इस साल बजट में हुए आवंटन पर चर्चा के दौर लगभग थम गए हैं। ऐसे में यह पड़ताल होनी चाहिए कि सरकार के तीनों स्तर और दूसरी संबंधित एजेंसियां कौन से उपाय करें, जिनसे भारत के शहरों के लिए आवंटित एक-एक पैसे का ज्यादा से ज्यादा फायदा मिल सके।
पिछले कुछ साल की तरह इस बार भी शहरी मंत्रालय के लिए आवंटन कुल बजट का लगभग 2 फीसदी रहा है। लेकिन शहरी उप-क्षेत्रों और कार्यक्रमों में इसका वितरण बदल गया है। शहरी आवास की हिस्सेदारी घटी है और नई योजनाओं की शुरुआत धीमी गति से हो रही है। उनके बजाय पिछली योजनाओं के तहत मकानों का निर्माण पूरा करने पर जोर दिया जा रहा है। परिवहन विशेषकर मेट्रो रेल और बुनियादी सेवा क्षेत्रों के लिए आवंटन बढ़ा है क्योंकि ये योजनाएं पहले जैसी गति से चल रही हैं। स्मार्ट सिटी अभियान ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है मगर अर्बन चैलेंज फंड जोड़ दिया गया है, जिसका मकसद शहरों को नया रूप देना है।
शहरी आवास से शुरू करें तो जिन तीन योजनाओं के लिए सब्सिडी दी गई है, वे हैं 2015 से चल रही प्रधानमंत्री आवास योजना – शहरी (पीएमएवाई-यू) चरण 1, पीएमएवाई-यू चरण 2 और पिछले साल घोषित औद्योगिक आवासीय योजनाएं। शहरी आवास का तीन-चौथाई से अधिक बजट पीएमएवाई-यू के पहले चरण के तहत आवास निर्माण पर सब्सिडी देने के लिए है। इस चरण में 32 लाख आवास अभी बनने हैं, इसलिए नई आवासीय योजनाएं शुरू करने से पहले उनके निर्माण को प्राथमिकता देना समझदारी की बात है।
इस बजट में बिल्कुल ऐसा ही किया गया है। जो मकान बनने हैं, वे ज्यादातर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के परिवारों के लिए हैं, जिनकी सालाना आमदनी 3 लाख रुपये या उससे कम है। इन मकानों पर सब्सिडी दी जाती है, जिससे परिवार का निर्माण पर आने वाला खर्च कम हो जाता है। इस सब्सिडी में 2015 से कोई बदलाव नहीं किया गया है मगर मकान बनाने का खर्च बढ़ गया है और लाभार्थियों को इसमें ज्यादा रकम लगानी पड़ रही है। इसलिए इन गरीब परिवारों को पहले की तुलना में अधिक धन की दरकार हो जाती है। उनके लिए किफायती आवास ऋण की उपलब्धता बढ़ाना इसके समाधान का एक तरीका है। पीएमएवाई-यू के पहले चरण पर हुए शोध में भी बताया गया है कि इस तरह का कर्ज नहीं मिलना ईडब्ल्यूएस परिवारों के लिए बड़ी चुनौती है। इसलिए पीएमएवाई-यू चरण 1 के लाभार्थियों को पहले के मुकाबले अधिक आसानी से किफायती आवास ऋण उपलब्ध कराना जरूरी है।
प्रधानमंत्री आवास योजना – शहरी के दूसरे चरण के लिए आवंटन केवल आवास ऋण के ब्याज पर सब्सिडी देने के मकसद से किया गया है। इससे परिवारों की मासिक किस्त कम हो जाती है। इसमें 70 फीसदी आवंटन ईडब्ल्यूएस और निम्न आय वर्ग (सालाना आमदनी 3 लाख रुपये से 6 लाख रुपये के बीच) के लिए है। बाकी रकम मध्यम आय वर्ग (सालाना आमदनी 6 लाख रुपये से 9 लाख रुपये तक) के लिए है।
सीएसईपी में किए गए शोध बताते हैं कि पीएमएवाई-यू के पहले चरण में ऐसी ही आवास ऋण सब्सिडी योजना के तहत केवल 21 फीसदी लाभार्थी ईडब्ल्यूएस वर्ग से थे। इसलिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि इस योजना के दूसरे चरण में लाभ पाने वाले ईडब्ल्यूएस परिवारों का अनुपात पहले चरण से ज्यादा हो। यह भी जरूरी है कि दूसरे चरण में ऐसे परिवारों को ज्यादा आसानी के साथ वित्तीय संस्थाओं से आवास ऋण मिले।
