अमेरिका में उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति इस वर्ष 9.1 प्रतिशत के स्तर तक पहुंच गई। अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने फेडरल फंड्स की दरों को अकेले इसी वर्ष 0.25 फीसदी से बढ़ाकर 2.5 फीसदी कर दिया और अनुमान है कि अभी और इजाफा किया जा सकता है। अब तो यह आशंका भी जताई जा रही है कि मुद्रास्फीति पर इस तरह नियंत्रण की कोशिश मंदी ला सकती है। बहस बुनियादी रूप से इस बात पर केंद्रित है कि तथाकथित मंदी कितनी जल्दी आएगी, यह कितनी गंभीर होगी और कितने लंबे समय तक टिकेगी। बहरहाल मेरा मानना है कि ऐसी बहस करते हुए हम एक बड़ी बात की अनदेखी कर रहे हैं।
थोड़ा पीछे की बात करते हैं। पहले अमेरिका में ट्रंप प्रशासन और उसके बाद कुछ समय के लिए बाइडन प्रशासन ने भी भारी भरकम राजकोषीय प्रोत्साहन दिया। फेडरल रिजर्व ने भी कमोबेश यही रुख अपनाया। कुल मिलाकर इसका परिणाम अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रदर्शन के रूप में सामने आया। क्या कुछ गलत हुआ?
यह बात याद रखें कि कोविड-19 के कारण उत्पन्न परिस्थितियों के चलते और बाद में भूराजनीतिक हालात के चलते आपूर्ति क्षेत्र की बाधाएं उत्पन्न हुईं और इनका प्रभाव आर्थिक नुकसान के रूप में झेलना पड़ा। इस नुकसान से बचने की कोई सूरत नहीं थी। उसके बाद अर्थव्यवस्था ने एक नया सामान्य स्तर हासिल किया। हालात को देखते अमेरिका में तीन वर्ष तक वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद का तीन प्रतिशत से अधिक गति से बढ़ना वास्तव में प्रभावशाली माना जा सकता है। कई अन्य देशों का प्रदर्शन तो काफी खराब रहा। अमेरिका का प्रदर्शन इतना अच्छा कैसे रहा? ऐसा इसलिए हुआ कि अमेरिकी राजकोषीय घाटा 2019 के एक लाख करोड़ डॉलर से बढ़कर 2020 में तीन लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचा। इसके परिणामस्वरूप कृत्रिम तेजी देखने को मिली। जाहिर है इसमें स्थायित्व नहीं था। अब बहुत संभव है कि अर्थव्यवस्था में उत्पादन के कृत्रिम रूप से बढ़े हुए स्तर से गिरावट देखने को मिले, न कि उत्पादन के सामान्य स्तर से। इसी के साथ अमेरिका मंदी की ओर नहीं बल्कि सामान्य हालात की ओर बढ़ रहा है।
इससे एक नजरिया हासिल करने में मदद मिलेगी। आपूर्ति क्षेत्र की दिक्कतों को देखते हुए मांग क्षेत्र की आर्थिक शुरुआत में बहुत मदद करती हुई नहीं दिखती। कुछ बाद के चरण में मांग को प्रोत्साहन उपयोगी साबित हो सकता है। लेकिन यह केवल उसी सीमा तक मदद करेगा जहां तक समेकित मांग में कमी जीडीपी और रोजगार में गिरावट की वजह से हो। ऐसा वास्तव में आपूर्ति क्षेत्र के कारकों की बदौलत है। ऐसे में खराब हालात को और बुरा होने से बचाने में मांग क्षेत्र के प्रोत्साहन की भूमिका जरूर है लेकिन मांग प्रोत्साहन बुरे हालात को अच्छे हालात में नहीं बदल सकता है। यही कारण है कि प्रोत्साहन एक सीमा तक ही दिया जाना चाहिए लेकिन इस मामले में अतिशय प्रोत्साहन दिया गया।
कुछ समय के लिए असाधारण प्रोत्साहन के साथ आर्थिक वृद्धि पर सकारात्मक असर हुआ लेकिन बाद में उसमें गिरावट आ गयी। इसके बावजूद अर्थव्यवस्था को समग्र नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि बाद में होने वाली गिरावट शुरुआती उभार से अधिक हो सकती है। इससे भी अहम बात यह है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था इस प्रक्रिया में उच्च मुद्रास्फीति से गुजरी है। यह मुद्रास्फीति वास्तव में इसलिए है कि शुरुआती दौर में असाधारण स्तर का प्रोत्साहन दिया गया। इसके अलावा यूक्रेन पर रूसी आक्रमण तथा अन्य भूराजनीतिक तनावों ने अमेरिकी मुद्रास्फीति को बढ़ाने का काम किया।
तमाम अन्य क्षेत्रों की तरह वृहद आर्थिक क्षेत्र भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां कुछ भी नि:शुल्क मिल सके। यानी आरंभ में उच्च उत्पादन और रोजगार के रूप में जो लाभ देखने को मिला वह भी एक प्रकार का भ्रम ही था। असाधारण प्रोत्साहन को समाप्त किए जाने के तत्काल बाद ये तमाम लाभ भी गायब हो गए। इसके अलावा काफी ऊंची मुद्रास्पीति की आर्थिक कीमत भी चुकानी ही पड़ी।
प्रोत्साहन का आकार छोटा भी हो सकता था। परंतु कहने का अर्थ यह नहीं है कि बेरोजगारों या कोविड-19 संकट से जूझने वाले लोगों को मदद की आवश्यकता नहीं थी। उनको निश्चित तौर पर सहायता की आवश्यकता थी और वह उन्हें उदारतापूर्वक मिलनी भी चाहिए थी। बहरहाल अगर मदद की आवश्यकता समुचित प्रोत्साहन की तुलना में अधिक थी तब इस मदद का एक हिस्सा पुर्नवितरण आधारित राजकोषीय नीति के रूप में दिया जाना चाहिए था जिसका इस्तेमाल कठिनाई के वक्त किया जा सकता था।
कुछ लोग यह दलील दे सकते हैं कि यह सारा कुछ मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए किया गया और हमें उच्च मुद्रास्फीति की चिंता बंद करके वास्तविक तेजी के लाभ का आनंद उठाना चाहिए। इतिहास बताता है कि यह नजरिया गलत है। मुद्रास्फीति को दो फीसदी से बढ़कर नौ फीसदी तक जाने देना आसान नहीं है। यह भी केवल अनुमान ही है कि लगातार उच्च मुद्रास्फीति के साथ वास्तविक आर्थिक तेजी को बरकरार रखा जा सकता है। अगर मुद्रास्फीति का स्तर नौ फीसदी होगा तो जनता पर भी बहुत अधिक बोझ पड़ना तय है।
कई पर्यवेक्षक प्रसिद्ध फिलिप्स कर्व का हवाला देते हुए कहते हैं कि हम मुद्रास्फीति में कमी केवल उत्पादन और रोजगार कम करके ही ला सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर मुद्रास्फीति की दर को कम करना है तो मंदी अपरिहार्य है। हालांकि मूल फिलिप्स कर्व एक अहम योगदान था लेकिन उसके सबक कई बार व्यवहार में गलत इस्तेमाल किए जाते हैं। वर्तमान हालात इसका अच्छा उदाहरण हैं। यहां मामला हालात के सामान्य होने का है न कि मंदी के आने का।
(लेखक भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली केंद्र में अतिथि प्राध्यापक हैं)