भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) और प्रसारकों के बीच जारी अस्थिरता अगर खतरनाक न होती तो मजेदार कही जाती। स्टार, सोनी, ज़ी जैसे प्रसारकों ने हाल ही में अपने अग्रणी चैनलों को चैनलों के गुलदस्ते से बाहर कर उनके शुल्क में 20 रुपये या उससे ज्यादा की बढ़ोतरी कर दी है। गुलदस्ते का हिस्सा रहने पर इन चैनलों के शुल्क पर ट्राई के नियम लागू होते थे। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2019 में हुई पिछली शुल्क वृद्धि, फिर आई महामारी और ओवर-द-टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्मों के जोर पकडऩे से करीब 2 करोड़ ग्राहक कम हो गए थे। ऐसे में नई शुल्क वृद्धि भारत के 21 करोड़ घरों में लगे टीवी कनेक्शन में से एक बड़े हिस्से को प्रभावित कर सकती है। विश्लेषकों का अनुमान है कि इससे केबल एवं डीटीएच ऑपरेटरों, प्रसारकों एवं वितरकों के 68,500 करोड़ रुपये के कारोबार में बड़ी गिरावट आ सकती है। अधिकांश प्रसारक इस बात को समझते भी हैं। इसके बावजूद उन्होंने अपने प्रमुख चैनलों की कीमतें क्यों बढ़ाईं? इस पर एक प्रसारक का कहना है कि हम ट्राई के दिखावे को सामने ला रहे हैं।
दुनिया के दूसरे बड़े टीवी बाजार और इसके नियामक के बीच करीब पांच साल पहले शुरू हुआ तनातनी का दौर अब भी जारी है। इसका खात्मा तभी होगा जब टीवी कारोबार का या तो पतन हो जाएगा या फिर ट्राई को यह अहसास हो जाए कि बेहद प्रतिस्पद्र्धी बाजार में टीवी चैनलों की कीमतें तय करने का कोई औचित्य नहीं है और प्रसारकों को अपनी मर्जी से शुल्क तय करने का पूरा अधिकार है। इसके अलावा ट्राई को यह भी लगे कि मनोरंजन, खेल, फिल्म एवं संगीत चैनलों की कीमतें फोन कॉल या डेटा की तरह नहीं तय की जा सकती हैं। नियमों में लगातार बदलाव करने और उनके असर का विश्लेषण न करने से एक नकारात्मक चक्र बनता है जिससे वृद्धि, नौकरियां, कर एवं उपभोक्ताओं के लिए पसंद भी प्रभावित होती है।
टेलीविजन कारोबार बेहद फिसलन भरी ढलान पर है। शीर्ष पर ओटीटी डीटीएच ग्राहकों को छीन रहे हैं और निचले स्तर पर दूरदर्शन की मुफ्त डीटीएच सेवा डीडी फ्रीडिश भी ग्राहकों को अपने साथ जोडऩे में लगी है। इससे टीवी प्रसारण काफी हद तक विज्ञापन-संचालित, फ्री-टू-एयर एवं ग्रामीण सेवा के तौर पर तब्दील हो सकता है।
वर्ष 2004 में डिजिटलीकरण की अनिवार्यता से पैदा हुई गड़बड़ी के दौर में ट्राई को प्रसारण बाजार का नियामक बनाया गया। हालांकि तब इसे एक मुकम्मल नियामक का गठन न होने तक तात्कालिक इंतजाम ही बताया गया था। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। हालांकि ट्राई ने शुरुआती दशक में कुछ अच्छे काम भी किए और केबल कारोबार में जारी अव्यवस्थाओं को दूर किया। वर्ष 2019 में देश के 21 करोड़ टीवी कनेक्शनों में से करीब 10 करोड़ केबल ऑपरेटर और करीब 4 करोड़ डीडी फ्रीडिश से जुड़े थे। बाकी घरों में करीब 6.7 करोड़ कनेक्शन डीटीएच सेवा से संबद्ध थे। केबल प्रसारण में 100 फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत मिलने के कई साल बाद भी कोई निवेशक सामने नहीं आया है। इसके साथ ही ट्राई के शुल्क नियमन ने भारतीय टीवी कारोबार को विज्ञापन पर बुरी तरह आश्रित कर दिया है और बढिय़ा शो बनाने के प्रोत्साहन को भी खत्म कर दिया है।