औद्योगिक आवास के लिए आवंटन के तहत ऐसे मकान बनाने (उद्योगों के साथ मिलकर) के लिए सब्सिडी दी जाएगी, जो औद्योगिक कामगारों को किराये पर मिल सकें। इससे औद्योगिक वृद्धि तथा रोजगार को बढ़ावा भी मिलेगा और किराये के लिए अधिक मकान भी तैयार हो सकते हैं। इसी परियोजना में औद्योगिक कामगारों के साथ आम लोगों के लिए भी किराये के आवास बनाए जाएं तो उन लोगों को भी रिहायश मिल जाएगी, जो कारखानों के आसपास दूसरे काम-धंधे कर कामगारों को सेवा मुहैया कराते हैं। इस तरह औद्योगिक केंद्र जब शहरों में तब्दील होंगे तब अवैध और अनियोजित बस्तियां नहीं पनप पाएंगी।
शहरों की एक बड़ी आबादी के लिए मेट्रो रेल बहुत जरूरी है और साल-दर-साल इसके लिए बजट आवंटन बढ़ता जा रहा है। कुछ विशेषज्ञ इस बात पर चर्चा जरूर करते हैं कि क्या छोटे महानगरों में मेट्रो रेल वाकई बस की तुलना में ज्यादा कारगर है मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जैसे-जैसे शहरों का आकार और उनके भीतर भीड़ बढ़ेगी वैसे-वैसे ही मेट्रो ज्यादा जरूरी होती जाएगी। दिल्ली, मुंबई और बेंगलूरु जैसे शहरों के ज्यादातर निवासी आज मेट्रो के बगैर जीवन और आजीविका की कल्पना ही नहीं कर सकते। ऐसे में मेट्रो लाइन के आसपास सुनियोजित तरीके से सघन विकास को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। दिल्ली मास्टर प्लान 2041 में आवागमन केंद्रित विकास पर खूब जोर दिया गया है मगर योजना अभी तैयार ही की जा रही है। इस तरह की योजनाओं को अविलंब अमल में लाना चाहिए। उसके बाद ही मेट्रो ट्रेन न केवल परिवहन बेहतर करेंगी बल्कि शहरवासियों का जीवन भी बेहतर हो जाएगा।
अमृत तथा स्वच्छ भारत मिशन योजनाओं में जल, सफाई और ठोस कचरा प्रबंधन जैसी बुनियादी शहरी सेवाओं के लिए पूंजी निवेश का प्रावधान है। साथ ही नए अर्बन चैलेंज फंड में भी जल तथा सफाई परियोजनाओं पर खर्च का प्रावधान किया गया है। सरकारी आवंटन का अधिकतम लाभ उठाने के लिए शहरी स्थानीय निकायों को निजी क्षेत्र से भी निवेश हासिल कर इसमें लगाना चाहिए। किंतु ऐसा तभी हो सकेगा, जब निकायों की साख बेहतर होगी। अच्छा तो तब होगा जब कर तथा गैर-कर स्रोतों से होने वाली अपनी आय से ही वे रोजमर्रा के खर्च निकाल लें। इन खर्चों में वेतन, पेंशन और वाटर पंपिंग स्टेशन तथा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट चलाना तथा संभालना शामिल हैं। ये सभी खर्च ‘राजस्व व्यय’ की श्रेणी में आते हैं।
इक्रियर की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में भारत के 4000 से अधिक शहरी स्थानीय निकायों ने अपने कुल राजस्व से 5,000 करोड़ रुपये ज्यादा राजस्व व्यय कर डाला था। लेकिन इस अंतर को पाटना शहरी स्थानीय निकायों के वश में नहीं है। उदाहरण के लिए 74वें संविधान संशोधन को तीन दशक से ज्यादा बीत चुके हैं मगर ज्यादातर राज्यों में इन निकायों को अपने राजस्व के प्रमुख स्रोत यानी संपत्ति कर में किसी भी तरह के इजाफे के लिए राज्य सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती है। इसलिए राज्य सरकार के राजनीतिक और प्रशासनिक लक्ष्यों का तालमेल स्थानीय निकायों के लक्ष्यों के साथ होना जरूरी है। ऐसा तालमेल इस साल के केंद्रीय बजट आवंटन का अधिक से अधिक फायदा उठाने के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि शहरों के जरिये वृद्धि की महत्त्वाकांक्षा पूरी करने के लिए भी जरूरी है।
(लेखिका सीएसईपी में विजिटिंग फेलो हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)