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विलुप्तप्राय छीपा कला को पुनर्जीवित करने की कोशिश

एक समय मध्य भारत के गोंडवाना इलाके की पहचान रही छीपा कला आधुनिकता के साथ कदमताल नहीं कर पाने के कारण लगभग दम तोड़ चुकी थी। इस कला को नए सिरे से संवारने की कोशिशें अब रंग ला रही

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संदीप कुमार   
Last Updated- May 28, 2025 | 11:14 PM IST

करीब 500 साल तक मध्य प्रदेश के गोंडवाना और महाराष्ट्र की सीमा से लगे इलाकों की पहचान रही ‘छीपा कला’ उद्योग और आधुनिकता बढ़ने के साथ ही विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी थी। मगर छीपा समुदाय के कुछ जुनूनी कलाकारों की मेहनत से यह हुनर नई पहचान बना रहा है और कारोबार भी दे रहा है।

मरती हुई इस कला को नई जिंदगी मिलनी शुरू हुई 2014 में, जब छीपा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले छिंदवाड़ा के आरती और रोहित रूसिया ने स्थानीय बुनकरों और हथकरघा उद्योग के साथ काम करना शुरू किया। रूसिया दंपनी ने हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग यानी हाथ से ब्लॉक के जरिये छपाई की इस पुरानी कला में नई जान फूंकने की ठानी। इसके लिए उन्होंने एक संस्था आशा (एड ऐंड सरवाइवल ऑफ हैंडीक्राफ्ट आर्टीजन) की बुनियाद डाली और छीपा कला को आगे बढ़ाया। आज इन बुनकरों के छीपा प्रिंट के कपड़े देश ही नहीं विदेशों में भी पसंद किए और मांगे जा रहे हैं।

क्या है छीपा कला?

छीपा मध्य प्रदेश के एक समुदाय का नाम है और यह छाप से निकला है। हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग सदियों से छीपा समुदाय की आजीविका का साधन रही है। इस कला में लकड़ी के ब्लॉक इस्तेमाल किए जाते हैं और उनकी मदद से कपड़ों पर विभिन्न आकृतियां उकेरी जाती हैं। इस कला में सदियों से चले आ रहे प्राकृतिक रंगों और स्थानीय बनावट पर आधारित मोटिफ का इस्तेमाल किया जाता है।

छीपा का शुरुआत मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा और महाराष्ट्र के नागपुर शहर से सटे बुनकरों के गांव सांवनेर से मानी जाती है। एक समय था जब सांवनेर, छिंदवाड़ा, नागपुर और गाडरवारा जैसे इलाकों में छीपा समुदाय के करीब 3,000 परिवार इसी कला पर जीवित थे। उन परिवारों के लगभग 10,000 सदस्य छीपा कला से ही रोजी-रोटी कमाते थे। मगर धीरे-धीरे अगली पीढ़ियों का मिजाज बदला, नौकरी की तलाश में युवा बाहर चले गए, कोयला खदानें तथा मिलें आईं और सस्ता विदेश कपड़ा भी आ गया। इन सभी वजहों से समुदाय के लोगों ने इस कला को सहेजना कम कर दिया और 1990 के दशक की शुरुआत में यह लगभग विलुप्त हो गई।

एक समय ऐसा आया, जब छीपा कला को जानने और सहेजने वाले केवल एक कलाकार रह गए, जिनका नाम दुर्गा लाल है। दुर्गा लाल अब करीब 80 साल के हो चुके हैं। रोहित और आरती रूसिया ने दुर्गा लाल से यह कला सीखी और 2011 में छीपा कला को नई पहचान देने की कोशिश शुरू की। उनके साथ छिंदवाड़ा में स्थानीय बुनकर और महिलाएं काम करती हैं और यह काम गोंड आदिवासी महिलाएं ही करती हैं। छपाई के लिए जरूरी ब्लॉक उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद और आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम जैसी जगहों पर बनवाए जाते हैं।

नवाचार की गुंजाइश

रोहित बताते हैं, ‘हम पारंपरिक छीपा प्रिंट तो बना ही रहे हैं, आधुनिक जरूरतों के हिसाब से कुछ नया भी कर रहे हैं। गोंडवाना की चर्चित आदिवासी गोदना प्रथा टैटू आने के बाद खत्म हो रही थी मगर हम उसे हैंड ब्लॉक के जरिये कपड़ों पर उतार रहे हैं। इसे काफी पसंद किया जा रहा है।’

छीपा ब्लॉक प्रिटिंग से बनी साड़ियों की मांग सबसे ज्यादा रहती है। रोहित बताते हैं कि उनकी टीम कॉटन, कॉटन-सिल्क मिक्स, मलबरी सिल्क, टसर जैसे कपड़ों पर छीपा प्रिंट की साड़ियां तैयार करते हैं।  

स्क्रीन प्रिंट की चुनौती

छीपा या दूसरी पारंपरिक छपाई के सामने स्क्रीन प्रिंट की बड़ी चुनौती आ गई है। ब्लॉक प्रिंट के नाम पर बाजार में धड़ल्ले से बेचे जा रहे ये प्रिंट वास्तव में मशीन से तैयार होते हैं। इस वजह से इनकी लागत बहुत कम होती है और उत्पादन बहुत तेजी से होता है। असली माल की पहचान नहीं कर पाने वाले लोग इनके फेर में फंस जाते हैं और असली कलाकारों को नुकसान हो जाता है।

सरकार से अपेक्षा

रोहित कहते हैं, ‘सरकार से हमारी यही अपेक्षा है कि वह न केवल नए लोगों को इस कला से जोड़े बल्कि वह तैयार उत्पादों को बाजार मुहैया कराने और नए बाजार तलाश करने में भी हमारी मदद करे। अगर हमें इस कला को टिकाऊ स्वरूप प्रदान करना है तो बाजार पहुंच आवश्यक है। बिना बाजार के व्यवसायी या बुनकर ज्यादा समय तक नहीं टिक सकेंगे। सरकार को चाहिए कि मौसमी बुनकर मेलों आदि से इतर कलाकारों को बड़े बाजारों से जोड़ने की व्यवस्था बनाए।’

मृगनयनी एंपोरियम में नज़र आता है छीपा आर्ट

संत रविदास हस्तशिल्प एवं हथकरघा विभाग निगम, सौंसर (छिंदवाड़ा) के प्रभारी के.के. बांगरे ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया, ‘शासन के स्तर पर छीपा प्रिंट के कारोबार को मार्केट लिंकेज मुहैया कराने को लेकर फिलहाल कोई योजना नहीं है।

First Published : May 28, 2025 | 10:55 PM IST