इस तरह की पृष्ठभूमि में ट्राई ने वर्ष 2019 में नया शुल्क आदेश लागू हुआ था। इसमें ज़ी जैसे प्रसारकों और वितरण में लगी फर्मों के बीच के जटिल रिश्ते से जुड़े सभी पहलुओं पर ध्यान दिया गया था। इसने एक गुलदस्ते में शामिल किसी भी चैनल के लिए अधिकतम 19 रुपये का मूल्य तय कर दिया। दरअसल ट्राई चाह रहा था कि प्रसारक अपने चैनलों को अलग-अलग बेचने के लिए मजबूर हों।
असल में इससे कुछ अच्छा भी हुआ, कीमतें बढ़ीं और प्रसारकों को मिलने वाला ग्राहकी राजस्व सुधरा। लेकिन इसने एएक्सएन और नैटजिओ जैसे कई आला चैनलों को खत्म भी कर दिया जिससे दर्शकों के लिए उपलब्ध विविधता में कमी आई और प्रसारण कारोबार में भीड़ को पसंद आने वाले और विज्ञापन जुटाने में मददगार कार्यक्रमों का चलन बढ़ा। नया शुल्क आदेश लागू होने के कुछ समय बाद ही एक और परामर्श पत्र भी आया था जिसमें कुछ और बदलावों की बात कही गई थी। ट्राई के उस पत्र में बंडलिंग के खिलाफ जोर देते हुए एक चैनल का अधिकतम शुल्क 12 रुपये तय करने का जिक्र था। जब प्रसारकों की गुहारें काम नहीं आईं तो फिर उन्होंने शुल्क आदेश को अदालत में चुनौती दी। बंबई उच्च न्यायालय ने 2021 की शुरुआत में ट्राई के आदेश को सही ठहराया था और अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। लेकिन कोई अंतरिम राहत नहीं आने से ट्राई ने प्रसारकों को वह आदेश लागू करने को कहा।
अब प्रसारकों ने अपने प्रमुख चैनलों को गुलदस्ते से बाहर लाकर और उनके दाम मुद्रास्फीति के अनुरूप तय कर ट्राई को यह बताने की कोशिश की है कि हमारा कंटेंट अपने दम पर राजस्व जुटा लेगा। लेकिन प्रमुख चैनलों की कीमतें बढऩे और ओटीटी प्लेटफॉर्म का वार्षिक शुल्क 99-1000 रुपये हो जाने से केबल टीवी ग्राहक 200-800 रुपये महीना देने के बजाय उधर का रुख कर सकते हैं। ट्राई को डीटीएच एवं केबल ऑपरेटरों के अनुरोध मिलने भी लगे हैं कि वे अपने उपभोक्ताओं को कीमतें बढ़ाने के लिए कैसे मनाएंगे?
यह हमें प्रसारकों की उस बड़ी नाकामी से रूबरू कराता है कि वे अपने उपभोक्ताओं एवं मीडिया को ठीक से नहीं बता पाए कि असल में केबल शुल्क पिछले 20 वर्षों में कम हुआ है। भारत में प्रति उपभोक्ता औसत राजस्व थाईलैंड की तुलना में तिहाई और मलेशिया की तुलना में एक चौथाई ही है। भारत का प्रसारण बाजार अपनी वृद्धि के दौर में भी कम राजस्व ही जुटा पाया। और अब डिजिटल के दौर में ट्राई यह सिलसिला कायम रखने की कोशिश कर रहा है।