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भाजपा और पूर्वोत्तर में बदलाव की कथा

Published by
शेखर गुप्ता
Last Updated- March 05, 2023 | 11:57 PM IST

पूर्वोत्तर में हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत का जश्न मनाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस पूरे क्षेत्र में आए नाटकीय बदलाव की सराहना की। इस बात पर बहस हो सकती है कि इसका किसे कितना श्रेय जाना चाहिए लेकिन वास्तव में यह भारत की सफलता की सच्ची दास्तान है।

पूर्वोत्तर के तीन छोटे राज्य (जिनकी कुल आबादी एक करोड़ और लोकसभा सीट महज पांच हैं) भाजपा के लिए नए सिरे से समर्थन लेकर आए हैं। हालांकि यहां हमारा सवाल थोड़ा अलग है। चूंकि चुनावों का ताल्लुक राजनीति और साझेदारियों से है, इसलिए इन परिणामों को अपेक्षाकृत अराजनीतिक ढंग से भी विश्लेषित किया जा सकता है। यही वजह है कि आगे बढ़ने से पहले हम देखेंगे कि परिणाम आने के बाद प्रधानमंत्री ने पार्टी कार्यालय में क्या कहा।

उन्होंने कहा, ‘पूर्वोत्तर के चुनाव परिणाम आने के बाद दिल्ली तथा देश के अन्य हिस्सों में ज्यादा चर्चा नहीं होती थी। चुनाव के दौरान हुई हिंसा तथा उपद्रव को लेकर जरूर बातचीत होती।’ हालात में आए बदलाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, ‘पूर्वोत्तर न तो दिल्ली से दूर है और न ही दिल से।’ अगर राजनीतिक सबक और वोट की तलाश को पीछे छोड़ दिया जाए तो इस बात में दम नजर आता है। अब अगर हम पूर्वोत्तर को देखें तो कोई उपद्रव नहीं नजर आता।

आज अगर हम पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों पर नजर डालें तो वहां किसी तरह की अशांति नहीं है। यद्यपि स्वीकार करना होगा कि छोटी मोटी झड़प बढ़ गई हैं। आप पाएंगे कि सशस्त्र पुलिस बल तथा अपराधियों के बीच ऐसी मुठभेड़ें तो हिंदी क्षेत्र के किसी भी राज्य में, पूर्वोत्तर की तुलना में अधिक होती हैं। इस तरह की हथियारबंद लूटपाट को अलगाववादी उपद्रव नहीं कहा जा सकता है। वहां इकलौती उपद्रवी शक्ति नैशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड बीते एक दशक से शांत है।

इस क्षेत्र के बड़े हिस्से में से सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्पा) को हटा लिया गया है। निश्चित तौर पर यह प्रक्रिया 2014 में मोदी के आगमन के बाद शुरू नहीं हुई। इसकी शुरुआत पिछली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग सरकार के समय ही हो गई थी। त्रिपुरा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के माणिक सरकार और तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने एक शानदार और सुविचारित प्रक्रिया में जिले के सभी 70 पुलिस थानों से एक-एक करके अफस्पा को हटा लिया गया था। इसके बाद प्रक्रिया धीमी हो गई लेकिन मोदी के कार्यकाल में इसमें नई जान आ गई।

बांग्लादेश के साथ रिश्तों में सुधार से भी मदद मिली। बीते एक दशक से बांग्लादेश किसी भी भारतीय चरमपंथी को खुशी-खुशी सौंप देता है। मैं पिछले करीब तीन दशक से लगातार लिख रहा हूं कि पूर्वोत्तर हमें बगावत के खिलाफ एक अनूठा सिद्धांत देता है जो भारत में दशकों के दौरान उभरा है। इसे एक ग्राफ के रूप में समझते हैं।

जैसे-जैसे राज्य में अलगाववाद बढ़ा, राज्य की प्रतिक्रिया भी तेज होती गई और यह तब तक चला जब तक वह ऐसे उच्चतम स्तर पर नहीं पहुंच गई जब बागियों को महसूस हुआ कि राज्य बहुत सख्त था और उन्हें कभी जीत नहीं हासिल होगी, चाहे वे जानमाल की कितनी भी हानि कर लें। वे थक चुके थे और शांति चाहते थे। राज्य ने भी उदारता बरती।

जीत का दावा करने के बजाय राज्य ने राजनीतिक समझौता पेश किया। उनसे पूछा गया कि वे क्या चाहते हैं? अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के लिए अपना राज्य? कुछ विशेष कानून? राज्य में राजनीतिक शक्ति? आपको यह सब मिल सकता है आप बस संविधान को स्वीकार कर लें। अगर आपको यह इस तरीके से पसंद नहीं है तो हम विशेष प्रावधान कर सकते हैं। नगालैंड के लिए अनुच्छेद 371 और शिलॉन्ग शांति समझौता इसका उदाहरण है।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम आपको राजनीतिक शक्ति दे रहे हैं। मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि कैसे कांग्रेस ने मिजो बागी नेता लालडेंगा और 1986 में असम के प्रदर्शनकारियों को मनाया था। मैंने उन शांति समझौतों तथा उनके बाद हुए चुनावों की रिपोर्टिंग की थी। मैंने ब्रह्मपुत्र घाटी में ‘राजीव गांधी जिंदाबाद, कांग्रेस पार्टी मुर्दाबाद’ के नारे सुने। जनता तो हर जगह समझदार होती है लेकिन पूर्वोत्तर के लोग कुछ अधिक समझदार हैं, शायद दूरदराज इलाके में जीवन की कठिनाइयों तथा तीन दशक के राजनीतिक माहौल की दिक्कतों के कारण।

