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अमेरिका की रिटेल दिग्गज वॉलमार्ट बेंगलूरु की ई-कॉमर्स फर्म फ्लिपकार्ट में अपना हिस्सा बढ़ाने से सुर्खियों में है जिसमें उसका हिस्सा अब 80 फीसदी से अधिक हो गया है। सिक्योरिटीज ऐंड एक्सचेंज कमीशन को दी गई सूचना में बेंटनविल मुख्यालय वाली श्रृंखला ने पुष्टि की कि उसने कुछ दिन पहले अतिरिक्त शेयर खरीदने के लिए 3.5 अरब डॉलर का भुगतान किया है। इनमें बिन्नी बंसल से खरीदे गए शेयर भी शामिल हैं जिन्होंने वर्ष 2007 में सचिन बंसल (दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं) के साथ फ्लिपकार्ट की सह-स्थापना की थी।
ताजा सौदे से फ्लिपकार्ट का मूल्यांकन करीब 35 अरब डॉलर बैठता है। वर्ष 2018 में जब वॉलमार्ट ने फ्लिपकार्ट में 16 बिलियन डॉलर में बहुलांश हिस्सा खरीदा था तो फ्लिपकार्ट का मूल्यांकन करीब 21 अरब डॉलर था। लेकिन यहां बात यह नहीं है कि फ्लिपकार्ट का मूल्यांकन पांच साल के अंदर 21 अरब डॉलर से बढ़कर 35 अरब डॉलर हो गया। असल में स्टार्टअप की दुनिया में मूल्यांकन का घटना-बढ़ना सबसे सामान्य बात है, बशर्ते फ्लिपकार्ट को अब भी अगर उस चंचल दुनिया का सदस्य माना जाए।
सबसे असाधारण बात है उस कंपनी में फ्लिपकार्ट का स्वामित्व 80 प्रतिशत से अधिक हो जाना जो भारतीय बाजार में उत्पादों की व्यापक रेंज के लिए घर -घर में जाना पहचाना नाम है और जो इलेक्ट्रॉनिक्स, फैशन, ग्रॉसरी, किताबें और अन्य सामान मुहैया कराती है। किसी भी ऑनलाइन मार्केटप्लेस बिजनेस में 80 प्रतिशत या 100 फीसदी तक की विदेशी होल्डिंग मौजूदा नीति के तहत है लेकिन यह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि वॉलमार्ट की हिस्सेदारी में हाल में हुई वृद्धि ने करीब एक दशक पुरानी यादें ताजा कर दी हैं।
भारत में खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के मसले पर एक नजर डालते हैं। कई सालों के विचार-विमर्श और बनती-बिगड़ती योजनाओं के बाद मनमोहन सिंह सरकार ने बहुब्रांड खुदरा में 51 फीसदी प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। वॉलमार्ट जैसों को इसमें काफी संभावना दिखी। टेस्को और कार्फू जैसी कंपनियां भी तैयार बैठी थीं। लेकिन अचानक मनमोहन सरकार की बहुब्रांड नीति में ऐसी कई शर्तें जड़ दी गईं जिनको पूरा करना कठिन था।
ये शर्तें किराना या पड़ोस की दुकानों के बचाव के लिए लगाई गई थीं ताकि मोटी जेब वाले वैश्विक रिटेलरों से उनकी रक्षा की जा सके। सबसे बड़ी चिंता पारंपरिक खुदरा व्यापार में रोजगार छिनने की थी। लेकिन 2014 में जब भाजपा सरकार आई तो एफडीआई नीति को टाल दिया गया। इस तरह वॉलमार्ट जैसों के बहुब्रांड के सपने पर विराम लग गया।
इस पृष्ठभूमि में यह चौंकाने वाली बात है कि खुदरा एफडीआई में नीतिगत प्रतिबंधों के करीब एक दशक बाद वॉलमार्ट अब फ्लिपकार्ट में 80 फीसदी से अधिक की मालिक है और वह फ्लिपकार्ट को वन स्टॉप शॉपिंग डेस्टिनेशन के तौर पर बताती है। जहां नीतिगत बाधा के कारण अमेरिकी रिटेलर किसी भौतिक वन स्टॉप शॉपिंग डेस्टिनेशन (मल्टीब्रांड मेगास्टोर) में 51 फीसदी का हिस्सा भी नहीं ले पाई, वहीं अब ऑनलाइन वन स्टॉप शॉपिंग डेस्टिनेशन में उसके पास इससे कहीं ज्यादा हिस्सा है और संभवतया वह समान ग्राहक आधार की जरूरत पूरी कर रही है।
