भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग (सेबी) म्युचुअल फंडों के मामले में वित्त मंत्रालय से यह सिफारिश करने की सोच रहा है कि लंबी और छोटी अवधि की फंड योजनाओं पर कर को तर्कसंगत बनाया जाए।
इससे दोनों योजनाओं पर समान कर लगेगा। यह सिफारिश म्युचुअल फंडों पर बनी सेबी की सलाहकार समिति ने की थी। फिलहाल म्युचुअल फंडों में निवेश करने वाले व्यक्तिगत और संस्थागत निवेशकों को जब लाभांश मिलता है तो उन्हें कर लाभ मिलता है। इक्विटी के मामले में कम अवधि (एक साल से कम) के लाभांश भुगतान पर कोई कर नहीं लगता।
मान लीजिए, कोई निवेशक इक्विटी फंड में एक करोड़ रुपये का निवेश करता है। तीन महीने बाद अगर उसका निवेश बढ़ कर 1.20 करोड़ हो जाता है और निवेशक को 20 लाख रुपये लाभांश के रूप में मिलते हैं तो इस राशि पर कोई कर नहीं लगता।
दूसरी तरफ अगर कोई निवेशक यूनिट बेच कर मुनाफा कमाता है तो उसे कैपिटल गेन पर 15 प्रतिशत कर देना पड़ता है। अब डेट का उदाहरण लें। मान लीजिए, कोई निवेशक 10 प्रतिशत की आय की दर पर 1 करोड़ रुपये किसी डेट फंड में लगाता है जिसमें 6 महीने उसे रुकना पड़े और लाभांश भी मिले।
अब अगर परिपक्वता से पहले फंड निवेशक को 4.5 लाख रुपये का लाभांश मिलता है तो उसे कर देना पड़ता है। संस्थागत निवेशक के लिए इस रिटर्न पर कर की दर 22.66 प्रतिशत है जबकि व्यक्ति के लिए 14.16 प्रतिशत। दूसरी ओर अगर उन्हें शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन टैक्स भरना पड़े तो यह कर 33 प्रतिशत तक पहुंच जाता है।
इन दोनों उदाहरणों से जाहिर है कि कम अवधि के लिए निवेश करने वाले को अच्छा-खासा फायदा होता है। जहां उसे इक्विटी पर निवेश में 15 प्रतिशत का लाभ होता है, वहीं डेट के मामले में 11 प्रतिशत (कॉरपोरेट) और 19 प्रतिशत (व्यक्ति के मामले में) का लाभ होता है।
वित्तीय विशेषज्ञों के अनुसार बैंकों की एफडी और म्युचुअल फंडों में निवेश के मामले में भी करों में इस तरह का काफी अंतर है।
एक विशेषज्ञ ने कहा, ‘कंपनियां और अमीर निवेशक अपना पैसा बैंक की एफडी से म्युचुअल फंडों में ले जाते हैं, क्योंकि आय कर की ऊंची दर वाले निवेशक को बैंक की एफडी पर शॉर्ट टर्म टैक्स अच्छा-खासा-करीब 30 प्रतिशत (साथ में शिक्षा कर और उप-कर) देना पड़ता है। म्युचुअल फंड में निवेश करने से कंपनियों और अमीर निवेशकों को काफी कर की बचत होती है।’
जाहिर है लंबी अवधि के लिए निवेश करने वाले लोग इन फंडों के मामले में घाटे में रहते हैं, क्योंकि अगर डेट और इक्विटी फंडों पर पैसा वापसी का दबाव पड़ता है तो म्युचुअल फंडों को अपने पेपर्स की घाटे में बिकवाली करनी पड़ती है।