मैंने ऊपर जिस ग्राफ की बात की उसकी शुरुआत राजीव-लालडेंगा समझौते के बाद हुए मिजोरम चुनाव की कवरेज के दौरान हुआ। युवा वनलालजारी उस समय तत्कालीन पुलिस प्रमुख जीएस आर्य की सचिव थीं। सन 1975 में मिजो उपद्रवियों का एक समूह पुलिस मुख्यालय में गया और आईजीपी, उनके डिप्टी और विशेष ब्रांच के प्रमुख को गोली मार दी थी। इससे पूरे देश में सनसनी मच गई। इसके आरोपियों को बाद में मुठभेड़ में मार दिया गया और वनलालजारी को षडयंत्र रचने का दोषी ठहराया गया।

जेल में उन्होंने एक दस्तावेज लिखा जो भूमिगत लोगों के लिए प्रेरणा बना। इसे जारी डायरी का नाम दिया गया अभी भी मेरे पास इसका अंग्रेजी संस्करण रखा हुआ है। उन्हें समझौते के बाद छोड़ दिया गया और 1986 में मैंने उन्हें उनकी पार्टी मिजो नैशनल फ्रंट के मुख्यालय पर झंडे और पोस्टर पैक करते हुए देखा। मैंने उनसे पूछा कि आप तो संप्रभुता के लिए लड़ रही थीं फिर उसे छोड़ क्यों दिया।

उन्होंने उत्तर दिया, ‘यह सही है कि हम संप्रभुता के लिए लड़े लेकिन उसका अर्थ आजादी नहीं है। पोलैंड संप्रभु है लेकिन क्या वह आजाद है?’ अब वह मुझे पढ़ा रही थीं। यह वह दौर था जब पोलैंड में लेक वालेसा के नेतृत्व में छिड़ा आंदोलन दुनिया भर में सुर्खियों में था। मुझे नहीं लगता कि देश के अन्य हिस्सों से ऐसे उदाहरण दिए जाते।

इसलिए मैंने कहा कि हम सब समझदार हैं लेकिन पूर्वोत्तर के लोग कुछ ज्यादा समझदार हैं। वे दिल्ली की सकारात्मक पहल के प्रति सकारात्मक एवं रचनात्मक प्रतिक्रिया देते हैं। आपको यह खबर इंडिया टुडे के आर्काइव में मिल सकती है। मुझे यकीन है कि एनएससीएन का मसला भी जल्दी ही निपट जाएगा।

सन 1986 से अब तक इस क्षेत्र में बहुत कुछ बदल चुका है। अगर हम मोदी युग तक की बात करें तो सबसे बड़ा अंतर देश के मुख्य हिस्से के साथ इस क्षेत्र के संपर्क में आए सुधार में हुआ है। इस इलाके और दिल्ली के बीच एक बड़ा मानसिक अवरोध संचार का था। दोनों पक्षों को एक दूसरे तक पहुंचने में दिक्कत होती थी। बीते नौ सालों में राजमार्गों का खूब विस्तार हुआ है तथा रेलवे भी नई जगहों तक पहुंच रहा है। हवाई संचार में भी खूब सुधार हुआ है।

क्या यह सब बीते नौ साल में ही हुआ है? यकीनन सुधार तो हमेशा से होता रहा है लेकिन उसकी गति काफी धीमी थी। उदाहरण के लिए: 2014 तक 793 किलोमीटर लंबी ब्रह्मपुत्र नदी पर केवल एक संकीर्ण सा पुल था: गुवाहाटी का सराईघाट पुल जो सन 1960 के दशक में बना था। यहां तक कि इसके बाजू में जो बड़ा पुल बन रहा था वह भी दशकों से बहुत धीमी गति से बन रहा था वह भी तब शुरू हुआ जब वाजपेयी सरकार ने उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम कॉरिडोर के हिस्से के रूप में इसे मंजूरी दी। आज वहां छह पुल हैं और सातवां निर्माणाधीन है। इससे पता चलता है कि बदलाव किस गति से हो रहा है।

शांति, संचार और देश के सेवा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था बनने से भी वहां के युवाओं को देश भर में काम का अवसर दिया है। इससे भावनात्मक संचार मजबूत हुआ है और भारतीयता की भावना मजबूत हुई है। इस बीच मोदी सरकार ने इस क्षेत्र के पुराने नायक नायिकाओं को मुख्यधारा में शामिल करने की कवायद की। रानी गैदिनलिउ (नगा), कनकलता बरुआ (असम), यू तिरॉत सिंह (खासी), बीर टिकेंद्रजीत सिंह (मैतेई, मणिपुर) आदि ऐसे ही कुछ नाम हैं जिन्होंने अंग्रेजों से लोहा लिया था।

यकीनन लचित बरफुकन अब एक राष्ट्रीय प्रतीक बन गए हैं क्योंकि उन्होंने मुगलों को पराजित किया था। भाजपा ने कुछ गलतियां कीं लेकिन उसने जल्दी ही सुधार भी कर लिया। सबसे अहम उदाहरण है नागरिकता संशोधन अधिनियम और और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का मिश्रण। पार्टी को जल्दी ही पता चल गया कि हिंदू बनाम मुस्लिम का द्वैत यहां काम नहीं आएगा।

ऐसा इसलिए क्योंकि पूर्वोत्तर में काफी कुछ दांव पर है और पार्टी दोबारा ऐसा करने के पहले तीन बार सोचेगी। पूर्वोत्तर मोदी सरकार की राजनीतिक और भाजपा की चुनावी सफलता का उदाहरण है। ऐसे में अगर वे ध्रुवीकरण को तरजीह देकर इसे गंवाते हैं तो यह दुखद आश्चर्य होगा।

First Published : March 5, 2023 | 11:57 PM IST