देश की उच्च न्यायपालिका के इर्दगिर्द पिछले कुछ समय में कई घटनाएं घटी हैं। पहले हरीश साल्वे सहित ‘बार’ के 600 सदस्यों ने देश के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिख कर उच्चतम न्यायालय के साथ ऐसे समय में एकजुटता और समर्थन दर्शाया जब उनके मुताबिक उस पर चौतरफा हमले हो रहे हैं।
इसे ‘बार’ में आम तौर पर होने वाली राजनीति माना जा सकता है, खासकर यह देखते हुए कि पश्चिम बंगाल समेत कुछ राज्यों में बार काउंसिल के चुनाव भी पार्टियों के चुनाव चिह्न पर लड़े जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अधिवक्ताओं के समर्थन और एकजुटता के पत्र को एक दिलचस्प टिप्पणी के साथ साझा किया- 50 वर्ष पहले कांग्रेस ने एक ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ की मांग की थी।
यह बात हमें 1973 और 1977 में ले जाती है जब इंदिरा गांधी की सरकार ने देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय वरिष्ठतम न्यायाधीश की नियुक्ति की मान्य परंपरा का दो बार उल्लंघन किया था। दोनों बार यह निर्णय राजनीति से प्रेरित था। वास्तव में दोनों ही नियुक्तियां उस दशक में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए अहम निर्णयों से जुड़ी थीं।
पहली बार अप्रैल 1973 में तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों जयशंकर मणिलाल शेलत, एएन ग्रोवर और केएस हेगड़े की अनदेखी करके अजित नाथ राय को मुख्य न्यायाधीश चुना गया। जिन तीन न्यायाधीशों की अनदेखी की गयी थी उन्होंने इस्तीफा दे दिया। यह मामला केशवानंद भारती मामले से जुड़ा हुआ था जिसमें 13 न्यायाधीशों के पीठ ने 7-6 से यह निर्णय दिया था कि कुछ ऐसा है जिसे भारतीय संविधान का बुनियादी ढांचा कहा जाता है। राय उन छह न्यायाधीशों में शामिल थे जिन्होंने कहा था कि ऐसा कोई ढांचा नहीं है। जिन तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी की गई वे ‘बुनियादी ढांचे’ के सिद्धांत के हिमायती थे और हम भारतीय उनके ऋणी हैं।
दूसरी बार ऐसा मौका जनवरी 1977 में आया जब कुछ ही समय बाद आपातकाल को हटाया जाने वाला था। इंदिरा गांधी अपने लिए सबसे अधिक असहज स्थिति पैदा करने वाले न्यायाधीश को दंडित करना चाहती थीं। इस बार एच आर खन्ना की वरिष्ठता की अनदेखी करके एम एच बेग को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। खन्ना ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
1973 की घटना के बाद उन्हें समझ में आ गया था कि क्या होने वाला है। वह उन सात लोगों में से एक थे जिन्होंने केशवानंद भारती में बहुमत से बुनियादी ढांचे के पक्ष में निर्णय दिया था। इससे भी अहम बात है कि आपातकाल के दौरान बंदी प्रत्यक्षीकरण के मामले जिसे एडीएम जबलपुर मामले के नाम से जाना जाता है, उस मामले में जहां पांच में से चार न्यायाधीशों ने सरकार के नागरिक अधिकारों में कटौती के नजरिये का समर्थन किया था, वहां भी खन्ना इकलौते असहमत न्यायाधीश थे। खन्ना कभी देश के मुख्य न्यायाधीश नहीं बने लेकिन वह देश के न्यायाधीशों में बहुत बड़े कद के न्यायाधीश माने जाते हैं।
इंदिरा गांधी का सत्ता प्रतिष्ठान न्यायाधीशों को अपनी समाजवादी धारा के प्रतिकूल मानता था, जिसे मतदाताओं का समर्थन हासिल था। उनके करीबियों में सोवियत झुकाव वाले वामपंथियों का प्रभाव था। यही वजह है कि भारत को ऐसे न्यायाधीशों की जरूरत थी जो इस बात की बेहतर समझ रखते कि जनता की इच्छा क्या है।
इस लिहाज से उन न्यायाधीशों को निर्वाचित सरकार के लोकप्रिय रुख को लेकर ‘प्रतिबद्ध’ होना था। इंदिरा गांधी की कैबिनेट में शामिल रहे प्रख्यात वामपंथी मोहन कुमार मंगलम को प्रतिबद्ध न्यायपालिका का विचार सामने रखने का श्रेय दिया जाता है।
तानाशाहों की चाह यह होती है कि संस्थाएं उनके हिसाब से ‘एकदम दुरुस्त’ हों क्योंकि उन्हें लगता है कि केवल वे ही संस्थाओं का निर्माण और उनकी रक्षा कर सकते हैं। इंदिरा गांधी ने न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी करके न्यायपालिका को भी ऐसी ही संस्था में बदलना चाहा। प्रधानमंत्री मोदी 1973 में शुरू हुए उसी चलन का जिक्र कर रहे थे।
