वाणिज्य मंत्रालय ने चार साल पहले आयात-निर्यात नीति (2002-07) के स्थान पर नई विदेश व्यापार नीति (एफटीपी) घोषित की। नई विदेश व्यापार नीति 2004-09 के लिए लागू की गई।
एफटीपी का लक्ष्य इन पांच सालों में भारत के वस्तु व्यापार को वैश्विक स्तर पर दोगुना करना है। इस नीति का एक उद्देश्य यह भी था कि यह आर्थिक विकास के लिए एक प्रभावकारी जरिया बने। इस तरह से जो विकास होगा, उससे जाहिर तौर पर रोजगार सृजन के अवसर भी काफी बढ़ेंगे।
विश्व व्यापार में हो रही बढ़ोतरी इस बात का संकेत देती है कि एफटीपी ने कम समय में ही अपनी उपयोगिता साबित की है। हालांकि निर्यात की हिस्सेदारी को लेकर कुछ सवाल किए जा सकते हैं क्योंकि निर्यात में 20 प्रतिशत से ज्यादा की बढोतरी में अकेले पेट्रोलियम उत्पादों का योगदान है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या विश्व व्यापार के अनुकूल माहौल से यह हो रहा है या इसमें एफटीपी का भी योगदान है। मेरा मानना है कि एफटीपी से अवश्य मदद मिली है। पहली बात यह है कि एफटीपी में डयूटी इनटाइटलमेंट पासबुक योजना (डीईपीबी) जारी रखी गई जबकि इसका वित्त मंत्रालय विरोध कर रहा था। डीईपीबी दरें अपेक्षाकृत ज्यादा उदार रही हैं।
इन योजनाओं में सब्सिडी से निर्यात में भी मदद मिलती है। दूसरी बात यह है कि एफटीपी ने कुछ नई योजनाएं घोषित कीं जिनमें फोकस उत्पाद योजना, फोकस बाजार योजना शामिल थीं। इन योजनाओं से ग्रामीण और अर्द्ध शहरी क्षेत्रों से निर्यात करने में मदद मिलती है और इनके जरिये ऐसे उत्पादों के निर्माण पर जोर दिया जाता है जिनमें रोजगार भी बढ़ता है।
इसके अलावा इनमें उन देशों के निर्यात पर जोर दिया जाता है, जहां हमारी उपस्थिति कम होती है। इस तरह की योजनाएं इस तरह क्रियान्वित की जाती है, मानो निर्यात के लिए प्रत्यक्ष तौर पर सब्सिडी दी जा रही हो। तीसरी बात यह है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) कानून 2005 और सेज नियम 2006 ने निर्यात से संबंधित बुनियादी ढांचों में निवेश के बेहतरीन अवसर उपलब्ध कराए हैं।
वैसे तो सेज कानून को वर्ष 2000 में ही लाने की बात चल रही थी, लेकिन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ के अथक प्रयासों के बाद इसे संसद में पारित कराया जा सका। जब सेज नीति पर जोरदार प्रहार किया गया तो भी कमलनाथ दबाव में नहीं आए।
जैसा कि सिंगुर में नैनो प्लांट के विवाद का अगर उदाहरण लिया जाए, तो एक बात तो स्पष्ट है कि भूमि का अधिग्रहण सेज से जुड़ा मुद्दा नहीं है। हालांकि सरकार ने इस तरह के अधिग्रहण के लिए ऐसी नीति पेश की जो ज्यादा से ज्यादा वर्गों को मान्य हो। चौथी बात यह है कि निर्यात संवर्द्धन पूंजीगत सामान योजना (ईपीसीजी) आज भी कायम है। इसके तहत शुल्कों को 3 प्रतिशत तक कम कर दिया गया है।
कमलनाथ के सामने आगे काफी मुसीबतें हैं। उन्हें वित्त मंत्रालय से निर्यात संबंधी सेवा कर को रिफंड कराना है, निर्यातोन्मुखी इकाइयों के लिए आयकर में राहत का प्रावधान करवाना है और उन क्षेत्रों के लिए विशेष पैकेज की व्यवस्था करानी है, जो रुपये की मजबूती के कारण अच्छी हालत में नही हैं।
एफटीपी में अभी भी काफी गड़बड़झाला है।कमलनाथ ने शुल्क मुक्त पूर्तिकरण योजना (डीएफआरएस) को उसके गुण-दोष पर गंभीर विचार किए हटा दिया। इस योजना के स्थान पर लाई गई शुल्क मुक्त आयात अधिकरण योजना (डीएफआईए) पर भी गंभीर विचार के बाद नहीं लाई गई। इसीलिए सेनवेट क्रेडिट को लेकर बड़ी मुकदमेबाजी शुरु हुई।
टारगेट प्लस योजना को भी उतने अच्छे तरीके से नहीं समझा गया और इससे बेईमान और कुछ बड़े आदमियों को ही लाभ पहुंचा। एफटीपी में हालांकि ज्यादा जटिलताओं और लाइसेंस राज को भी स्थिर रखा गया जिससे विदेश व्यापार महानिदेशालय और सीमा एवं उत्पाद शुल्क विभाग में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। हालांकि सुधार मामूली ही हुआ है।
संतुलन के तौर पर हम कह सकते हैं कि कुछ ही लोग निर्यात, विकास या रोजगार के आंकड़े के खिलाफ तर्क दे सकते हैं। जो भी नीतियां उपलब्ध है, उसके आधार पर कमलनाथ ने अच्छा प्रदर्शन किया है। वैसे वह और बेहतर कर सकते थे।