एक खराब विचार को मजबूती प्रदान करने की बात हो तो एक अच्छे ऐक्रोनिम (कुछ शब्दों के पहले अक्षर से एक नया संक्षिप्त शब्द गढ़ना) से बेहतर कुछ नहीं होता। ब्रिक्स के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ।
जिस समय बीती सदी करवट ले रही थी उस समय गोल्डमैन सैक्स के अर्थशास्त्रियों ने यह जुमला दिया था। उसमें यह स्थापना दी गई थी कि ब्राजील, रूस, भारत और चीन का संयुक्त आकार सदी के मध्य तक दुनिया की सर्वाधिक विकसित छह अर्थव्यवस्थाओं से अधिक हो जाएगा।
करीब एक दशक तक यह विचार बरकरार रहा लेकिन उसके पश्चात यह ध्वस्त हो गया। चीन और भारत (2001 में क्रमश: छठे स्थान और 10वें से नीचे रहने वाले देश) का प्रदर्शन अच्छा रहा है और अब दोनों दुनिया की शीर्ष पांच अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हैं।
परंतु ब्राजील और रूस पीछे रह गए हैं। रूस तो अब शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं में भी नहीं नजर आ रहा। भारत की बात करें तो वह अन्य तीनों की तुलना में कम प्रति व्यक्ति आय के कारण अलग नजर आ रहा है। सरसरी तौर पर देखा जाए तो अन्य समानताएं भी नजर आती हैं।
2001 में ये चारों देश दुनिया के सर्वाधिक आबादी वाले छह देशों में शामिल थे और सर्वाधिक भूभाग वाले सात देशों में भी इनका स्थान था। ऐसे में भूभाग और जनांकिकीय तर्क इस संक्षिप्त नाम को और वैधता प्रदान करता है। परंतु तब से अब तक पाकिस्तान और नाइजीरिया की आबादी रूस और ब्राजील से अधिक हो गई है।
इस बीच समूह के पीछे का मूल आर्थिक तर्क भी नदारद हो गया क्योंकि दक्षिण अफ्रीका को पांचवें सदस्य के रूप में शामिल कर लिया गया जिसकी अर्थव्यवस्था बमुश्किल भारत की अर्थव्यवस्था के दसवें हिस्से के बराबर है।
परंतु एक अच्छा संक्षिप्त नाम वही है जिसे नष्ट न होने दिया जाए। इसलिए ब्रिक्स की बैठकें नियमित रूप से होती रहीं और ऐसी ही एक बैठक अगले सप्ताह होनी है। ऐसी बैठकों के एजेंडे भी होते हैं और एक के बाद एक उनसे अव्यावहारिक स्थापनाएं निकलती रहती हैं।
तमाम चर्चाओं में से केवल ब्रिक्स बैंक ही सामने आया लेकिन इसके आगमन से भी अंतरराष्ट्रीय विकास फंडिंग में बहुत अधिक अंतर नहीं आया। हालांकि कुछ गैर ब्रिक्स देश मसलन वेनेजुएला आदि को भी इसमें शामिल होने की अनुमति दी गई। एक दशक पहले समुद्र के भीतर ब्रिक्स केबल बिछाने की चर्चा हुई थी ताकि डेटा पाइप को अमेरिकी हस्तक्षेप से मुक्त रखा जा सके। इस दिशा में भी बहुत धीमी गति से प्रगति हुई है।
बहरहाल, चीन भी ऐसी केबल को टैप करके डेटा चुराने में सक्षम है। नई मुद्रा व्यवस्था का भी प्रस्ताव रखा गया ताकि डॉलर का मुकाबला किया जा सके लेकिन भारत ऐसी किसी भी व्यवस्था से प्रसन्न नहीं होगा जो प्राथमिक रूप से चीन के आर्थिक विकास से संबद्ध हो। डॉलर को त्यागने और युआन की पहुंच बढ़ाने से भला क्या हासिल होगा?
इस बीच यह विचार जोर पकड़ गया है कि ब्रिक्स पश्चिमी दबदबे वाली विश्व व्यवस्था के लिए एक विकल्प प्रस्तुत कर सकता है। तकरीबन 40 देशों ने इसमें शामिल होने की रुचि दिखाई है। परंतु इस विचार के सफल होने की संभावना तो जी15 देशों के समूह से भी कम है जो ऐसे ही लक्ष्यों के साथ एक चौथाई सदी तक बरकरार रहा और करीब एक दशक पहले निष्क्रिय हो गया। ब्रिक्स का उसकी जगह लेना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि चीन और रूस किसी भी तरह विकासशील देश नहीं हैं। वे बस पश्चिम विरोधी मुल्क हैं।
उस लिहाज से देखा जाए तो ब्रिक्स चीन के कूटनीतिक प्रयासों का जरिया बन जाने का खतरा है। इस क्षेत्र में चीन के साझेदार उत्तर कोरिया, कंबोडिया और शायद म्यांमार तक सीमित हैं। यानी व्यापक कूटनीतिक समर्थक आधार से उसे फायदा होगा।
जाहिर है चीन ब्रिक्स की सदस्यता को विस्तारित करने पर सबसे अधिक जोर दे रहा है। रूस के साथ उसकी नई नजदीकी, अफ्रीका में उसकी कूटनीतिक पैठ और खाड़ी में उसकी हालिया पकड़ के साथ चीन विस्तारित ब्रिक्स का इस्तेमाल एक ऐसे मंच के रूप में कर सकता है जो पश्चिम का वर्चस्व तोड़ने में मदद करे। इस बीच ब्रिक्स ने चीन के दबदबे वाले एक अन्य समूह शांघाई सहयोग संगठन के साथ भी संवाद बढ़ाया है।
भारत के लिए यह अजीब स्थिति हो सकती है क्योंकि चीन के साथ उसका रिश्ता विरोध का रहा है। उसने चीन से आयात और निवेश को रोकने के कदम उठाए हैं और चीनी तकनीक को वह अपने यहां अनुमति नहीं देता। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन सहित कई विकास संबंधी मसलों पर भारत की स्थिति विकसित देशों के रुख के विरुद्ध है परंतु रक्षा आपूर्ति, तकनीकी पहुंच, लोगों की आवाजाही आदि के मामले में वह यूरोप और अमेरिका पर बहुत हद तक निर्भर है।
भारत की राजनीतिक व्यवस्था भी चीन की तुलना में अधिक खुलेपन वाली है। इसके बावजूद चूंकि इंडोनेशिया, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश ब्रिक्स की सदस्यता चाहते हैं तो भारत के लिए बिना उचित कारण के उनका प्रवेश रोकना कठिन होगा। भारत का कहना है कि वह नई सदस्यता के लिए स्पष्ट मानक चाहता है। परंतु क्या मौजूदा सदस्य भी किसी सार्थक मानक पर खरे उतरते हैं?