प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब देश को सरकार के राहत और प्रोत्साहन पैकेज के बारे में जानकारी देते हुए अपने टेलीविजन संदेश में आत्मनिर्भरता की अवधारणा प्रस्तुत की तब वह देश को अलग-थलग करने वाली नीतियों को अलग से चिह्नित करने को लेकर सतर्क थे। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भरता देश को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोडऩे में मदद करेगी। बाद के दिनों में कुछ वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने भी जोर देकर कहा कि आत्मनिर्भरता का अर्थ संरक्षणवाद नहीं है। इसके बावजूद हाल के दिनों में संरक्षणवाद की वापसी होती दिख रही है। बीते सप्ताह दो बार-एक बार रेडियो प्रसारण में और दूसरी बार कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि आयात को कम करना एक लक्ष्य है। सैद्धांतिक तौर पर यह देश की बढ़ती प्रतिस्पर्धी क्षमता की वजह से हो सकता है लेकिन गृहमंत्री अमित शाह की हाल की टिप्पणियां इस बारे में कहीं अधिक स्पष्ट रहीं। उन्होंने भारतीयों से आग्रह किया कि वे केवल भारत में बनी वस्तुओं का इस्तेमाल करें। यह पूछे जाने पर कि क्या इससे अर्थव्यवस्था अलग-थलग और कमजोर नहीं पड़ेगी, उन्होंने कहा कि उनका दृढ़ विश्वास है कि इससे अर्थव्यवस्था कमजोर नहीं होगी और न ही हम अलग-थलग पड़ेंगे क्योंकि पूरी दुनिया को भारत के 130 करोड़ आबादी वाले मजबूत बाजार की आवश्यकता है।
अगर इन वक्तव्यों को एक साथ देखा जाए तो इस बात की अनदेखी करना मुश्किल है कि सरकार संरक्षणवाद और आयात प्रतिस्थापन की ओर वापसी कर रही है और वह इसे आर्थिक नीति की बुनियाद बनाना चाहती है। ऐसे कदम की प्रेरणा समझी जा सकती है। भारत विनिर्मित वस्तुओं का बड़ा आयातक है और इनमें से कई वस्तुएं भले ही अंतिम तौर पर भारत में तैयार होती हों लेकिन उनमें स्थानीय मूल्यवद्र्धन बहुत मामूली होता है। वैश्विक स्तर पर कई देश आयात पर निर्भरता को लेकर असंतोष प्रकट कर रहे हैं। खासतौर पर महामारी के आगमन के बाद चीन से होने वाले आयात को लेकर। ऐसे में चीन से आयात की जगह देसी विनिर्माण को बढ़ावा देने का विचार मौजूदा विचार प्रक्रिया के अनुकूल ही है। इस लक्ष्य को समझा जा सकता है लेकिन फिलहाल तरीके बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। विनिर्माण को बढ़ावा देने वाले सुधार के बजाय सीधे संरक्षणवादी रुख अपनाना देश के निर्यात, घरेलू प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ताओं तीनों को नुकसान पहुंचाएगा।
आयात प्रतिस्थापन और संरक्षणवाद के खतरे भारत को अच्छी तरह पता होने चाहिए। सन 1991 में उदारीकरण की शुरुआत इसीलिए हुई क्योंकि अंतर्मुखी आर्थिक मॉडल के कारण अर्थव्यवस्था में ठहराव था और बार-बार संकट का सामना करना पड़ता था। कुछ लोग कहेंगे असल समस्या घरेलू लाइसेंसिंग व्यवस्था के कारण थी। यह बात आर्थिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टि से गलत है। सच तो यह है कि आयात प्रतिस्थापन के लिए बनी नीतियों के प्रभाव से सभी भलीभांति अवगत हैं। इसके लिए भारत ही नहीं दुनिया के अन्य देशों के अनुभव भी हमारे पास हैं। इससे आर्थिक रूप से अव्यवहार्य और गैर प्रतिस्पर्धी उत्पादन का संरक्षण होता है जो घरेलू पूंजी और विदेशी मुद्रा दोनों की अनुचित खपत करता है। असल दिक्कत यह है कि देश का विनिर्माण गैर प्रतिस्पर्धी है और इसी वजह से इसे सरकारी नीतियों और सुधार की आवश्यकता है। ऐसे में आयात प्रतिस्थापन बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। दुख की बात यह है कि इस तरह के आत्मनिर्भर भारत के खतरे अब सामने आते जा रहे हैं। यह भी प्रतीत हो रहा है कि पहले किया गया वह दावा भी निरर्थक था कि इससे भारत के दरवाजे शेष विश्व के लिए बंद नहीं होंगे।