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व्यय करने को लेकर राज्यों की कठिनाई

Last Updated- December 11, 2022 | 10:11 PM IST

कोई व्यक्ति कुछ हजार या कुछ लाख रुपये आसानी से खर्च कर सकता है लेकिन कुछ हजार करोड़ रुपये खर्च करना आसान नहीं है। खासतौर पर तब जबकि ऐसा किसी सरकार को करना हो जो घर से काम करने की व्यवस्था को लेकर तैयार न हो और महामारी के कारण उसके ज्यादातर कर्मचारी महीनों से कार्यालय न आ रहे हों। इसका असर भी हुआ: जीडीपी के संदर्भ में सितंबर 2021 तिमाही में सरकार की खपत सितंबर 2019 की तुलना में 17 फीसदी कम रही। अगर इसमें कोविड के पहले की गति से वृद्धि हुई होती तो सकल जीडीपी सितंबर 2019 की तुलना में 19 फीसदी अधिक होता।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पास सरकार द्वारा खर्च न किए जा सके धन की बात करें तो वह 4.7 लाख करोड़ रुपये यानी जीडीपी के 2 फीसदी के बराबर है। कर प्राप्तियां बजट अनुमान से बहुत बेहतर रही हैं, बॉन्ड बाजार भी केंद्र और राज्यों के उच्च राजकोषीय घाटे के लिए तैयार है। राज्य सरकारों ने भी गत दो वर्ष में अनुमान से कम कर्ज लिया है। यानी क्रियान्वयन की समस्या है। व्यय की कमी इस बात में भी दिख रही है कि घाटा अनुमान से काफी कम है।
गत वर्ष घाटे का संशोधित अनुमान जीडीपी के 4.7 फीसदी का था। संशोधित अनुमान नौ महीनों के वास्तविक तथा शेष तीन महीनों के अनुमानित आंकड़ों के साथ जारी किया जाता है। वित्त वर्ष 2021 के घाटे का अंतिम आंकड़ा तब सामने आएगा जब राज्य वित्त वर्ष 2023 का बजट पेश करेंगे। परंतु राज्यों की बाजार उधारी तथा वर्षांत में उनके पास बची नकदी के आधार पर मोटा अनुमान लगाया जा सकता है। इसके हिसाब से देखें तो घाटे का अनुपात करीब 3 फीसदी बैठता है जो संशोधित अनुमान से काफी कम है और कोविड के पहले के 2.5 से 3 फीसदी के स्तर से बहुत अलग नहीं है। मौजूदा रुझान के अनुसार भले ही राज्यों द्वारा वित्त वर्ष 2022 के लिए प्रस्तुत संशोधित अनुमान  3.6 फीसदी के बजट में उल्लिखित अनुमान से अधिक हों लेकिन अंतिम तौर पर यह 3 फीसदी या उससे कम रहेगा।
सामान्य शब्दों में कहें तो राज्य व्यय लक्ष्य में पिछड़ रहे हैं: वित्त वर्ष 21 और 22 में व्यय को जीडीपी के रिकॉर्ड 19 फीसदी तक बढऩा था। यानी कोविड के पहले के 15 और 16 फीसदी से काफी अधिक। हालांकि स्वास्थ्य पर अतिरिक्त खर्च तथा महामारी के दौरान सब्सिडी पर खर्च के बावजूद यह लक्ष्य से 1.5 फीसदी पीछे रह सकता है। राज्यों के व्यापक व्यय लक्ष्यों का इतिहास रहा है और कई बार घाटे का अंतिम आंकड़ा अनुमान से कम रहा है लेकिन बीते दो वर्षों में यह खाई चौड़ी हुई है। जबकि इस अवधि में सरकारों ने भी मांग बढ़ाने के लिए दखल दिया। उच्च घाटे के संकेत के साथ सरकारों ने बाजारों को निजी निवेश व्यय में कमी के लिए तैयार किया। ब्याज दर बढ़ी लेकिन चूंकि राज्य व्यय करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं इसलिए जरूरी आर्थिक समर्थन भी पहुंचा। लागत का बोझ वहन किया गया लेकिन लाभ नहीं नजर आए।
