनाने और बलात्कार को लेकर नया कानून बनाने पर विवश किया था।
यह सामूहिक बेरुखी इस बात को रेखांकित करती है कि लैंगिक न्याय अभी भी हमारे समाज में चुनावी मुद्दा नहीं है क्योंकि समाज में पितृसत्ता बहुत गहरे तक पैठी हुई है। इक्कीसवीं सदी के भारत को महिला स्नातकों की बढ़ती तादाद तथा कई क्षेत्रों में उनकी सफलताओं पर गर्व है।
पदक विजेता महिला पहलवान भी इसका उदाहरण हैं। परंतु इन महिलाओं को एक पुरुष के खिलाफ अपनी बात मनवाने के लिए जितनी जद्दोजहद करनी पड़ रही है वह दिक्कतदेह है। फिलहाल यह विवाद भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान ही पहुंचा रहा है।