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Budget 2025-26: बजट में दिख पाएगा कुछ अलग करने का साहस?

क्या भारत कुछ अलग करने का साहस दिखा सकता है? क्या कमजोर वृद्धि के बाद भी वह राजकोषीय घाटे के लक्ष्य पर अडिग रह सकता है?

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प्रांजुल भंडारी   
Last Updated- January 29, 2025 | 10:49 PM IST

साल का यह बहुत अहम समय है। फरवरी की पहली तारीख को वित्त वर्ष 2025-26 का बजट पेश किया जाएगा और उसके हफ्ते भर के भीतर 7 फरवरी को भारतीय रिजर्व बैंक की नीतिगत बैठक शुरू हो जाएगी। नीति निर्माताओं के सामने बेहद पेचीदा स्थिति आ गई है। सार्वजनिक पूंजीगत व्यय को फिर शुरू करना, उपभोक्ता मांग को बढ़ावा देना और राजकोषीय घाटे के बारे में तय रास्ते पर आगे बढ़ना कोई आसान बात नहीं है। आसान बात इसलिए नहीं है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर एकदम धीमी है, कर राजस्व में भी सुस्त रफ्तार से इजाफा हो रहा है तथा विदेश में तस्वीर अनिश्चितता भरी है।

सबसे पहले दुनिया पर नजर डालते हैं। फेडरल रिजर्व ने 2025 में दर कटौती की तो अमेरिका में बॉन्ड यील्ड गिर सकती है मगर डॉलर ऊंचा ही बना रहेगा क्योंकि इसे अमेरिका के अपवाद भरे प्रदर्शन से ही नहीं बल्कि वहां बदलती शुल्क नीतियों और अप्रत्याशित भू-राजनीति से भी ताकत मिलती है। इससे उभरते बाजारों की मुद्राओं जैसे रुपये पर दबाव पड़ रहा है और उसमें आगे भी गिरावट बनी रह सकती है।

देश की बात करें तो वृद्धि दर 6.5 फीसदी से भी नीचे जा चुकी है। नीतिगत बढ़ावे से यह बढ़कर 6.5 फीसदी तक पहुंच सकती है। मगर बढ़ावा देने लिए उपाय क्या हो – खजाने से ज्यादा सहारा दिया जाए या मौद्रिक नीति में नरमी बरती जाए?

सबसे पहले राजकोषीय स्थिति समझते हैं। अच्छी खबर है कि सरकार राजकोषीय घाटे को चालू वित्त वर्ष के अपने लक्ष्य से भी नीचे ला सकती है। बजट में इसे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.9 फीसदी पर रोकने का लक्ष्य था मगर यह और घटकर 4.8 फीसदी रह सकता है। ऐसा बजट अनुमान से कम सार्वजनिक पूंजीगत व्यय के कारण हो रहा है। चुनावी साल में आसानी से मंजूरी नहीं मिलने के कारण व्यय धीमा रहा है।

किंतु वित्त वर्ष 2026 मुश्किल हो सकता है। पिछले कुछ महीनों में शेयर बाजार गिरने से पूंजीगत लाभ कर में वृद्धि लड़खड़ा सकती है। लेकिन चुनाव निपट जाने के कारण पूंजीगत व्यय फिर तेजी पकड़ सकता है। यह अच्छा विचार है क्योंकि आम तौर पर केंद्र ही इतना पूंजीगत व्यय कर देता है कि राज्यों के लिए पूंजीगत व्यय की गुंजाइश ही नहीं बचती। ध्यान रहे कि पूंजीगत व्यय से फौरन रोजगार ही नहीं आता बल्कि मध्यम अवधि मे तेजी से वृद्धि करने की क्षमता भी पैदा होती है।

ऐसे में वित्त मंत्रालय के वादे के मुताबिक राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.5 फीसदी से कम तभी किया जा सकता है, जब मौजूदा व्यय में कटौती की जाए। सब्सिडी तथा केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर खर्च कम करना मुश्किल हो सकता है असंभव नहीं। जब खर्च को दुरुस्त करना था तब केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर खर्च धीमा हो गया था मगर पिछले कुछ साल में इन पर खर्च फिर बढ़ गया है। शायद एक बार फिर खर्च को कसना पड़ेगा।

बजट के गुणा-भाग में उम्मीद की किरण भी है। चूंकि हम अच्छी गुणवत्ता वाले पूंजीगत व्यय में तेजी की अपेक्षा कर रहे है, इसलिए खजाने को मजबूती देने के बाद भी अगले वित्त वर्ष में राजकोषीय प्रोत्साहन पहले जैसा ही रह सकता है। अगर मान लें कि राजकोषीय प्रोत्साहन पहले जैसा ही रहेगा तो असली प्रोत्साहन मौद्रिक नीति से ही आएगा। हकीकत में ऐसा होता दिख रहा है। सब्जियों की फसल अच्छी होने के कारण जनवरी में उपभोक्ता कीमतें केवल 4.2 फीसदी बढ़ने का अनुमान है, जो अक्टूबर में 6.2 फीसदी बढ़ी थीं। अगर गेहूं की कटाई भी उसकी बोआई की तरह बढ़िया रही तो महंगाई घटने का सिलसिला वित्त वर्ष 2026 में भी जारी रह सकता है। हां, कमजोर रुपया मुद्रास्फीति को चढ़ाएगा मगर अनुमान हैं कि अगले वित्त वर्ष में औसत मुद्रास्फीति 4 फीसदी के लक्ष्य के आसपास ही रहेगी।

