थोड़ा गिरे या यहीं टिके तो करिए शेयरों में निवेश

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 07, 2022 | 8:04 AM IST

भारतीय-अमेरिकी परमाणु समझौते को लेकर जैसी भ्रामक और बगैर ठोस जानकारी के जो बहस चल रही है वैसी कभी कभार ही होती है। किसी को सच में अंदाजा नहीं है कि इसका परिणाम अच्छा होगा या बुरा।


राजनीतिक नेता और अर्थशास्त्री विज्ञान के अनुसार नहीं चलते, वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को वृहत आर्थिक और सामरिक पहलुओं से कुछ लेना देना नहीं है। जिसने भी इस विषय में अपनी राय जाहिर की है उनका कुछ और ही एजेंडा है। हालांकि यह स्पष्ट है कि कांग्रेस पार्टी इस मसले पर आगे बढ़ने को तैयार है।

चूंकि इसकी परिणति संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल की समाप्ति में हो सकती है, इसलिए कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि श्रीमती सोनिया गांधी अपने समय से कुछ महीने पहले ही आम चुनावों के लिए ही तैयार हैं। बेशक चुनाव कुछ ही समय पहले होने हो , इससे बाजार में भय पैदा तो हो ही सकता है। अगली सरकार कैसी होगी, इस बारे में कुछ भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता। यह मिली-जुली सरकार हो सकती है, लेकिन स्थिर नहीं।

यह भी नामुमकिन नहीं है कि मायावती कुछ पार्टियों से बनने वाले तीसरे मोर्चे की सरकार में  प्रधानमंत्री बन जाएं। लोगों के बीच उनकी पहचान गुजराल और देवेगौड़ा से अधिक है, जो इस पद को संभाल चुके हैं। पिछले 20 वर्षों से भारत मिली-जुली सरकारों के दम पर चल रहा है। इन मिली-जुली सरकारों की स्थिरता देश के वृहत आर्थिक विकास के लिए काफी मायने रखती है। देश में तीन स्थिर मिली जुली सरकारें रहीं, नरसिंह राव (1991-96), अटल बिहारी वाजपेयी (1999-2004) और मनमोहन सिंह (2004-?)।

सभी के कार्यकाल में कुछ वर्षों में काफी अधिक विकास हुआ। हर स्थिर गठजोड़ वाली सरकार की अपनी कुछ नीतिगत सफलताएं और विफलताएं रही हैं। इससे भी अधिक इन तीनों गठबंधन वाली सरकारों ने निरंतरता में योगदान दिया है। निरंतरता ने कारोबारी चक्र को चलते रहने में मदद की है। इसी के साथ इन गठबंधनों के टूटने से बड़ी संख्या में नुकसान भी हुए हैं। एक दुखद घटना 1987-1991 के बीच हुई, जिसने देश को दिवालिया होने की कगार पर ला खड़ा किया। इसके अलावा एक घटना 1996-1998 के बीच हुई, जिसके कारण देश आर्थिक क्षेत्र में अपनी सारी गति खो बैठा।

अगर राजग स्थिर गठबंधन वाली सरकार बना सकता है, तो बाजार को खुशी होगी और ऐसा ही संप्रग के साथ भी है। लेकिन सरकार जैसे ही कामचलाऊ सरकार बनने की दिशा में आगे बढ़ेगी, दिमाग में सबसे पहले अस्थिरता का डर पैदा होगा। पहले से ही अस्थिरता का भय अपना काम कर गया है। पिछले 15 दिनों में रोजाना उतार-चढ़ाव और कीमतों में देखी जा रही गिरावट के कम से कम कुछ मामले तो राजनैतिक स्थितियों के कारण ही देखे गए हैं। अगर सरकार गिरती है, उम्मीद है कि काफी बड़े स्तर पर कीमतें गिरेंगी और मंदड़ियों को बढ़ावा मिलेगा।

अगर सोनिया गांधी या प्रकाश करात परमाणु संकट के मसले पर टकराव में एक कदम पीछे हट जाएं तो यह संकट खत्म हो सकता है। लेकिन संप्रग सरकार का कार्यकाल जैसे ही खत्म होने को आ रहा है इस तरह के संकट और भी अधिक बढ़ सकते हैं। अंतत: आम चुनाव तो होने ही हैं। बाजार में मंदी और कीमतों में उतार चढ़ाव अगली सरकार के बनने तक तो रहेगा ही। अगर अगली मिली-जुली सरकार अस्थिर ही दिखी तो मंदी का दौर आगे भी बरकरार रहेगा।

हम मंदी वाले बाजार के पांचवें महीने में हैं और आगे भी कुछ महीनों तक ऐसी या इससे भी बदतर स्थिति बने रहने की उम्मीद है। अस्थिरता के बावजूद, खाद्य सामग्री और ऊर्जा में तेज दर और नीतियों पर प्रतिक्रियाएं विकास को धीमी रफ्तार से आगे ले जाने में सक्षम है। ये इस प्रकार की बाजार परिस्थितियां हैं, जिनमें दो तरह के लोग ही आगे बढ़ेंगे। पहला वर्ग दीर्घावधि निवेशक जो कीमत की तलाश में है और औसत के कम होने पर खुद को तैयार किए बैठा है।

दूसरा वह वर्ग जो हर हाल में निवेश करना चाहता है, जिसे डेरिवेटिव्स में शार्ट रहने से परहेज नहीं करता है। मध्यावधि का निवेशक या व्यापारी जो लॉन्ग पोजिशन के हक में होता है, उसे नुकसान होता है।आईपीओ बाजार कौमा में जान पड़ता है। लंबे समय के लिए निवेश करने वालों को निफ्टी पीई  12-13 के स्तर तक बाजार के पहुंचने का इंतजार करना होगा। इसका मतलब है कि ईपीएस के उस स्तर तक पहुंचने के लिए उन्हें इंतजार करना होगा या फिर बाजार कीमतों में और भी गिरावट का सामना करना होगा।

इसका अर्थ यह है कि सही मायनों में गंभीर खरीद तभी हो सकती है, जब कीमतें और 5 से 10 प्रतिशत गिरें या फिर बाजार मौजूदा कीमतों पर ही 6 से 8 महीने के लिए बना रहे। व्यापारी 20 सबसे अधिक कारोबार वाले शेयरों या फिर अधिग्रहण और विलय के सौदों से मिलने वाले विशेष मौकों पर ध्यान देंगे। उन्हें अपने मुनाफे के बड़े हिस्से को अलग रखने और कम मुनाफा उठाने के लिए तैयार रहना होगा।

इस बाजार में ‘माइनस’ या शॉर्ट ‘डबल प्लस’ में तब्दील हो सकता है (कम कीमतों में निकल जाना और अधिक समय के लिए दोबारा शुरू करना) और एक ही समय में दोबारा ‘डबल माइनस’ (नेट शॉर्ट दोबारा) के साथ वापस आना। ऐसे में कुछ पैसा तो इस तरह के बाजार में कमाया जा सकता है। लेकिन इस बाजार में पैसा कमाना आसान नहीं है और जोखिम काफी बढ़ा है। सब्र के साथ बाजार में उतरे निवेशक या व्यापारी, जिनकी जेबें काफी गहरी होंगी, पैसा उसी के हाथ लगेगा।

First Published : June 29, 2008 | 11:39 PM IST