ऐसे में यह सवाल आएगा कि आखिर आज ऐसा कौन है जो न्यायपालिका का दमन करने का प्रयास कर रहा है? यकीनन प्रधानमंत्री ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर जो कुछ लिखा है उसके मुताबिक ऐसा करने वाली कांग्रेस है। अगर वाकई ऐसा है तो कहा जा सकता है कि लोक सभा में 52 सीट वाली कांग्रेस अपनी क्षमता से कई गुना अधिक ताकत का प्रदर्शन कर रही है।
एक लोकतंत्र में हर प्रकार की कमी से रहित ‘संपूर्ण संस्थान’ जैसा कुछ नहीं होता। भारतीय न्यायपालिका भी इससे कोसों दूर है लेकिन सवाल यह है कि क्या हाल के दिनों में वह पहले की तुलना में अधिक अपूर्ण स्थिति में है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपके लिए हाल के दिनों का अर्थ क्या है। यह इससे भी तय होगा कि आपकी राजनीति क्या है।
उदाहरण के लिए अगर आप मोदी विरोधी, भाजपा विरोधी पक्ष के हैं तो आप कह सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने 2010 से 2014 के बीच घोटालों के दौर में अपना रास्ता खो दिया था।
उस दौर में न्यायाधीश तमाम आदेश जारी कर रहे थे जिनमें से कुछ मौखिक हुआ करते थे। वे सभी प्रभावी आरोपियों को दोषी करार दे रहे थे और दूरसंचार क्षेत्र के ‘2जी जैसे घोटालों’ की सीधी निगरानी कर रहे थे। उनकी बातों में गुस्सा जाहिर था।
वर्तमान राजनीति की परवाह नहीं करने वाले और क्रिकेट के प्रति पूर्वग्रह रखने वाले व्यक्ति के रूप में मैं सोच सकता हूं कि सर्वोच्च न्यायालय उस वक्त रास्ते से भटक गया जब उसने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का संचालन अपने हाथ में लेते हुए भारतीय क्रिकेट का प्रबंधन करने की ठानी। इससे भारतीय क्रिकेट का कुछ भी भला नहीं हुआ लेकिन सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, अफसरशाहों और सेना के तीन सितारा अधिकारियों को जरूर मालामाल किया।
अगर भाजपा के साथ हैं या आप भाजपा से हैं तो आपके लिए ‘हाल के दिनों’ का अर्थ क्या होगा? इस पत्र और प्रधानमंत्री के बयान को देखें तो लगेगा कि वह वक्त अभी है। क्या यह बेनामी चुनावी बॉन्ड पर हुए निर्णय की वजह से है? वह उकसावे का एक बिंदु हो सकता है, हालांकि इन बॉन्ड से सामने आने वाली जानकारी एकतरफा नहीं है। हर किसी को इनसे लाभ हुआ और गोपनीयता बनाए रखने में सभी शामिल थे। हालांकि इसने कुछ अहम मुद्दे उभारे। मसलन सरकारी एजेंसियों के छापों और नियामकों के कदमों तथा कंपनियों के भुगतान के समय में क्या संबंध था।
अधिवक्ताओं के पत्र को सावधानी से पढ़कर कुछ बिंदु तय किए जा सकते हैं कि आखिर इसे लिखने की वजह क्या होगी। इसे बचाव की कार्रवाई के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि यह तब सामने आया जब चुनाव प्रचार आरंभ ही हुआ है। इसे सत्तातंत्र का जबरदस्त समर्थन मिला। पत्र में न्यायपालिका के बेनामी शत्रुओं का उल्लेख किया गया और कहा गया कि अदालती पीठ को ‘फिक्स’ किया गया। यह भी आरोप लगाया गया कि दिन में अदालती बहस में और रात को समाचार चैनलों पर बहस के जरिये माहौल बनाने और चुनिंदा न्यायाधीशों और फैसलों की आलोचना का आरोप लगाया गया।
पत्र में एक वाक्य खासतौर पर दिलचस्प और रहस्य से भरा है। वह उन अधिवक्ताओं के बारे में है जो लोगों की राजनीतिक आलोचना करते हैं लेकिन अदालत में उनके बचाव के लिए खड़े होते हैं। ध्यान दीजिए कि इस समय अदालत में सबसे प्रमुख विपक्षी नेता कौन है और उनका अधिवक्ता कौन है?
क्या हमने यह भी देखा है कि कुछ राजनीतिक वादियों ने कतिपय पीठ से अपने मामले हटवा लिए ताकि इस बीच उनके प्रतिकूल न्यायाधीश बदल जाएं? इस पत्र में काफी बातें हैं जो हमें गहराई से सोचने पर विवश करती हैं। एक बात बिल्कुल तय है कि इसे सरकार का पूरा समर्थन है।
विचार यह है कि न्यायपालिका खतरे में है और ‘बार’ तथा कार्यपालिका का यह धड़ा उसे बचाने के लिए एकजुट है। यह सर्वोच्च न्यायालय को तय करना है कि उसे अपने लिए खतरा महसूस हो रहा है अथवा नहीं।
यदि ऐसा है तो ये जो भी ‘गैर राज्य तत्त्व’ हैं क्या उनकी ओर से यह खतरा इतना गंभीर है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका की मदद की आवश्यकता पड़े? यदि ऐसा है तो कहा जा सकता है कि यह परिदृश्य 50 वर्ष पहले के उस परिदृश्य से अलग है जब न्यायपालिका इंदिरा गांधी की कार्यपालिका से जूझ रही थी।