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डॉलर की कमजोरी और भारत की तैयारी

डॉलर के पक्ष में केवल एक बात जाती है कि यह अभी भी सबसे स्वीकार्य और सुरक्षित मुद्रा है और अंतरराष्ट्रीय लेनदेन के निपटान में इसका सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है।

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- July 08, 2024 | 8:55 PM IST

अमेरिका के कमजोर राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्व के कारण आगे चलकर डॉलर की कीमत में निश्चित गिरावट आएगी। भारत को इसके असर से बचने के लिए कदम उठाने होंगे। बता रहे हैं आर जगन्नाथन

नरेंद्र मोदी सरकार ने अगले दो वर्षों में भारत को 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने तथा 2029 के पहले दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य तय किया है। समस्या इन लक्ष्यों में नहीं बल्कि उस मानक में है जिसके जरिये इन्हें हासिल करना है और जिन पर आप नियंत्रण नहीं कर सकते। वह है डॉलर-रुपया विनिमय दर।

सैद्धांतिक तौर पर अगर रुपया मजबूत हुआ तो हम तय अवधि से पहले भी पांच लाख करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था बन सकते हैं लेकिन अगर इसका उलट हुआ तो हम लक्ष्य से दूर भी रह सकते हैं। मध्यम से दीर्घ अवधि में डॉलर में गिरावट की संभावना अधिक है बजाय कि उसकी मजबूती के। ऐसा उन दो बड़ी गलतियों के कारण हुआ जो 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद अमेरिकी सरकार (अमेरिकी फेडरल रिजर्व बोर्ड समेत) ने की थीं।  वैश्विक वित्तीय संकट और बाद में कोविड के प्रभाव से निपटने के लिए जमकर नकदी छापी गई और सस्ता ऋण दिया गया।

यूक्रेन युद्ध के शुरू होने के बाद अमेरिका ने रूस को दंडित करने के लिए उसके डॉलर के भंडार को सीज करना आरंभ किया। तब से चीन और हाल के दिनों में भारत ने अधिक से अधिक सोना खरीदकर डॉलर भंडार पर निर्भरता कम करने का प्रयास किया है। अप्रैल में चीन के पास मौजूद ट्रेजरी शेयर उसके कुल 3.2 लाख करोड़ डॉलर के भंडार के एक चौथाई से भी कम था। वह बीते डेढ़ साल से हर महीने सोना खरीद रहा है। भारत ने इस वर्ष जनवरी से अप्रैल के बीच 24 टन सोना खरीदा जो 2023 के कुल 16 टन से बहुत अधिक है।

इसके दो असर हुए: अमेरिका की राजकोषीय स्थिति में गिरावट और वैश्विक वित्तीय प्रवाह और शेयरों से संबंधित नियमों के सम्मान की अमेरिकी इच्छाशक्ति में लोगों का भरोसा कम होना। भारत के लिए इसका मतलब है कि उसे अपना स्वर्ण भंडार बढ़ाना होगा और उसको कुल मुद्रा भंडार के 8.7 फीसदी से बढ़ाकर 12-15 फीसदी करना होगा।

षणमुगनाथन एन (संक्षेप में षण) की नई पुस्तक ‘आरआईपी यूएसडी’ में कहा गया है कि डॉलर की यह गिरावट इसी दशक में पूरी हो सकती है हालांकि ऐसा दावा नहीं किया जा सकता है। यह माना जा सकता है कि आखिरकार बाजार डॉलर पॉन्जी स्कीम से बाहर हो जाएंगे परंतु अल्पकालिक हित यह सुनिश्चित करेंगे कि वास्तविक पतन की तिथि का सटीक अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है।

षण मुक्त बाजार के समर्थक हैं। वह कहते हैं, ‘सरकार द्वारा जारी कोई भी मुद्रा कुछ दशक से अधिक नहीं चलती।’ वह भविष्यवाणी करते हैं कि अमेरिकी डॉलर की क्रय शक्ति कमजोर पड़ेगी जिससे न केवल एक तरह की मंदी आएगी बल्कि इसके साथ ही उच्च मुद्रास्फीति की स्थिति भी बनेगी।