राज्यों के व्यय में राजस्व व्यय की हिस्सेदारी काफी अधिक रहती है। शिक्षा, समाज कल्याण, पेंशन एवं ब्याज आदि मिलकर कुल व्यय का करीब आधा हिस्सा होते हैं, ऐसे में पूंजीगत व्यय कुल व्यय का बमुश्किल छठा हिस्सा होता है। ऐसे में लक्ष्य चूक जाने की वजहों की कल्पना करना मुश्किल नहीं है। आर्थिक अस्थिरता ने सामान्य बजट निर्माण की चूकों को बढ़ाया और लॉकडाउन ने परियोजना प्रबंधन की चुनौतियों को। सरकारी प्रक्रियाएं दूर से काम को लेकर तैयार नहीं हैं: वहां तो अगर कर्मचारी कार्यालय में नहीं है तो फाइल भी एक टेबल से दूसरे तक नहीं जाती। कर्मचारियों के पास ऐसे हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर नहीं होते कि वे दूर से काम कर सकें।
ऐसे में यह मान लेना उचित है कि राज्य सरकारों में सामान्य कामकाज की वापसी वृद्धि का अहम उत्प्रेरक है। वित्त वर्ष 2022 में पूंजीगत व्यय के वित्त वर्ष 2020 की तुलना में 60 फीसदी ज्यादा होने का अनुमान था यानी जीडीपी का करीब एक फीसदी अधिक। सड़क, पुलों, सिंचाई और जलापूर्ति आदि पर होने वाला यह व्यय वृद्धि को अत्यधिक बल प्रदान करता है। यानी जीडीपी को एक फीसदी से अधिक की गति प्रदान की जा सकती है। राज्यों के व्यय में सुधार के नजरिये से देखें तो कोविड की तीसरी लहर भी बहुत खराब समय पर आई है परंतु दक्षिण अफ्रीका और ब्रिटेन के घटनाक्रम के आधार पर आशा की जा रही है कि यह लहर छोटी होगी। केंद्र के लिए वर्ष के बीच में व्यय में इजाफा मोटे तौर पर खाद्य सब्सिडी, उर्वरक सब्सिडी, मनरेगा और टीकाकरण में हुआ। इनमें से केवल टीकाकरण को तेजी से गति देने की आवश्यकता थी। अन्य मामलों को पहले ही आधार से जोड़ा जा चुका था इसलिए बिना लीकेज की आशंका के बड़े पैमाने पर फंड जारी किया जा सकता था। ये सभी व्यय स्थायी नहीं हैं और इन्हें जरूरत के मुताबिक वापस लिया जा सकता है। सड़क, रेल और पेयजल पर पूंजीगत व्यय का क्रियान्वयन भी लक्ष्य के अनुरूप रहा है। हालांकि कई विभाग व्यय लक्ष्य हासिल करने में पिछड़े हैं।
सरकारों और खासतौर पर राज्य सरकारों की बात करें तो ये विसंगतियां कारोबारियों के अनुकूल योजना के लिए चेतावनी हैं। वृहद आर्थिक नजरिये से देखें तो बढ़े हुए कर्ज-जीडीपी अनुपात को सुरक्षित स्तर पर लाने के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादक व्यय को बढ़ाया जाए। सरकारी व्यय यानी घाटे को कम करने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए। उच्च नकदी संतुलन से यह जोखिम भी बढ़ जाता है कि कहीं सरकार गैर किफायती खर्च न करने लगे। इससे सामाजिक विसंगति उत्पन्न हो सकती है या स्थायी देनदारी निर्मित हो सकती है जो कई वर्षों तक राजकोषीय गुंजाइश नहीं रहने देगी। राज्यों की राजकोषीय स्थिति भी हर मानक पर अलग-अलग है: पंजाब, हरियाणा और केरल जैसे राज्यों के लिए ब्याज की लागत पहले ही कुल बजट व्यय के छठे हिस्से के बराबर है। कुल व्यय के बजट अनुमान से कम रहने के कारण इसमें और इजाफा संभव है।
राज्य और केंद्र सरकार अगले वर्ष के बजट की तैयारी में हैं। ऐसे में ध्यान राजकोषीय गुंजाइश की उपलब्धता से उत्पादक व्यय की ओर स्थानांतरित हो गया है। यदि भारत का कर-जीडीपी अनुपात बढ़ता रहता है तो आने वाले वर्षों में नीति निर्माताओं के समक्ष अहम प्रश्न खड़े होंगे।

First Published - January 12, 2022 | 11:22 PM IST

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