फिर मौद्रिक नीति क्या भूमिकाएं निभा सकती है? हमारे हिसाब से कई भूमिकाएं। हमें लगता है कि दर कटौती में अब ज्यादा देर नहीं है। हमें नहीं लगता कि उसकी वजह से डॉलर के मुकाबले रुपया गिरेगा क्योंकि इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया जैसे कई अन्य उभरते बाजारों में दरें घटाई गई हैं मगर वहां डॉलर के मुकाबले उनकी मुद्रा नहीं गिरी। हां, ध्यान रहे कि जोश में दरें एकदम बहुत ज्यादा नहीं घटा देनी हैं।

इसके बाद तरलता की बात आती है। तरलता बढ़ाने के लिए ओएमओ परिचालन, फॉरेक्स स्वैप, लंबी अवधि की वेरिएबल रेट-रीपो और नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) में कटौती जैसे कई उपाय पहले ही किए जा चुके हैं। जरूरी है कि किसी एक उपाय पर बहुत अधिक निर्भर रहने के बजाय सभी उपाय थोड़े-थोड़े इस्तेमाल होते रहें। इनके जरिये अच्छी खासी तरलता बढ़ाएंगे तो अर्थव्यवस्था को दम मिलेगा।

अंत में सबसे जरूरी पहलू और वह है रुपया। लचीली विनिमय दर और रुपये में कमजोरी कमाल कर सकती है। सबसे पहले तो इससे भारत का निर्यात (विशेषकर सेवा निर्यात) दूसरे देशों के निर्यात से होड़ कर सकता है, जिससे वृद्धि को बल मिलेगा। दूसरा, विदेशी मुद्रा में कम हस्तक्षेप से देश के भीतर तरलता की तंगी कम हो सकती है। तीसरा, इससे दर और तरलता नीति को मुद्रा बचाने के बजाय वृद्धि बढ़ाने का मौका मिल जाता है। चौथा, इससे उन ऊंचे आयात शुल्कों से होने वाला नुकसान कम या खत्म हो जाएगा, जो दुनिया के अहम देश लगा सकते हैं। पांचवां, निर्यात होड़ करेगा तो भारत वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बनने के लिहाज से आकर्षक जगह लग सकता है।

पांचवां पहलू अहम है। भारत को अभी तक अमेरिकी व्यापार तनावों से बहुत फायदा नहीं मिल पाया है मगर दुनिया भर में शुल्कों का डर उसके लिए मौका बन सकता है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के चश्मे से देखें तो भारत को तकनीक के ठीकठाक इस्तेमाल वाले वस्त्र और फर्नीचर जैसे क्षेत्रों में अभी तक ज्यादा एफडीआई नहीं मिल पाया है। विदेश से ज्यादा निवेश आएगा तो वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए जरूरी रोजगार सृजन भी हो जाएगा।

लेकिन भारत को यह मौका लपकने के लिए कई मोर्चों पर मेहनत करनी होगी। उसे विनियम दर लचीली रखनी होगी, उत्पादन की लागत कम रखने के लिए देसी आयात शुल्कों पर अंकुश रखना होगा, दुनिया भर से एफडीआई का स्वागत करना होगा और मुक्त व्यापार समझौतों का विस्तार करना होगा। अमेरिका जैसी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते भारत के लिए खास तौर पर फायदेमंद हो सकते हैं क्योंकि इनसे श्रम के अधिक इस्तेमाल वाले भारतीय निर्यात पर लगे शुक्ल कम होंगे।

तो क्या भारत कुछ अलग करने का साहस दिखा सकता है? क्या कमजोर वृद्धि के बाद भी वह राजकोषीय घाटे के लक्ष्य पर अडिग रह सकता है? खपत को प्रोत्साहन की मांग के बाद भी पूंजीगत खर्च पर जोर दे सकता है? नीतिगत दरों में जल्द कटौती कर सकता है? रुपये की कमजोरी से बेपरवाह रह सकता है? पूरी दुनिया कुछ भी करे क्या वह एकसमान शुल्क लगाने या शुल्क के अलावा दूसरी बाधाएं तैयार करने से परहेज कर सकता है? अंत में, क्या वह चीन जैसे देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते करने तथा एफडीआई हासिल करने के लिए तैयार हो सकता है?

यह जरूरी होगा क्योंकि अगर भारत को वृद्धि और रोजगार में इजाफा चाहिए तो पुराने तरीकों से काम नहीं चलेगा।

(लेखिका एचएसबीसी में भारत तथा इंडोनेशिया की मुख्य अर्थशास्त्री तथा प्रबंध निदेशक (ग्लोबल रिसर्च) हैं) 

First Published : January 29, 2025 | 10:49 PM IST