लेखक मानता है कि ऐसा कोई भी हल जिसे किसी तरह सोने का समर्थन नहीं हासिल हो वह अमेरिकी डॉलर के लिए मददगार नहीं होगा। अमेरिका में 1971 में तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने घोषणा की थी कि 35 डॉलर प्रति आउंस की दर पर डॉलर को सोने से नहीं जोड़ा जाएगा। मौजूदा कीमत पर यह 2,328 डॉलर प्रति आउंस होगा। यानी 1971 से अब तक डॉलर की तुलना में सोना 66 गुना मजबूत हुआ है।

भारत की बात करें तो हमें अपने विचार और कदमों को डॉलर से मुक्त करने के लिए हर कदम उठाना होगा हालांकि निकट भविष्य में इसका कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है।

डॉलर के पक्ष में केवल एक बात जाती है कि यह अभी भी सबसे स्वीकार्य और सुरक्षित मुद्रा है और अंतरराष्ट्रीय लेनदेन के निपटान में इसका सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है। न तो यूरो और न ही चीनी युआन इस जरूरत को पूरा कर सके हैं। यूरो इसलिए पिछड़ गया क्योंकि यूरो क्षेत्र का बिना सोचे समझे विस्तार किया गया है और चीन की मुद्रा का इसलिए क्योंकि चीन पर किसी को विश्वास नहीं है।

षण के मुताबिक डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देने वाला सबसे स्वाभाविक परिदृश्य यही होगा कि कुछ देशों का समूह सोने द्वारा समर्थित एक आरक्षित मुद्रा तैयार करे। उन्हें नहीं लगता है कि क्रिप्टोकरेंसी वह कर सकती है जो सोना कर सकता है। इसलिए कि क्रिप्टो का सोने की तरह कोई अन्य उपयोग नहीं है।

तार्किक ढंग से सोचा जाए तो ब्रिक्स की किसी भी पहल में ऐसा होना चाहिए लेकिन 2020 में चीन द्वारा सीमाओं पर व्याप्त शांति और स्थिरता को भंग किए जाने के बाद भारत और चीन के रिश्तों में अविश्वास पैदा हो चुका है।

ऐसे में जापान के अलावा एशिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को सोने द्वारा समर्थित वैश्विक मुद्रा तैयार करने की कोई जल्दी नहीं दिखती। यूक्रेन युद्ध को देखते हुए यूरोप सुरक्षा के लिए अमेरिका पर अत्यधिक निर्भर हो गया है। डॉलर का वर्चस्व बना हुआ है क्योंकि शेष विश्व एकजुट होकर काम नहीं कर पा रहा।

हालात हमेशा ऐसे नहीं रहेंगे। हमें यह मानकर चलना होगा कि भूराजनीतिक रुझान बदलने के पहले वृहद आर्थिकी अमेरिकी डॉलर को नीचे ले आएगा। अमेरिका का राष्ट्रीय ऋण जो 1971 में सकल घरेलू उत्पाद के 7.8 फीसदी के बराबर था वह 2023 में बढ़कर 120 फीसदी हो गया। पिछले कुछ वर्षों से हर वर्ष अमेरिकी ऋण दो लाख डॉलर बढ़ रहा है।

निजी व्यक्ति और संस्थाएं जरूर डॉलर रखे हो सकती हैं। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अनुमान लगाया था कि 2021 में नकद डॉलर का करीब 45 फीसदी विदेशों में था। न केवल सरकारें बल्कि व्यक्ति और आपराधिक गिरोह भी डॉलर रखते हैं क्योंकि उसकी स्वीकार्यता बहुत व्यापक है। इन निजी धारकों का भविष्य का आचरण क्या होगा यह बताना कठिन है क्योंकि उनके पास भी डॉलर से क्रिप्टोकरेंसी या अचल संपत्ति अथवा सोने में स्थानांतरण का विकल्प होगा।

भारत के लिए महत्त्वपूर्ण बात यह है कि डॉलर जहां निकट भविष्य में मांग में बना रह सकता है वहीं हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य रुपये के संदर्भ में तय किया जाना चाहिए। उसे हम अपनी वृहद आर्थिक नीतियों के जरिये नियंत्रित कर सकते हैं।

यह कहना अधिक बेहतर होगा कि सात फीसदी की औस्त वृद्धि की दर से 10 वर्षों में हमारी वास्तविक जीडीपी दोगुनी बढ़कर 350 लाख करोड़ रुपये की होगी बजाय कि यह कहने के कि 2030 तक हम 10 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। हमें रुपये पर केंद्रित रहना होगा। हमें अपनी विचार प्रक्रिया से डॉलर को निकालना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

First Published : July 8, 2024 | 8:53 PM IST