अगर इजाजत दी जाती तो वॉलमार्ट के भौतिक स्टोर- हाइपर मार्केट से लेकर सुपरमार्केट तक-सीमित संख्या में ही होते लेकिन फ्लिपकार्ट मार्केटप्लेस मॉडल के जरिए वॉलमार्ट की ऑनलाइन मौजूदगी भारत के हर पिनकोड तक है जिसमें ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्र शामिल हैं।
वॉलमार्ट की इंडिया स्टोरी में यह मोड़ इसलिए नहीं है कि रिटेलर उस बाजार में बने रहने के लिए जुटा था जिसे वह बेशकीमती मानता था। तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद यह व्यापार के लिए भारत का प्राथमिकता वाला क्षेत्र बनकर उभरने के बारे में है। इन प्रतिकूलताओं में लालफीताशाही, अफसरशाही, नीतिगत पंगुता जैसी चीजें शामिल की जा सकती हैं। और यह सब भू-राजनीतिक परिवर्तन, जिसमें चाइना प्लस का विमर्श भी शामिल है, आने से बहुत पहले ही हो गया। वॉलमार्ट वर्षों से विदेशी रिटेल का चेहरा मानी जाती रही है वही अन्य-मुख्य तौर पर एमेजॉन और ऐपल- जो कारोबार के विभिन्न स्वरुपों का चेहरा हैं, ने भी इंडिया स्टोरी को आगे बढ़ाने में योगदान दिया है।
अगर वॉलमार्ट ने प्राथमिक जोर के रूप में ई- कॉमर्स मार्केटप्लेस का विकल्प अपनाने के लिए अपने भारतीय कारोबार की प्राथमिकताओं में बदलाव किया है तो एमेजॉन ने भी भारत में अच्छे से अच्छा करने का विकल्प चुना है। क्योंकि भारत में विदेशी ई-कॉमर्स कंपनियों के लिए भंडार आधारित स्वरूप प्रतिबंधित क्षेत्र था, लिहाजा एमेजॉन भी फ्लिपकार्ट- वॉलमार्ट की तरह भारत में केवल मार्केटप्लेस बिजनेस बन गई।
ऐपल सिंगल ब्रांड रिटेल के तहत आती है जिसमें मल्टी ब्रांड रिटेल की तुलना में एफडीआई को लेकर थोड़ी ज्यादा नरमी है, वह थर्ड पार्टी वेंडरों के जरिये अपने भारत विनिर्माण प्लान पर आगे बढ़ी। इस दौरान सरकार से वर्षों तक बातचीत चलती रही। हाल में उसने भारत में अपने सिग्नेचर स्टोर खोले हैं।
खुदरा के बदलते क्षेत्र के कारण यह सब असामान्य बात है, जिसमें एफडीआई के तौर पर वॉलमार्ट की भारत में मजबूत उपस्थिति भी शामिल है। भारतीय बाजार में उपभोग मापने के लिए वॉलमार्ट, एमेजॉन और ऐपल एक तरह के सूचकांक हैं, ठीक वैसे ही जैसे नेस्ले, यूनिलीवर, रिलायंस रिटेल या किराना स्टोर हैं। बड़े विदेशी निवेशक दुनिया में निर्यात करने के लिए न केवल भारत से सामान जुटा रहे हैं बल्कि उनके बोर्ड रूम में, फिर चाहे वह बेंटनविल, सिएटल या क्यूपरटिनो हो, भारत को लेकर प्रमुखता से चर्चा की जाती है।
इन सबके अलावा एक और खास बात यह है कि जिन विदेशी दिग्गजों के कारण भारतीय खुदरा में रोजगार छिनने की आशंका जताई गई थी, उन्होंने रोजगार सृजित करने की रफ्तार बढ़ा दी है और यह रोजगार सैकड़ों, हजारों में नहीं बल्कि लाखों में है। और हां दीवाली भी, अब उनके संबंधित कारोबारों में ठीक वैसे ही शामिल है, जैसे क्रिसमस। जाहिर है, इसका इससे कोई संबंध नहीं है कि ई-कॉमर्स नीति क्या शक्ल लेती है या एफडीआई के नियमों में क्या बदलाव आता है?
वर्ष 2013 में वॉलमार्ट एशिया के तब के मुख्य कार्यकारी स्कॉट प्राइस ने भारती समूह के साथ संयुक्त उपक्रम को अस्थिर बताते हुए कहा था कि एफडीआई निकल गया है। उन्होंने एफडीआई नीति में खामी का हवाला देते हुए इसे तोड़ने का ऐलान किया था। आज दस साल बाद कह सकते हैं कि विभिन्न क्षेत्रों में और बड़े पैमाने पर चीजें आगे बढ़ी हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो नई दिल्ली में एमेजॉन के कारोबारी सम्मेलन में एक मंत्री क्यों चंद्रयान मिशन की बात करता या वॉलमार्ट पहली बार भारत में क्यों अपना विशाल विक्रेता सम्मेलन करवाती?