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क्या वैश्विक व्यापार संकट में भारत बना सकता है वैश्विक विनिर्माण महाशक्ति?

विनिर्माण क्षेत्र की संपूर्ण संभावनाओं का लाभ उठाने और इसके पराभव की दिशा को पलटने के लिए गहन केंद्रित प्रयासों की जरूरत है।

Last Updated- May 26, 2025 | 11:06 PM IST
Manufacturing Sector
प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो

बीते कुछ सप्ताहों के दौरान दुनिया का ध्यान तेजी से वैश्विक व्यापार की ओर गया है। इसकी वजह रही है अमेरिकी प्रशासन द्वारा आयात टैरिफ में भारी इजाफा। इन बदलावों ने आर्थिक प्रतिस्पर्धा को लेकर बहस को नए सिरे से जगा दिया है। भारत के लिए इसमें चुनौतियां और अवसर दोनों छिपे हैं: निर्यातकों को जहां उच्च व्यापार गतिरोधों का सामना करना पड़ सकता है वहीं इस बात की भी संभावना है कि वे अपनी वैश्विक बाजार हिस्सेदारी में इजाफा कर सकें। परंतु लाख टके का सवाल यही है कि भारत कौन-सी रणनीति अपनाएगा?

अपने बड़े आकार के बावजूद भारत विनिर्माण क्षेत्र की वैश्विक मूल्य श्रृंखला (जीवीसी) में शामिल होने के लिए संघर्ष करता रहा है जबकि उसके अन्य एशियाई साझेदारों के साथ ऐसी बात नहीं है। वैश्विक विनिर्माण निर्यात में भारत की हिस्सेदारी हाल के वर्षों में कमोबेश स्थिर रही है और वह 2017 के 1.7 फीसदी से बढ़कर 2023 में 1.8 फीसदी तक पहुंची है। इसी समान अवधि में वियतनाम की हिस्सेदारी 1.5 फीसदी से बढ़कर 1.9 फीसदी पहुंच गई है। इससे पता चलता है कि वियतनाम वैश्विक स्तर पर विनिर्माण व्यवस्था के साथ अधिक गहराई से जुड़ा है और वह अधिक निर्यातोन्मुखी है। आगे बढ़ने के लिए यह आवश्यक है कि जीवीसी में अपने प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले भारत की भागीदारी को सीमित करने वाली संरचनात्मक बाधाओं को चिह्नित किया जाए और उनका समाधान किया जाए।

हाल ही में जारी सीएसईपी प्रतिस्पर्धी सूचकांक में विनिर्माण प्रतिस्पर्धा के छह स्तंभों- कारक परिस्थितियां, मांग के हालात, कंपनियों की रणनीति, सहायक उद्योग, नियामक गुणवत्ता और वैश्विक व्यापार नीति- के आधार पर भारत की तुलना प्रमुख ‘चीन प्लस वन’ एशियाई अर्थव्यवस्थाओं मसलन मलेशिया, वियतनाम, थाईलैंड और इंडोनेशिया के साथ की गई।

इसके निष्कर्ष बताते हैं कि भारत अधिकांश स्तंभों के मामले में समकक्ष देशों से पीछे है। उच्च टैरिफ, कम शोध एवं विकास निवेश, कंपनियों का अत्यधिक केंद्रीकरण, मुक्त व्यापार समझौतों यानी एफटीए में सीमित भागीदारी आदि इन ढांचागत दिक्कतों के कुछ हिस्से हैं। वाहन कलपुर्जे, औषधि, वस्त्र और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में औद्योगिक मशविरे भी इसकी पुष्टि करते हैं। ये रेखांकित करते हैं कि इन क्षेत्रों में निरंतर प्रतिस्पर्धी चुनौतियां बरकरार हैं।

इन कारकों की वजह से ही सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी में निरंतर गिरावट आई है। यह 2015 के 16 फीसदी से घटकर 2023 में 13 फीसदी रह गई। लगातार नीतिगत प्रयास करने के बावजूद ऐसा हुआ। इस रुख को बदलने के लिए भारत को साहसी, दूरदर्शी रणनीति की आवश्यकता है जिसे चार अहम क्षेत्रों पर केंद्रित रहना चाहिए: टैरिफ को युक्तिसंगत बनाना, एफटीए को प्रगाढ़ बनाना, नियामकीय सुधार करना और तकनीक को अपनाने की गति तेज करना।

सबसे पहले, भारत की उच्च और बंटी हुई टैरिफ व्यवस्था के कारण कच्चे माल की लागत बढ़ती है, निर्यात प्रतिस्पर्धा कम होती है और कंपनियां वैश्विक बाजारों के बजाय घरेलू बाजार पर अधिक ध्यान देती हैं। टैरिफ संबंधी सुधारों को केवल राजकोषीय दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि इन्हें वैश्विक मूल्य श्रृंखला से एकीकरण की एक रणनीति के रूप में भी देखा जाना चाहिए जिनके जरिये करीब 70 फीसदी वैश्विक व्यापार होता है। शुल्क वापसी की योजनाओं ने जरूर कुछ राहत प्रदान की लेकिन वे अपर्याप्त हैं। जरूरत इस बात की है कि टैरिफ में एक व्यापक आपूर्ति श्रृंखला आधारित कमी की जाए बजाय कि चुनिंदा समायोजन करने के।

दूसरी बात, भारत को मुक्त व्यापार समझौतों को प्रगाढ़ बनाना होगा। नए साझेदारों के साथ समझौते करने होंगे और पुराने समझौतों को मजबूती देनी होगी। प्रमुख कारोबारी गुट मसलन क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) और प्रशांत पार साझेदारी के लिए व्यापक एवं प्रगतिशील समझौते (सीपीटीपीपी) वियतनाम जैसे निर्यातकों की तुलना में भारत के निर्यात को पीछे धकेलते हैं।

ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात और यूरोपीय मुक्त व्यापार महासंघ (ईएफटीए) तथा यूनाइटेड किंगडम के साथ गत 6 मई को हुए मुक्त व्यापार समझौते को प्रशंसनीय कदम माना जा सकता है। बहरहाल, भारत को यूरोपीय संघ के साथ समझौते को अंतिम रूप देना चाहिए जो एक प्रमुख बाजार और आपूर्तिकर्ता है। आज के कारोबारी तनाव और बहुपक्षीय व्यवस्था के कमजोर पड़ने के दौर में द्विपक्षीय समझौते ही राजनीतिक रूप से सर्वाधिक व्यावहारिक विकल्प हैं।

इन एफटीए में पारंपरिक टैरिफ कटौतियों से आगे बढ़कर व्यापक तत्वों को शामिल करना चाहिए। उन्हें निवेश के प्रवाह, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और सेवा व्यापार को सुविधाजनक बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसके साथ ही गैर टैरिफ बाधाओं को संबोधित करना चाहिए और मानकों की पारस्परिक मान्यता को भी बढ़ावा देना चाहिए।

तीसरा, नियामकीय सुधार भी कंपनियों के विकास के लिए आवश्यक हैं। मौजूदा श्रम कानूनों के मुताबिक श्रमिकों की संख्या एक खास सीमा को पार कर जाने के बाद कई तरह के अंकुश लग जाते हैं। इससे विस्तार को बढ़ावा नहीं मिलता। इन सीमाओं को बढ़ाकर और अनुपालन को सहज बनाकर बाधाओं को दूर किया जा सकता है। इसके अलावा प्रभावी शहरी नियोजन और किफायती आवास नीति भी श्रम की गतिशीलता और श्रमिकों और नियोक्ताओं के स्तर पर लागत कम करने के लिए जरूरी हैं। कामगारों के लिए डॉरमेटरी बनाने या परिवहन व्यवस्था सुधारने जैसे व्यावहारिक कदम कुशल श्रमिकों को आकर्षित कर सकते हैं, खासकर महिलाओं को जिनका श्रम शक्ति में बहुत कम प्रतिनिधित्व है। इन चुनौतियों को हल करने से श्रमिकों की कमी दूर करने में मदद मिलेगी, उत्पादकता बढ़ेगी और देश की विनिर्माण प्रतिस्पर्धा मजबूत होगी।

आखिर में, भारत को तकनीक को अपनाने को प्राथमिक देने की की जरूरत है और शोध एवं विकास में निवेश बढ़ाने की भी आवश्यकता है। मूल्य श्रृंखला में ऊपर जाने के लिए यह आवश्यक है। उच्च मूल्य वाली वस्तुओं के मामले हम वैश्विक समकक्ष देशों से पीछे हैं। हम अपने जीडीपी का केवल 0.6 फीसदी शोध एवं विकास पर व्यय करते हैं जबकि मलेशिया और थाईलैंड जैसे देश क्रमश: 0.9 और 1.2 फीसदी राशि इस पर खर्च करते हैं। विभिन्न सरकारी प्रोत्साहनों के बावजूद शोध एवं विकास में निजी योगदान कम है। अधिक खुली और प्रतिस्पर्धी बाजार व्यवस्था जरूरी है ताकि भारतीय कंपनियों को मूल्य श्रृंखला में आगे ले जाया जा सके। 

एक फलता-फूलता विनिर्माण उद्योग केवल वृद्धि से संबंधित नहीं है। यह देश की रोजगार संबंधी चुनौतियों से निपटने के लिए भी जरूरी है। जैसा कि 2023-24 की आर्थिक समीक्षा में भी कहा गया, भारत को सालाना 78.5 लाख गैर कृषि रोजगार तैयार करने की आवश्यकता है। सेवा क्षेत्र उच्च कौशल वाले पेशेवरों को काम दे सकता है लेकिन अर्द्धकुशल और अकुशल लोगों को कृषि से बाहर रोजगार देने के लिए विनिर्माण क्षेत्र की मजबूती जरूरी है।

जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी को मौजूदा 13 फीसदी से बढ़ाकर अगले एक दशक में 25 फीसदी करने के लिए (6.5 फीसदी की अनुमानित जीडीपी वृद्धि के साथ) इस क्षेत्र को सालाना औसतन 13.6 फीसदी की दर से विकसित होना होगा। इस स्तर की वृद्धि घरेलू मांग के माध्यम से नहीं हासिल की जा सकती है। इसके लिए कहीं अधिक मजबूत निर्यात प्रदर्शन भी जरूरी है। फिलहाल देश के पास अवसर है। इसका लाभ लेने के लिए मजबूती से कदम उठाने होंगे ताकि विनिर्माण की पूरी क्षमताओं का लाभ लिया जा सके।

(लेखक सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस में क्रमश: एसोसिएट फेलो, विजिटिंग सीनियर फेलो और विजिटिंग सीनियर फेलो हैं।)

First Published - May 26, 2025 | 11:06 PM IST

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